Deepak Kaushik

Horror

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Deepak Kaushik

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किले का रहस्य

किले का रहस्य

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पहाड़ की चोटी पर बसा वो टूटा-फूटा सा खण्डहर अपनी कहानी स्वयं सुनाता था। एक छोटे से कस्बेनुमा शहर में बसा ये खण्डहर कभी आलीशान किला रहा होगा ये देखने वाला कोई भी व्यक्ति कह सकता था। खण्डहर कुछ भी कहे, देखने वाले कुछ भी कहे, इस खण्डहर में दिन में भी कोई भी व्यक्ति भूल कर भी नहीं जाता। ना जाने कितनी कहानियां बिखरी हैं इस खण्डहर के बारे में, कस्बे के भीतर। 


अनिकेत ने पहली बार जब इस शहर में कदम रखा था तभी से इसके प्रति आकर्षित रहा था। एकाध बार स्थानीय लोगों से इसके बारे में पूछा भी। मगर लोगों ने बात करने से ही मना कर दिया। कुछ लोगों ने बात की भी तो उसे ऐसी कहानियां सुनाईं जिससे कोई भी आम आदमी डर कर खण्डहर का नाम भी लेना बंद कर दे। 


एक दिन अनिकेत की मुलाकात श्रीधर से हुई। श्रीधर उसी शहर का रहने वाला था। बातों-बातों में अनिकेत ने खण्डहर की तरफ देखते हुए कहा-

"आखिर इस खण्डहर में ऐसा क्या है कि यहां के लोग इसके बारे में बात भी नहीं करना चाहते।"

"तुम इसके बारे में जानने के लिए इतने उत्सुक क्यों हो? क्या इसमें छुपे खजाने को पाना चाहते हो?"

"खजाना? क्या इस खण्डहर में कोई खजाना भी है?"

"कहां तो यही जाता है। कितने लोग उस खजाने की खोज में अपनी जान भी गंवा चुके हैं।"

"मुझे खजाने का तो कोई लालच नहीं है। मगर इसके इतिहास और इसकी बनावट... और इसके रहस्य के बारे में जानने की उत्सुकता जरूर है।"

"इसका इतिहास तो ये है कि इस शहर और इस किले को अस्थिमाल नाम के राक्षस ने बसाया था। आज जो ये खण्डहर सा दिख रहा है, कभी बहुत आलीशान वही किला हुआ करता था। बाद में उसी के वंशज इस शहर और इस किले के मालिक होते रहे। देश की आजादी के बाद जब सारी रियासतें भारत संघ में विलय हो गयीं तब ये रियासत भी विलय हो गई। आजादी के कुछ सालों के बाद राजघराने के लोग इस शहर को छोड़ कहीं और जा बसे। अब ये किला वीरान खण्डहर बन चुका है।"

"सरकार इसकी तरफ ध्यान नहीं देती?"

"देती है। ये संरक्षित इमारत है। कई बार सरकारी तौर पर इसकी मरम्मत कराने की कोशिश की गई। मगर जितनी मरम्मत दिन में की जाती रात में सब बराबर हो जाती। यहां सीआरपीएफ की टुकड़ी भी पहरे पर बैठाई गई। मगर कोई हल नहीं निकला। सीआरपीएफ भी नहीं समझ पायी कि आखिर निर्माण कार्य टूट कैसे जाता है। हार कर सरकार ने भी अपने हाथ खींच लिए और इस खण्डहर को इसके हाल पर छोड़ दिया।"

"मैं इसे अंदर से देखना चाहता हूं।"

"अंदर तो मैं भी जाना चाहता हूं। मगर कोई जाने नहीं देगा। इसलिए चोरी-छिपे जाना होगा।"

"मैं तैयार हूं। कब चलना होगा?"

"कल रात चलें।"

"ठीक है।"


अगली रात अनिकेत तय स्थान पर पहुंचा। श्रीधर के साथ एक युवक और भी था। श्रीधर ने उसका परिचय दिया।

"ये रामाधीन है। किले के अंदर जाना चाहता था इसलिए साथ ले आया हूं।"

तीनों के पास एक-एक थैला था जिसमें कुछ खाने के सामान के अतिरिक्त किले के अंदर काम आ सकने वाली वस्तुएं थीं।

"अंदर किसी विशेष चीज की जरूरत पड़ेगी?"

