V Aarya

Romance

5.0  

V Aarya

Romance

"कोई अपना सा"

"कोई अपना सा"

7 mins
527


"ये कैसा अपना घर था जहाँ कोई अपना ना था !"


जीवन में जब कोई अपना साथ छोड़ दे उससे बढ़कर कोई दर्द नहीं.इस बुढ़ापे में अविनाशजी भी सबके रहते एकदम नितांत अकेले रह गए थे.पत्नी शुभा के देहांत के बाद से बेटे बहू ने एकदम सुध लेनी बंद कर दी थी. और अब चार दिन से बीमार थे जैसे तैसे दवाई पर काम चला रहे थे.बेटा टूर पर गया था और रविवार होनें की वजह से बहू और नन्हा पोता देर तक सो रहे थे. सुबह से कई बार चाय को आवाज़ लगा चुके थे पर कोई नहीं आया तो किसी तरह कमजोर शरीर को घसीटते हुए रसोई घर तक गए और चीनी चाय पत्ती एक साथ ही डाल दिया. दूध शायद बहू लाना या मँगवाना शायद भूल गई थी इसलिए काली चाय ही लेकर बिस्तर पर बैठ गए.


चाय की पहली कड़वी घूंट के साथ ही मन भी कड़वाहट से भर गया.पत्नी शुभा की याद बड़ी ज़ोर से आई. कितनी अच्छी चाय बनाती थी वो. चार साल पहले ही कैंसर से उनका देहांत हो गया था. तबसे एकदम अकेले होकर रह गए थे. बेटी कनाडा में रहती थी.. चार साल में सिर्फ दो बार आ पाई थी. बीच बीच में फोन पर हाल चाल पूछ लेती थी और एकलौता बेटा जैसे साथ रहकर भी साथ नहीं था. रोज़ दो एक बार हाल चाल पूछ जाता, दवाई वगैरह लाकर रख जाता. इतने से ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता था.

अब जीवन संध्या में अविनाश जी को जीवनसाथी की ज़रूरत बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही थी.आज तो हद हो गई बुखार होनें के बावज़ूद दिन के लगभग दस बजने को आए और ऊपर से कोई चाय भी पूछने नहीं आया. अपनी बेबसी पर लगभग रो पड़े अविनाश जी कि तभी मोबाइल बज उठा. देखा तो रागिनीजी का फोन था.


पिछले दो सालों से सुबह की सैर करते वक़्त रागिनीजी से मुलाक़ात हुई थी. हँसमुख और सुलझी हुई महिला थीं. अपने वैधव्य का रोना ना रोकर जीवन को सकारात्मक रूप से जीने की इच्छा रखती थीं और अपने अनंत कष्टों के बीच भी यूँ मुस्कुराती रहतीं जैसे कुछ हुआ ही ना हो. अविनाशजी उनसे बहुत प्रभावित थे.रागिनीजी ने फोन पर उनके ना आने की वजह पूछी फिर वो बीमार हैँ जानकर बहुत चिंतित हो गईं. कहने लगी कि... अभी आती हूँ.पर अविनाशजी ने यह कहकर मना कर दिया कि लोग क्या कहेँगे और बहू ताने देगी सो अलग कि, "इस उम्र में भी बाबूजी महिला मित्र रखते हैँ!"


अविनाशजी को हमेशा से समाज का बड़ा डर रहता था. पत्नी शुभा से भी कई बार इस बात को लेकर बहस हो जाती थी कि इतने पैसे खर्च करके इस रिहायशी इलाके में घर लेने की क्या आवश्यकता थी?जबकि इतने पैसे की अगर बचत की जाए तो आगे चलकर काम आएंगे. पर अविनाशजी ने खुद का प्रभुत्व दिखाने को इतना आलीशान घर बनवा लिया था. पर....


"ये कैसा अपना घर था जहाँ कोई अपना ना था ".


बहरहाल उस वक़्त तो उन्होंने रागिनीजी को घर आने से मना कर दिया पर बाद में मितभाषी और संवेदनशील रागिनीजी की बातों को देर तक याद कर अपनेपन के एहसास से ख़ुश होते रहे.


आज बुखार को सातवां दिन था. अविनाशजी बेहतर महसूस कर रहे थे. बेटा रोहित भी टूर से वापस आ चुका था. सुबह सुबह हाल चाल पूछने को जब रागिनीजी का फ़ोन आया तब पता नहीं उन्हें कहाँ से जोश आ गया कि उन्होंने कह दिया कि वो आज सुबह की सैर को आ रहें हैँ सो रागिनी इंतजार करे.

पता नहीं उनकी आवाज़ में कैसा अधिकार भाव था कि, रागिनीजी एक पल को तो शरमा गई फिर अपनेपन के एहसास से भीग गईं.खुद अविनाशजी को जैसे अपनी आवाज़ पर यकीन नहीं हो रहा था कि उन्होंने आज रागिनीजी से उस लहजे में बात की थी जिस लहजे में अपनी प्यारी पत्नी शुभा से किया करते थे.कदाचित इस बीमारी में अकेलेपन का एहसास उन्हें बुरी तरह कचोट गया था. शायद इसीलिए रागिनी को साधिकार बोल बैठे थे.रागिनीजी से बात करने के बाद वो जैसे एक निश्चय करके उठे.तैयार होकर अपने बगीचे में गए और अंजूरी भर रजनीगंधा के फूल तोड़ लाए.रजनीगंधा के फूल बहुत पसंद थे रागिनीजी को.शुभा को भी बहुत पसंद थे इसलिए उसके जाने के बाद अविनाशजी उस तरफ की खिड़की ही नहीं खोलते थे, जिस तरफ रजनीगंधा का पेड़ था.पर आज बात कुछ और थी.सुबह की सैर क़ो निकलते हुए अविनाशजी रजनीगंधा का फूल नहीं भूले. ये फूल रागिनी को बहुत पसंद जो थे.इन दो सालों में रागिनी से रोज़ मिलकर, बात करके वो एक जुड़ाव सा महसूस करने लगे थे. पत्नी के जाने के चार साल होनें को आए थे पर ऐसा लगाव उन्होंने किसी के लिए महसूस नहीं किया था जितना वो रागिनीजी से अपनापन महसूस करने लगे थे.


