अरविन्द कु सिंह

Abstract Drama

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अरविन्द कु सिंह

Abstract Drama

वो अजनबी

वो अजनबी

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वह आज फिर से लेट हो गयी थी। किसी तरह भागते हुए गाड़ी मे घुस तो गयी लेकिन बैठने के लिए कोई सीट नहीं मिली।

अमुमन ऐसा होता नहीं था।सीमा ऑफिस से समय से निकलती तो सीट मिल जाती थी।मासिक पास था तो टिकट का कोई झमेला नहीं था।

आज उसके सिर मे दर्द भी था। उसने बेचैनी से इधर-उधर देखा।पर किसी ने भी उसे सीट नहीं दी।रोज आने-जाने से कई लोग उसे पहचानते भी थे लेकिन सभी नजरें चुरा कर बैठे रहे।वह मन ही मन कुढ़ने लगी थी कि एक महिला के लिए भी किसी ने सीट नहीं दी।

कि तभी आगे की तीसरी कतार से "उसने" आवाज दी-"दीदी आप यहाँ बैठ जाओ।"

जब वह वहाँ गयी तो वह बहुत धीरे-धीरे सीट का सहारा लेकर अपनी जगह से उठ रहा था। सीमा को गुस्सा आ रहा था कि एक तो इतनी देर बाद सीट दी वह भी इतने धीरे-धीरे हट रहा है जैसे एहसान कर रहा है।

वह बोली-"जल्दी हटो!!!!

एक तो तमीज नहीं की महिला के लिए सीट दे दे उपर से देर भी कर रहे हो।"

वह-"हाँ दीदी बैठो।"

 कह कर खड़ हो गया।

बहुत साधारण सा था वह और साधारण से ही कपड़े पहने हुए था। उसने अपनी सीट भी दी फिर भी पता नहीं क्यों सीमा को उसपर गुस्सा आ गया था।

वह ऊपर की रेलिंग पकड़े उसकी बगल में खड़ा था लेकिन कभी-कभी लड़खड़ा जाता।

एक बार जब लड़खड़या तो उसका पैर सीमा के शरीर से छु गया।

वह गुस्से में बोली-" बदतमीज कहीं के।शर्म नहीं आती? इसीलिए मुझे बुलाया था कि बहाने से मुझे छु सको।तुम जैसे लोगों के चलते ही महिलाएँ असुरक्षित महसुस करती हैं।"

"नहीं दीदी ऐसा नहीं है वो दरअसल......"वह कुछ और कहता कि तभी कई लोग उसे बुरा-भला कहने लगे कि हाँ कब से जान बुझकर हिल रहा है।

वह चुप हो गया।

सीमा सोच रही थी ऐसे लोगों को सबक सिखाना ही चाहिए। वह चाहकर भी खुद को हिलने से रोक नहीं पाया और उसका पैर एक बार फिर सीमा के पैरों से छु गया।

सीमा गुस्से में तमतमाते हुए उठी और उसको जोर का थप्पड़ मार दिया।

वह बेचारा सकते में आ गया।

सीमा उसे बुरा-भला कहने लगी। साथ के यात्री जिन्होंने उसे सीट तक नहीं दी वे भी उसकी हां में हां मिलाने लगे।

तभी टिकट परीक्षक टिकट चेक करते आ गया और उसको देखते ही बोला- "तुने फिर अपनी सीट किसी को दे दी? किसी तरह तुझको सीट दिलवाया था।अब पाँच घंटे खड़े कैसे जाएगा?"

वह मुस्कुराया लेकिन कोई जबाब नहीं दिया।

टिकट परीक्षक बोला- "चल पिछली बोगी मे एक सीट देता हूँ।"

सीमा सोच रही थी कि आखिर टिकट परीक्षक उसपर इतना मेहरबान क्यों है कि 

तभी .....

तभी.........

उसने सीट के नीचे से अपनी बैसाखियाँ निकाली और उन बैसाखियों के सहारे लंगड़ाता हुआ पिछली बोगी की ओर जाने लगा।पीछे से टिकट परिक्षक भुनभुनाते हुए बोला-"तु नहीं सुधरेगा? खुद के पैरों मे जान नहीं है लेकिन दुसरे को सीट जरुर देंगे।

खबरदार जो अब किसी को अपनी सीट दिया।"

और उसके पीछे चला गया।

सीमा को काटो तो खुन नहीं।वह सकते मे रह गयी।बोगी में सभी का यही हाल था। उसके पैरों मे जान नहीं है।उसे पाँच घंटे का सफर भी करना है और उसने एक महिला के सम्मान के लिए अपनी सीट दे दी?

और उसने उसके साथ इतना बुरा बर्ताव किया। सीमा के आस-पास के नकली हितैषियों से बहुत अच्छा था वो।

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सबको एक नजरिये से नहीं देखना चाहिए।सभी मर्दों की सोच महिला के लिए गलत नहीं होती।किसी के व्यवहार के पीछे के सच को भी देखना चाहिये। सोचते-सोचते सीमा की आँखों मे आँसू आ गये और उसके दिल से आवाज निकली-" मुझे माफ कर देना भाई।अपनी सीमा दीदी को माफ कर देना, लेकिन अपनी आदत कभी मत छोड़ना। क्योंकि इन सैकड़ों दिव्यागों के बीच तुम्ही एक पूर्ण पुरूष हो। जीते रहो मेरे अजनबी भाई।


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