कसोरा मक्खन वाला
कसोरा मक्खन वाला


लकड़ी की पुरानी अलमारी। ऊपर नीचे से बंद। सामने जाली वाला दरवाज़ा पुरानी सी कुण्डी लगा। चारो तरफ़ से जाली लगी थी, लकड़ी के फ्रेम में। इस तिज़ोरी में रखा जाता, देसी घी और मक्खन। ताज़ा सफ़ेद मक्खन, नर्म मक्खन। मिट्टी का कसोरा, मक्खन रखने से एक दम चिकना हो गया। रोज़ सुबह सुबह दादी दही मथती, एक खंबा, रस्सी बांधने के लिए कोठरी में ही खड़ा किया हुआ था। छोटी सी रस्सी उस खंबे के साथ लिपटी रहती (जैसे प्रेमी /प्रेमिका हों ) बड़ी सी मथानी, खंबे से लिपटी रस्सी के सहारे चलाई जाती। एक तकनीक थी मथानी चलाने में।
नीचे रखा मिट्टी का बड़ा सा बर्तन (कछाली), जिसमें दही भरा होता। एक साफ ताज़े पानी का बर्तन पास में रखा जाता, बीच बीच में मथती दही में मिलाने के लिए। सारा कौशल मथानी चलाने का, मथानी ठीक /ठाक वजन की रहती। वैसे हल्की लकड़ी से बनाई जाती।
मथानी नीचे रखे बर्तन से टकरानी नहीं चाहिए, नहीं तो बर्तन टूट जाता। "हलके हाथों से ऐसे चलाओ की दही में डूबी रहे, पर बर्तन से न टकराए '' दादी ने एक बार समझाया। दही से मक्खन निकालना एक दर्शनीय नज़ारा। दादी खड़े खड़े मथानी चलाती, बाद में जब उनकी कमर में दर्द रहने लगा, तो स्टूल पर बैठ कुछ महीनों तक मक्खन निकालती रही। स्टूल पर बैठ दादी जी से दो बर्तन टूट गए। कस्बे से गांव तक मिट्टी के बर्तन को साबुत लाना भी एक दुरूह काम था। लोहे के बर्तन में मक्खन का स्वाद बदल जाता। फिर अम्मा दही मथने लगी। इस कोठरी की पश्चिमी दीवार पर एक खिड़की थी, जिसके पल्ले अंदर खुलते, बाहर लोहे की ग्रिल लगी थी।
दीवार के उस पार आम रास्ता था। मंदिर /खलिहान जाने का। कोठरी को दो बड़े बक्सों ने दो हिस्सों में बांट दिया था। एक चमकीला बक्सा (टीन की चद्दर से बना) और दूसरा काले रंग का। लगभग चार फुट ऊंचे और पांच फुट लंबे। काला बक्सा दो इंच ज़्यादा ऊंचा था। दोनों बक्सों के बीच नौ /दस इन्च की खाली जगह बची रहती। बक्सों के उस पार दस गुणा बारह फुट का दादी का बेडरूम। इस पार स्टोर जिसमें मक्खन, घी आटा, दाल, गेंहू आदि रखा जाता।
इसी हिस्से में दही मथा जाता। मक्खन का कसोरा मेरा सबसे प्यारा बर्तन। दादी जब सफ़ेद मक्खन का गोला बना, कसोरे में रखती, तो थोड़ा सा तो मिलना तय रहता। पर यह दिल मांगे मोर वाला हाल। छुट्टी के दिन सब जैसे ही इधर/उधर होते मैं सीधा कोठरी में! मक्खन मुंह में साथ में थोड़ा सा गुड़।
खिड़की अक्सर बंद रहती। सो कोई देखने वाला नहीं। वैसे भी चाची ने सब बच्चों को डरा कर रखा था। अंधेरे में कोठरी में नहीं जाना, एक छोटा आदमी एक दिन आटे के बोरे से आटा ले जा रहा था। "कैसे? हाथ में मैंने पूछा था''। अरे नहीं, उसकी पीठ पर खोल्टू (चमड़े का पोटलीनुमा बैग ) था। उसी में भर रहा था। "फिर किधर गया? '' मैंने पूछा। एकदम गायब हो गया, वो अपनी आवाज़ को गंभीर बना कर बोली। पर पता नहीं कैसे मैंने उनका झूठ पकड़ लिया। "कितना आटा ले गया''? अब मुझे मज़ा आने लगी थी। आधा बोरा भर लिया, उसने।"आधा बोरा छोटे से खोलटू में ''? मैं मुस्कुराया। मुझे समझ में आ गया, यह हम लोगो को कोठरी में जाने से रोकने के लिए कहानी बनाई जा रही है।
मुझे इससे फ़ायदा भी मिला। सभी बच्चे कोठरी में जाने से डरते। मुझे छोड़ कर। फिर दादी को शक होने लगा कि मक्खन गायब हो रहा है। तो मैंने बिल्ली के पंजों के निशान जैसी धारियां मक्खन पर बनानी शुरू कर दी। काफी दिनों तक सब कुछ ठीक रहा। एक दिन दादी ने चिंतित हो कर कहा " बिल्ली रोज़ मक्खन खा जाती है''। चाची बोली बंद अलमारी से? बिल्ली नहीं बिल्ला खा जाता है, परसों बगल वाली उर्मिला ने खिड़की से देखा।
बिल्ले को मक्खन खाते हुए, चाची मेरी तरफ़ ही देख रही थी। मैं जल्दी से उठा, मुझे पढ़ना है। और भाग गया। अब दादी के दिए मक्खन से ही गुज़ारा करना पड़ता। मानो मक्खन का कसोरा रोज़ मुझे चिढाता। " और बनाओ बिल्ली के पंजे के निशान''। अब न वो लोग है, न चिढाने/खिलाने वाला कसोरा, न जालीदार अलमारी (जो फ्रिज का काम करती)। अब तो पैकेट में बंद,नमक मिला पीला मक्खन ( शक्ल से ही बीमार नज़र आता)। खो गया वो ताज़ा, गोरा, अपने स्वाद पर इठलाता कसोरे का मक्खन।