किस्मत - 4
किस्मत - 4
पता चला वो क्लाइंट कोई और नहीं नवीन जी ही थे। अपने एक कार्यक्रम की शूट के लिए पास ही के गांव में आये हुए थे। किस्मत भी क्या चीज होती है। कुछ देर पहले में सोच रही थी कि में कहाँ सोऊंगी। अब मैं और नवीन जी, विभूति जी के रूम में थे और विभूति जी और मांजी बैठक और तिबारी में। नवीन जी तो जैसे किसी बच्चे की तरह गहरी नींद में सो गए थे। लेकिन अनजान जगह, किसी और का बिस्तर ...मुझे नींद नहीं आ रही थी।
मैं उब कर डेस्क पर आ गयी। वहां एक पुरानी डायरी रखीं थी। एक बारगी हाथ उधर गया कि देखूँ की क्या है लेकिन फिर किसी से बिना पूछे उनकी डायरी पढ़ना सही नहीं होगा सोच कर ठहर गयी। दराजों को धीरे से खोला वहां कुछ पन्ने कुछ रंग की छोटी शीशियां, कुछ सीरिंज, दो चार नमक की पुड़िया, एक क्रॉस, एक लेडीज के बालों को बांधने वाला क्लचर, एक ब्रांड न्यू लिप बाम, एक फिरोजी रंग की माला और कान के झुमके और एक अजीब सा छोटा शीशा था।
मां जी ने खिड़की के पल्ले बन्द रखने को कहा था पर कुछ घुटन सी हो रही थी। बन्द खिड़कियां मुझे बेचैन करती हैं। घुटन लगती है सो मैंने धीरे से खिड़की के एक पल्ला खोल दिया। अद्भुत!!! एक भीनी महक के साथ शीतल हवा ने मेरे चेहरे और बालों को सहलाया। झींगुर की आवाजें आश्चर्यजनक रूप से बंद हो गईं। दूर घरों के आंगन में पीली रोशनी एक नीरवता में भी आकर्षण पैदा कर रही थी। जी करने लगा कि खिड़की से ही सरक कर बाहर निकल जाऊं। फिर अचानक ध्यान आया कि ये घर पहाड़ में सबसे ऊपर कोने पर बना है कहीं खिड़की की दूसरी ओर खाई हुई तो? मैंने एक पल नवीन जी की ओर देखा। लगा जैसे उन्होंने कहा "लाटी उलजुलूल करने से पहले दिमाग चला लिया कर थोड़ा। कहाँ तक बचाऊंगा तुझे!" मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी। सच जीवन साथी समझदार हो तो मुझ जैसी सिरफिरी-मनमौजी के लिए ये किसी वरदान से कम नहीं। मैं नवीन जी को निहार ही रही थी कि डेस्क से कुछ नीचे गिरा। मैंने पल्ला थोड़ा अंदर की ओर खींचा की हवा से कहीं फिर कुछ न गिर पड़े और इनकी नींद न खराब हो। डेस्क के पास आई तो आस पास कुछ भी नहीं था। बाहर कुछ हलचल हुई। मैंने दरवाजा खोला तो देखा तिबारी में चाँद की छनती रोशनी फैली थी। विभूति जी रजाई तान कर सोए हुए थे। मांजी उनके करीब से होते हुए पास में दूसरे भीतर जा रहीं थी। लेकिन बहुत अजीब तरह से मानो उनका पेट दर्द हो रहा हो और वे बस मुड़ी जा रहीं हैं। मैं धीरे से बाहर आई और उनके पीछे भीतर चली गयी। देखा मांजी ने पीछे का किवाड़ खोला हुआ है और लगा शायद वो वहां से बाहर गयी हैं। सोचा कोई बात होगी। मैं जैसे ही पलटी हवा से किवाड़ बन्द हो गया। सामने कोई लंबी सी औरत थी। उसने मेरी ओर हाथ बढ़ाया जैसे हाथ मिलाना चाह रही हो।
ये इज़ाबेला थी।
"हाय! ",
"हेलो",
"सोरी आपको चौंका दिया।"
चौंक तो मैं गयी थी लेकिन कहना सही नहीं लगा।
"मैं अक्सर देर रात ही आती हूँ। आप दोनों रूम में थे इसलिए मिलने नहीं आयी।" इज़ाबेला की हिंदी बहुत ही अच्छी थी। कहीं से भी विदेशी अंदाज नहीं था।
"जी मुझे नींद ही नहीं आ रही थी, आवाज हुई तो देखा मांजी इधर आईं थी सो.."
इज़ाबेला मुस्कराई। उसने मुझे इशारा किया पीछे आने का "आई अंडरस्टैंड , आइए आपको एक इंटरेस्टिंग चीज दिखाऊँ"
वो और मैं, अब पिछले दरवाजे से नीचे गांव की ओर जा रहे थे।
"रात में बाघ का डर नहीं लगता आपको" मैंने अपना डर घुमा कर कहा।" नहीं बाघ सियार ये करीब नहीं आते।" "हम्म ..."मेरा दिल किया कि मैं इज़ाबेला का हाथ थाम कर चलूं पर वो बहुत तेजी से नीचे उतर रही थी। नीचे नदी थी शायद क्योंकि पानी के तेज बहने की आवाज लगातार तेज हो रही थी। "हेलो ...सुनो... थोड़ा धीमे चलो...मैं गिर पड़ूँगी।" पर शायद उसने सुना नहीं। वो मुझसे लगभग 7-8 फ़ीट आगे नीचे की ओर थी।
अचानक मेरा पैर किसी चिफली (लिसलिसी) चीज पर पड़ा और मैं पगडंडी के उस ओर गिरने वाली थी। लेकिन नहीं गिरी । उस पल जो हुआ और जो मैंने देखा वो किसी भी सूरत में संभव नहीं था। अचानक से इज़ाबेला का हाथ आया और उसने मुझे नीचे गिरते से वापस खींच लिया। मैंने देखा इज़ाबेला अभी भी मुझे 6-7 फ़ीट दूर थी। और उसका हाथ जैसे किसी रबरबैंड की तरह वापस उसके पास लौट गया। मैं जम गई, चीखना चाह रही थी लेकिन चीख निकली ही नहीं। जैसे मेरी केवल आँख कान, दिल और त्वचा ही संवेदनशील थी बाकी सारे अंग ठप्प... ।
"उठ जाओ सजीली, कितना सोओगी यार!" मैंने आंखें खोलीं देखा नवीन जी नहा धो कर तैयार मेरे सामने खड़े थे। हमेशा कि तरह मुस्कराते हुए..टच वुड। मुझे रात का वाकया उस वक्त याद नहीं आया पर बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई कि मांजी क्या सोच रही होंगी की कैसी लापरवाह हूँ। आनन फानन में मैं तैयार हुई और आधे घंटे में नीचे किचन में। देखा वहां विभूति जी और मांजी के साथ गांव की कोई लड़की बैठी थीं ।
चूल्हे पर दो कुकर रखे थे। मुझे वहां पहुंचा देख दोनों बहुत आश्चर्य में लगे। मैंने चौकल खिसकाई और मांजी के पास बैठ गयी। विभूति जी बस मुझे देखे ही जा रहे थे। मांजी ने सबसे पहले जोर की किलक मारी और मेरे पर कलसे से अंजुरी भर कर जोर का छींटा मारा। लगा जैसे किसी ने जोर का थप्पड़ मारा हो।