"यदि खजाना नहीं खोजना है तो नहीं।"

श्रीधर हंसा। 


इस किले की बनावट ऐसी थी कि पूरा का पूरा शहर किले के चारों तरफ बसा था। किले में चारों दिशाओं में बड़े-बड़े फाटक बने थे, जो अब बाकी किले की तरह ही काल के गाल में समा गए थे। किले की एक चहारदीवारी थी। ये भी की जगहों से टूट जाने के बावजूद भी सही-सलामत थी। श्रीधर अपने दोनों साथियों के साथ एक सुनसान जगह बने एक गोलाकार छेद के रास्ते किले के अंदर दाखिल हो गया। जैसे ही तीनों ने किले की जमीन पर पैर रखा, तीनों के शरीर में सिहरन की एक लहर दौड़ गई। रामाधीन बोला-

"लोग गलत नहीं कहते हैं, इस किले में जरूर कुछ ऐसा है जो लोगों की जान लेता है।"

"तुम्हें डर लग रहा है?"

"क्या तुम्हें नहीं लग रहा?"

"सच कहूं तो... हां! लग रहा है। मगर मैं अंदर अवश्य जाऊंगा। हां, यदि तुम वापस जाना चाहो तो जा सकते हो।" श्रीधर ने कहा।

"ठीक है। मैं वापस जा रहा हूं।" कहकर रामाधीन वापस जाने के लिए मुड़ा। लेकिन वापस मुड़ते ही उसके होश उड़ गए। वो लगभग चीखते हुए से बोला-

"अरे! वो रास्ता कहां है जिससे हम लोग आते थे?"

अनिकेत और श्रीधर, जो कुछ कदम आगे चले गए थे चौंक कर पीछे मुड़े। एक छोटी टार्च की रोशनी किले की दीवार पर मारी। सचमुच दीवार ऐसी सपाट दिख रही थी जैसे वहां कभी कोई रास्ता रहा ही न हो।

"समझें अनिकेत बाबू! श्रीगणेश हो गया।"

"ठीक कहते हो। अब हम वापस भी नहीं जा सकते। सिर्फ आगे ही बढ़ सकते हैं।"

"इस रामाधीन का क्या करें?"

"करें क्या। अब तो यहां भी नहीं छोड़ा जा सकता है। मजबूरी है। साथ ही चलना पड़ेगा।"

"दिल कड़ा करो और साथ चलो। तुम्हें दूसरे रास्ते से बाहर निकालने की कोशिश करता हूं।"

कहकर श्रीधर ने आगे पैर बढ़ाया। बाकी दोनों भी उसके पीछे चले। रामाधीन चला तो, मगर उसकी डर के मारे हालत खराब थी। उसके पैर कांप रहे थे। गला सूख रहा था। उसने अपने थैले से पानी की बोतल निकाली और एक सांस में आधी बोतल पानी पी गया। पानी पीकर वो थोड़ा तो संयत हुआ। मगर फिर भी उसका भय पूरी तरह से दूर नहीं हुआ। रामाधीन के भय को महसूस कर अनिकेत ने अपने थैले से रम की बोतल और प्लास्टिक का एक गिलास निकाला और एक पैग बनाकर रामाधीन को दे दिया। रामाधीन शराब पीकर संभल गया। इन तीनों को किले के अंदर आये लगभग एक घंटा हो रहा था। अभी तक श्रीधर दोनों को लेकर किले की दीवार के साथ-साथ चलते हुए मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहा था ताकि रामाधीन को किले से बाहर कर सके। मगर एक घंटा बीत जाने के बावजूद भी मुख्य द्वार का कोई पता नहीं था। 

"अब तक तो हमें मुख्य द्वार तक पहुंच जाना चाहिए था।" हैरानी भरे स्वर में श्रीधर ने कहा।

"ऐसा तो नहीं कि हमने दरवाजा पीछे छोड़ दिया हो।"

"श्रीधर बाबू, मैं यहीं का रहने वाला हूं। मैं भला नहीं जानूंगा कि मुख्य द्वार कहां पर है।"

