अरविन्द कु सिंह

Abstract

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अरविन्द कु सिंह

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खुशियों की दुश्मन

खुशियों की दुश्मन

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"माँ, मुझे कुछ पैसे चाहिये। जरूरी काम है।"-श्वेताने कहा तो सीमा उसे पैसे देते हुए बोली "तुझे जितने पैसे चाहिए ले ले, लेकिन फालतू के खर्चे से बचना।"

कहकर सीमा ऑफिस के लिए निकल गई। लेकिन श्वेता को उसका हिदायत देना अच्छा नहीं लगा था।

बीस वर्षीय श्वेता कॉलेज में द्वितीय वर्ष की छात्रा थी।

उसके सर से बचपन में ही पिता का साया उठ गया था। फिर भी सीमा ने उसकी परवरिश बहुत अच्छी तरह की थी। उसे किसी चीज की कमी नहीं होने दी थी।खुद साधारण-सा पहनती लेकिन श्वेता की हर जरुरत को पुरा करती थी।

हाँ,वह उसको अनुशासन में जरुर रखती थी।जरुरत के अनुसार बहुत-सी बंदिशें भी लगा रखी थी उसने और अच्छा-बुरा भी समझाती रहती, जो श्वेता को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था।उसे तो स्त्री स्वतंत्रता की बातें पसंद थी और खुद भी स्वतंत्र और बेरोकटोक के जीना चाहती थी।

श्वेता अक्सर कहती "पापा की सारी दौलत तो मेरी ही है फिर आप मुझे खर्च से क्यों रोकती हो।"

तो सीमा मुस्कराकर जवाब देती-" बेटा, मैं तुम्हें खर्च से नहीं रोकती बल्कि फिजुल खर्च से रोकती हूँ।"पर श्वेता की नाराजगी बनी रहती।

एक दिन ऑफिस से लौटते समय सीमा ने श्वेता को महेश के साथ मोटरसाइकिल पर बैठे हुए देख लिया।

महेश मोहल्ले का छँटा हुआ बदमाश था और कई लड़कियों की इज्जत खराब कर चुका था।सीमा को यह बात पता थी। इसलिए उसने श्वेता को डाँटा तो वह उससे उलझ गई।

"माँ, मैं आपकी गुलाम नहीं हूं। मुझे भी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक है।मेरी जो मर्जी होगी ,वही करूंगी। मैं महेश से प्यार करती हूं।आपकी मर्जी हो या ना हो मैं उसी से ही शादी करुंगी।"

सीमा ने उसे बहुत समझाया और नहीं मानने पर उसको थप्पड़ भी जड़ दिया।

लेकिन श्वेता अपनी जिद पर अड़ी रही।

श्वेता ने गुस्से में दो दिनों से सीमा से बात नहीं किया था और खाना भी छोड़ दिया था।सीमा को उसपर दया आ रही थी पर सब जानते हुए वह उसका जीवन बर्बाद होने नहीं दे सकती थी।

सीमा के ऑफिस जाने के बाद श्वेता घर में अकेली थी और रो रही थी कि उसकी दादी (पापा की बुआ) आ गईं।

उन्होंने श्वेता को रोते देखा तो उसे पुच्कारा , फिर पुछा -"क्या हुआ बेटी ?रो क्यों रही है ?सीमा ने तो तेरी आंखों में कभी आंसू नहीं आने दिए ?"

उसने रोते हुए सारी बात दादी को बता दी और फिर पुछा -"लेकिन दादी,यह आंसू मुझे माँ ने ही दिए हैं। आखिर माँ मेरी *खुशियों की दुश्मन* क्यों है ?उसे मेरी खुशी से जलन क्यों होती है ?"

दादी ने उसे समझाया कि ऐसी बात नहीं है तो वह बिफर कर बोली,-" फिर वह मुझे अपनी मर्जी से जीने क्यों नहीं देती ?"

दादी कुछ देर सोचती रहीं, फिर बोलीं,

"हाँ बेटी,शायद तु सही कह रही है। वह तेरी खुशियों की दुश्मन ही है, क्योंकि, वह तेरी माँ नहीं है।"

सुन कर श्वेता अवाक रह गई।

जिसे जन्म से अपनी माँ समझ रही थी वह उसकी माँ नहीं है।फिर वह उसकी कौन है ? 

"दादी, तो क्या वह मेरी सौतेली माँ है ?"- उसने दादी से पुछा।

दादी ने कहा -"नही बेटी, वह तेरी सौतेली माँ या चाची नही है !

वह तेरी बड़ी बहन है।।।सगी दीदी है तेरी वो।"

"क्या ?"श्वेता को साँप सूंघ गया।

"दादी आप यह क्या कह रही हो ?" उसने चिल्ला कर पुछा।

"हाँ बेटी "। दादी ने कहा। "जब तु तीन साल की थी तुम दोनों के माँ-बाप की मौत हो गई थी। सीमा ने तुझे माँ बन कर पाला है, पढ़ाया-लिखाया है।तेरी हर जरुरत पुरी की है।तेरी खुशियों की खातिर उसने अपनी खुशियों का गला घोंट दिया।शादी तक नहीं की उसने।उसकी परवरिश में जरुर कमी रह गई होगी जो तुझे वह तेरी खुशियों की दुश्मन नजर आती है।उसने तो मना किया था, लेकिन आज तुम्हारा सच्चाई जानना जरूरी था।"

कह कर दादी तो चली गई लेकिन श्वेता का मन विचलित हो गया था।

"मुझ पर अपनी सारी खुशियां कुर्बान करने वाली मेरी माँ नहीं, दीदी है।जिस देवी की मुझे पूजा करनी चाहिए, मैं उससे रूठी हुई हूँ।धिक्कार है मुझपर।"

वह उठी, हाथ मुँह धोये और सीमा की प्रतीक्षा करने लगी।अपने गलतियों की माफी माँगने के लिये।

अचानक वह जोर से चिल्लाने लगी-"नहीं-नहीं,यह झूठ है। दादी झुठ बोल रही है।तुम मेरी दीदी नहीं हो।तुम मेरी बहन नहीं हो। तुम मेरी माँ हो, सिर्फ माँ। मुझे माफ कर दो माँ।मुझे माफ कर दो।"

और उसकी आँखों से फिर आँसू बहने लगे। मोटे-मोटे, बड़े-बडे़ लेकिन, पश्चाताप के आँसू।


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