अपशकुनी

अपशकुनी

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अध्यापिका होने के नाते मुझे गाँव के रीतिरिवाज जानने के लिए एक महीने के लिए गाँव भेजा गया।वहाँ की अशिक्षा और अन्धविश्वास सुन के मन थोड़ा डर भी रहा था,पर जाना भी जरूरी था।

आखिर मैं गाँव पहुंच ही गयी और हुआ भी वही जिसका मुझे डर था।जाते ही ,बड़ा अजीब मंज़र देखने को मिला।

भीड़ के बीचो बीच एक औरत की चीखने की आवाज़ें आ रही थी और लोग उसे अपशकुनी ....अपशकुनी कह कर मार रहे थे।वो बेचारी रहम की भीख माँग रही थी।बिखरे हुए बाल,चेहरे और देह पर चोटों के नए पुराने निशान।

मैं भीड़ को हटाती हुई,उस औरत के आगे ढाल बन कर खड़ी हो गयी और तेज आवाज़ में चिल्ला कर बोली:-क्या कर रहे हैं आप सब ...इस निर्बल पर इतना ज़ुल्म ।वो मेरे समीप आ कर मुझसे ऐसे लिपट गयी, जैसे एक बच्चा अपनी माँ से। 

भीड़ में से एक व्यक्ति बोला :-ये अपशकुनी है,इसको देखते ही हमारा सारा दिन खराब जाता है।

मैंने पूछा ,पर ये अपशकुनी बन कब से गई?

"ये तो बिल्कुल ,हमारे जैसी है"।

"नहीं ये हमारे जैसी नहीं है।दो महीने पहले इसने "गंगू की गाय पर बड़े प्यार से हाथ फेरा था।उसी रात वो बेचारी मर गयी।"

"तभी से ,हम इसे देखते तक नहींं।"

"काली बिल्ली है ये.....ये हमारा रास्ता काटे ,इससे पहले हम ही रास्ता बदल लेते हैं।और जब ये विरोध करती है।तो हम इसे बहुत मारते है।इसको देख के हमारे बच्चे,बुख़ार से पीड़ित हो जाते हैं।

मैंने समझा बुझा कर सबको भेज दिया और उसे अपने कमरे में ले आई जिसमे मुझे रहना था।

उसे बोला एक महीने तुम कहीं बाहर नहींं जाओगी।

मैं गाँव के बारे में जानने के लिए रोज़ सुबह जाती ,रोज़ रात को आती।पूरे गाँव वाले मुझे बहुत इज़्ज़त व प्यार देते।वो सब मेरे परिवार का एक हिस्सा सा बन गए थे।घर मे मेरी एक प्यारी सी सखी भी (जिसको सब अपशकुन का कारण मानते थे, मेरे दुख सुख की साथी बन गयी थी।अब मेरे जाने का वक़्त करीब आ गया था।मैने सबको एकत्रित करके सभी से अपने कमरे के पास वाले आँगन में मिलने का आग्रह किया।सबके बीच आकर मैने पूरे महीने में होने वाली क्रियाकलापों के बारे में बताया।

और बताया कि किसका बच्चा किस वक़्त बीमार हुआ और किसकी भैंस ने दूध कम दिया। किसकी भैंस के बच्चा हुआ औरकौनसा जानवर काल का ग्रास बना। किसे दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हुई।"

सब मेरे से बहुत खुश हुए और हैरान भी ,की मैने सबके दुख को कितने करीब से समझा है।

लेकिन मेरी एक बात ने सबको चौंका दिया ,

*अरे अब ये अपशकुन क्योँ??*

"अपशकुनी तो अब, कहीं नज़र ही नहींं आती।"

सबके चेहरे शर्म और आत्म ग्लानि से झुक गए।

आज अपशकुनी के चेहरे पर फूल सी मुस्कान थी और आँखो में कृतज्ञता के आँसू ।वो दर्द और खुशी के भाव लिए कभी गाँव वालों को और कभी मुझे देखती।



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