उधर रागिनी के पति को गए हुए लगभग सात साल हो गए थे. तबसे अकेले वैधव्य काट रही थी. बेटा कोई था नहीं. ले दे कर अपनी एकलौती बेटी के घर रह रही थी और अब अविनाशजी के साथ वह भी एक खिंचाव सा एक लगाव सा महसूस करने लगी थी.आज वो भी अपने दिल की बात अविनाशजी से कहनेवाली थी और आज अविनाशजी भी ठान चुके थे कि...आज वो किसी भी तरह रागिनी से अपने मन की बात कह देंगे . अब कोई रोके तो भी नहीं रुकेंगे. बेटे बहू के रहते भी जो अकेलापन वो झेल रहे थे उससे कोई और वाकिफ हो ना हो रागिनीजी ज़रूर अवगत थी. उनकी बेटी दामाद भी व्यस्त रहते और उनको ज़्यादा वक़्त नहीं दे पाते थे. अक्सर और बेटी दामाद भी उससे खार खाए रहते,बस सबकी नज़र उनकी संपत्ति पर है.


आज रागिनी बहुत बेसब्री से अविनाशजी का इंतजार कर रही थी.इधर अविनाशजी जब पार्क पहुँचे तो देखा रागिनीजी पहले से आई हुई थी.आज वो रागिनी को अपनी ज़ीवन संगिनी के रूप में देख रहे थे. दिल यूँ जोर जोर से धड़क रहा था जैसे पहली बार किसी लड़की को प्रपोज़ कर रहें हों.सोचा पहले कुछ भूमिका बाँध लें फिर बात छेड़ेंगे पर रागिनी पहले ही बोल पड़ी,"मैंने आपको बहुत मिस किया. मुझे आपसे एक जुड़ाव महसूस हो रहा है,क्यूँ ना हम एक दूसरे के साथ रहें."इतना सुनना था कि अविनाशजी ने भावुक होकर रागिनी का हाथ पकड़ लिया.


बाद में उनकी शादी में दोनों ही तरफ से तमाम अड़चनें आईं. रागिनीजी की बेटी ने भी अच्छा खासा हंगामा खड़ा किया था. मूलतः तो वो इसलिए परेशान थी कि अब उसके बच्चों की मुफ्त में देखभाल कौन करेगा, और माँ के गहनों पर भी उसकी नज़र थी.इधर अविनाशजी के बेटा बहू ने भी जमकर विरोध किया था. वो तो अच्छा था कि उनकी बेटी नें पूरा साथ दिया था.


खैर , उनकी शादी में मेहमान भले कम थे पर उनके बीच प्यार अनहद था.दोनों उम्र के इस पड़ाव पर जीवनसाथी पाकर बहुत ख़ुश थे.उस रात फिर रजनीगंधा के फूलों की खुशबू खिड़की से आ रही थी पर आज अविनाशजी ने खीझकर खिड़की बंद नहीं की.बल्कि देर तक रागिनी का हाथ पकड़कर बैठे रहे. निहारते रहे चाँद को, महसूस करते रहे चाँदनी को और निहारते रहे अपनी नई नवेली प्रियतमा को जो बिल्कुल नई दुल्हन सी सकूचा रही थी. वैधव्य के लिबास में उन्होंने रागिनी के चेहरे पर कभी ऐसी लालिमा तो देखी ही नहीं थी. प्यार किसी भी उम्र में हो इंसान के चेहरे पर एक लावण्य ज़रूर ले आता है और इस अतरंग एहसास से दिल तक पहुँचती है एक खुशी की लहर जो आज अविनाशजी और रागिनी दोनों महसूस कर रहे थे.भले ही इस सुहागरात में दो जवां शरीर का मिलन ना हुआ हो. दो प्यार भरे दिल अवश्य मिल रहे थे.


सुबह सुबह चाय की खुशबू से अविनाशजी की नींद खुली.आज देखा उन्होंने गौर से रागिनी को. सिंदूर लगा माथा, आलता लगे पैर और आँखों में प्यार का अथाह सागर. सिंदूर का रंग प्रेम और समर्पण से और भी गहरा हो जाता है ये आज ही उनहोनें जाना था. समर्पण तो ह्रदय का ह्रदय से होता है, शरीर तो एक भूमिका मात्र निभाता है.जब रागिनी चाय लेकर पास आई तो किसी नए उतावले प्रेमी की तरह उन्होंने गहरा गुलाबी रंग उसके गालों पर मल दिया , बदले में रागिनी ने भी शरारत करते हुए अपने होली के रंग से रंगे गाल उनके गाल से मल दिया. उसकी इस हरकत पर अविनाश जी भी नटखट हो गए.


इन्हें देखकर कौन कह सकता था कि अब इनकी उम्र हो गई. प्यार इंसान को सदा जवां जो बनाए रखता है. ये थी एक नटखट होली.आज रागिनी को अपने वैधव्य के दिनों की कोई याद नहीं थी. वो जब भी अविनाशजी से कृतज्ञ होकर कहती, आपने मुझे सधवा बना दिया तो वो हँसकर कहते... हम दोनों सधवा बन गए.

सच में प्यार किसी भी उम्र में क्यूँ ना हो इंसान को जीना ज़रूर सीखा देता है.



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Romance