खुशी
खुशी
"भयंकर ठण्ड में छोटे-छोटे बिन माँ के पिल्लों को ठिठुरता देख,सब को तरस तो बहुत आ रहा था।मगर ....मदद करने को कोई आगे नहीं बढ़ रहा था।सबको सेल्फी और उनके साथ फोटो खिंचवाकर फेसबुक पर डालने की होड़ थी।
वो बेचारे भूखे-प्यासे रो रहे थे।
पड़ोस के मल्होत्रा जी की बेटी शैली ने जैसे ही उन्हें देखा...वो उठा कर उन्हें घर के अंदर ले गयी।उनके लिए छोटी रज़ाई चादर का एक बिछौना बना,उसके अन्दर सबको बिठा दिया।उसके बाद सबको रुई के फाहे से दूध पिलाया।ये सब कार्य करते हुए उसके मुख पर जो खुशी थी,उसको बयान करना मुश्किल है।पिल्लों के मुख पर संतोष की झलक देख,ऐसा लगा कि खुशी की परिभाषा ये क्या देंगे,इनकी आत्म-संतुष्टि और भरे पेट का संतोष ही इनकी सबसे बड़ी खुशी है।
अगले दिन शैली ने घर के बाहर छोटी सी झोपड़ी बनवा कर पिल्लों के रहने की व्यवस्था कर,जो खुशी उन्हें दी वो सराहनीय और प्रेरणादायक थी।
"उसके इस कदम से पूरी कॉलोनी वालों के अंदर भी कर्तव्य और खुशी की भावना जागृत हुई।"
शैली ने ये साबित कर दिया "कि ये जरूरी नहीं.. कि जो तुम्हे बदले में खुशी दे सके उसे ही खुशी दो।"
ये मूक परिंदे, जानवर बस ज़ुबाँ नही रखते पर दर्द और दुख का अहसास तो उन्हें हमारे बराबर ही होता है।