श्रीधर ने हंसकर कहा।

"मेरा कहने का मतलब था कि ऐसा तो नहीं कि जहां से हम लोग अंदर आये थे उसी के पास दरवाजा रहा हो और हम लोग दूसरी तरफ आ गये हो।"

"ये भी संभव नहीं है।"

कहते हुए श्रीधर पीछे की तरफ मुड़ा और हैरानी से चीख पड़ा।

"ये रामाधीन कहां चला गया।"

अनिकेत ने भी पीछे मुड़कर देखा। वास्तव में रामाधीन का कोई पता नहीं था।

"मेरे पीछे-पीछे ही तो आ रहा था।"

दोनों ने वापस लौट कर रामाधीन को खोजने की कोशिश की। मगर सब व्यर्थ। रामाधीन ऐसे गायब हुआ जैसे किले की दीवार से वो छेद और किले का मुख्य द्वार गायब हो गया था। 

"क्या कहते हो अनिकेत बाबू? हम लोग बुरी तरह फंस गए हैं।"

"ठीक कहते हो। मगर हम लोग तो फंसने के लिए ही आते थे। जब ओखली में सर दिया है तो फिर मूसल तो पड़ेंगी ही। चलो दो-दो पैग मारो और चलो किले के अंदर। जो होगा देखा जायेगा।"

दोनों ने रम पी और किले के अंदर घुस गये। अंदर जाते इन्हें सबसे पहले एक बहुत बड़ा हाल मिला। जिस रास्ते से ये हाल में पहुंचे थे उसके विपरीत दाहिनी दिशा में एक चौड़ी सी सीढ़ी ऊपर की तरफ जाती दिख रही थी जबकि बायीं तरफ एक सीढ़ी के नीचे की ओर जाने के निशान दूर से ही दिखाई दे रहे थे। जिससे यह स्पष्ट था कि इस किले में कोई तहखाना भी है। दोनों अभी हाल का मुआयना कर ही रहे थे कि इन दोनों के पीछे से रोशनी की एक रेखा दोनों के बीच से होती हुई दूसरी तरफ चली गई। दोनों के माथे पर पसीना छलक आया। बुद्धि सुन्न पड़ गयी। अनिकेत ने बुद्धि को संयत रखने के लिए पुनः शराब का सहारा लिया। इस बार उसकी बोतल खाली हो गई। खाली बोतल को वहीं फेंक दोनों ने आगे कदम बढ़ाया। दो-तीन कदम ही चले होंगे कि एक भयानक चीख सुनाई पड़ी।

"ई...।"

दोनों ने एक-दूसरे को देखा।

"किसी औरत के चीखने की आवाज है। जैसे किसी औरत को बहुत ज्यादा तकलीफ दी जा रही हो।"

"हां! और ये चीख नीचे से आती मालूम पड़ रही है।"

"चलो देखते हैं।"

शराब दोनों के सिर चढ़ चुकी थी। अब इनका भय काफी कुछ तिरोहित हो चुका था। दोनों उधर की तरफ लपक गये जिधर नीचे जाने वाली सीढ़ियों का आभाष हुआ था। वहां वास्तव में सीढ़ियां ही थीं। दोनों नीचे उतरने लगे। मगर ये क्या वो जितना नीचे उतरते जाते थे, सीढ़ियां भी उतनी ही नीचे उतरती हुई दिखाई देती थीं। इस समय अनिकेत आगे चल रहा था। उसके हाथ में हाई पावर टार्च थी। उस टार्च की रोशनी जितनी दूर तक जा रही थी सिर्फ सीढ़ियां ही दिखाई दे रही थी। अचानक अनिकेत के मन में शंका हुई कि श्रीधर पीछे आ भी रहा है। रामाधीन की तरह गायब तो नहीं हो गया। उसने मुड़कर देखा। श्रीधर तो पीछे था लेकिन जो कुछ उसने देखा उसे देखकर उसे एक बार फिर चौंक जाना पड़ा। अभी उन दोनों ने मुश्किल से बीस-पच्चीस सीढ़ियां ही तय की होंगी। मगर इस समय ऊपर की तरफ अनन्त तक सीढ़ियां दिखाई दे रही थी। 

"हे भगवान! किस मुसीबत में फंस गए हम लोग।"

उसके मुंह से निकला। उसकी बात सुनकर श्रीधर ने भी पलटकर देखा। उसका मुंह भय और आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। 

"अब क्या करें? ऊपर चलें या नीचे?"

