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Shraddha .Meera_ the _storywriter

Romance

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Shraddha .Meera_ the _storywriter

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कुछ लम्हें

कुछ लम्हें

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बहुत दिन हुए, मैं मेहंदीपुर बालाजी धाम (राजस्थान) की यात्रा पर अपने दादाजी के साथ गई थी वहां मेरे कुछ दूर के रिश्तेदार भी हमारे साथ धर्मशाला में रुके थे। उस वक़्त मेरी उम्र सोलह साल थी, किशोरावस्था में आकर्षण भी चरम सीमा पर होता है और किसी की तरफ आकर्षित होना भी।

एक दिन बीत चुका था अगले दिन शाम को आरती में शामिल होना था इसलिए नहा धो कर तैयार होना था मैंने तैयार होने के बाद दादा जी को आवाज़ लगाई कि वो आकर नहा ले,, मैं बाथरूम में उनके कपड़े रख आई पर वो पानी से भरी बाल्टी इतनी भारी थी कि मुझसे ना उठी ,मैंने फिर कोशिश करनी चाही कि अचानक किसी ने उस बाल्टी को अपने हाथ में लेकर बाथरूम में रख दिया । वो एक शायद कोई मेरा ही हमउम्र लड़का था , उसे देखकर मैं स्तब्ध हो गई थी कभी मुझे कोई इतना अच्छा नहीं लगा जितना कि वो , और था भी वो बला का खूबसूरत - हल्का सांवला रंग , ऊंचा कद,बड़ी कटीली आंखो में गम्भीरता से भरा तेज , लंबी नाक , छटे हुए पतले होंठ , मानो कृष्ण ही फिर से आ गए हो धरती पर । मैं सोचती ही रही और वो बिना एक शब्द बोले मुस्कुराते हुए चला गया ।


मैंने मन में सोचा - कितनी बेवकूफ हूं मैं थैंक्स भी नहीं बोला मैंने उसे ।


शाम की आरती में सब शामिल हुए पर उस भीड़ में मैं सिर्फ उसे ढूंढ रही थी जाने क्यों बार बार उसे देखना चाहती थी , उस दिन मेरा मन पूजा में नहीं केवल उसकी उसी याद में खोया था । रात में सब धर्मशाला में आकर सो गए ।


अगले दिन फिर सुबह पानी से भरी बाल्टी को उसने दो बार आकर बाथरूम तक पहुंचाया । फिर दोपहर में हम तीन पहाड़ हनुमान बाबा मंदिर गए वहां मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन पहाड़ों की चढ़ाई की जाती थी । मैं अपने लोगो के साथ जिनमें मेरे दादाजी और उनके दोस्त और उनका परिवार था , और वो लड़का अपने परिवार के साथ जिनमें उसकी मां चाची और उसके चचेरे भाई जो कि हमारे हमउम्र ही थे । हम सब तीन पहाड़ मंदिर गए वहां से लौटते वक्त मेरा पैर फिसलने से बचा और मैंने मेरे साथ जो दी थी उनसे कहा कि सहारा दे दो,,, ।

वो भी मंदिर के बाहर जूते पहन रहा था उसके भाइयों ने पीछे से उसे छेड़ते हुए कहा। -, जा भाई सहारा दे दे ,,,।

तब उसने अपने भाइयों से कहा था किसी लड़की के बारे में ऐसे नहीं कहते ये गलत है । और वहां से सबको छोड़ कर तुरंत चला गया , हम सब शाम की आरती के समय तक मंदिर पहुंच गए और फिर धर्मशाला ।

वो पांच दिनों तक वहां ठहरा था तब हमारा यही सिलसिला चलता रहा वो मेरी हर परेशानी में मदद करता था ।

रात के समय आरती के बाद उसे जाना था। धर्मशाला की छत पर खड़ी थी मैं उसे समान गाड़ी में रखते हुए देख रही थी। मैं चाहती थी वो ना जाए। मुझे उसका जाना अच्छा नहीं लग रहा था। मैं नहीं चाहती थी कि वो जाए पर अपने घर तो हर कोई जाता है ।

सारा सामान कार रखने के बाद उसने ऊपर मेरी तरफ देखा उसकी आंखो में आंसू थे । हम कभी कह तो ना पाए जो जरा सी मुलाकात में महसूस कर गए थे उस वक्त हमारे पास मोबाइल भी नहीं हुआ करते थे , जो बात भी कर सकते । बस इसके बाद हम कभी नहीं मिले , ना मैं कभी उसका नाम जान पाई ना उसने कभी मुझसे मेरा नाम पूछा।



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