अनिकेत ने अपने ऊपर काबू पाते हुए प्रश्न किया।

"नीचे ही चलेंगे। जो कदम आगे बढ़े हैं पीछे नहीं हटा सकते। चाहे जो हो।"

"ठीक कहते हो।" 

कहते हुए अनिकेत ने पुनः नीचे उतरना शुरू कर दिया। अभी एक सीढ़ी ही उतरा था कि चारों तरफ से रोने की आवाजें आनी शुरू हो गई। जैसे सैकड़ों हजारों की संख्या में स्त्रियां आसपास ही रो रहीं हों। दोनों इस रोने की आवाज से विचलित हो उठे। उन्हें ऐसा लगने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उन दोनों की तरह ही और भी लोग वहां फंसे हों और उन लोगों को इन लोगों की सहायता की आवश्यकता हो। अनिकेत ने जल्दी-जल्दी उतरना शुरू किया। श्रीधर ने भी वही किया। अचानक जैसे श्रीधर को किसी ने पीछे से धक्का दिया। श्रीधर अनिकेत को साथ लेते हुए नीचे की तरफ गिरा। दोनों के मुंह से भयंकर चीत्कार निकली। मगर यहां इनकी चीत्कार सुनने वाला था कौन?" दोनों बेहोश हो गए।


अनिकेत को जब होश आया तब उसने देखा। वो एक बड़े से कमरे में था। उसके पीछे तरफ हद ऊपर अंधेरा था। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि पीछे क्या है। हां, सामने की तरफ एक बहुत विशाल और भयंकर मूर्ति थी। ऐसी मूर्ति उसने अपने जीवन में देखना छोड़ो, सुनी तक नहीं थी। एक बड़ा सा मिट्टी का दिया जला रहा था। जिसमें शायद सरसों का तेल भरा था। एक व्यक्ति उस मूर्ति के सामने पद्मासन में बैठा कुछ मंत्र जप रहा था। एक अन्य व्यक्ति कुछ दूर पर चुपचाप शांत बैठा था। शायद वो इस व्यक्ति सहायक या शिष्य था। अनिकेत कुछ भी समझ पाने में असमर्थ था। अचानक मंत्र जप रहा व्यक्ति बोला-

"लाओ! उसे लाओ।"

जैसे आसमान में बिजली कड़की हो, ऐसी आवाज थी उसकी। सहायक अनिकेत की तरफ आया। अनिकेत ये देखकर चौंक गया कि ये व्यक्ति और कोई नहीं रामाधीन था। तो क्या दूसरा व्यक्ति... ? ठीक समझा। दूसरा व्यक्ति श्रीधर ही था। क्योंकि उसी समय वो उसकी तरफ पलटा था और अनिकेत की दृष्टि उस पर पड़ गई थी। श्रीधर ने भी देख लिया था। उसने अनिकेत शंका का समाधान कर दिया।

"मैं श्रीधर नहीं हूं। मैं अस्थिमाल का वंशज हूं। अस्थिमाल की ७३वी़ पीढ़ी में मेरा जन्म हुआ था। मेरा नाम सूचीमुख है। पिछले ३००० वर्षों से यहां रहकर अपने देवता के आगे मनुष्यों की बलि देकर उनका मांस खाता और रक्त पीता हूं। आज तुम्हारी बारी है।"

अनिकेत की जबान को लकवा मार गया था। चाह कर भी रामाधीन के बारे में नहीं पूंछ पाया। सूचीमुख ने स्वयं बताया।

"इसके बारे में सोच रहे हो? ये मेरा सेवक है। ये भी मेरे साथ पिछले ३००० साल से मेरी सेवा कर रहा है। जो मैं खाता पीता हूं उसी में जो कुछ बच जाता है, ये खा-पी लेता है। ...


अनिकेत इससे अधिक नहीं सुन पाया। उसकी चेतना लुप्त हो गई थी।



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