ख़त जो भेजा नहीं
ख़त जो भेजा नहीं


उसे गये पूरे चार दिन हो गए हैं। जाते हुए एक बार भी न ठिठका, न पीछे मुड़ कर देखा। मैने भी रोकने, टोकने, मनाने की कोशिश नहीं की। मैं जानती थी कितना हठी स्वभाव है उसका ! सोचा था, गुस्सा ठंडा होने पर लौट आएगा। अब आशा क्षीण हो गई है।
पत्र लिखा उस निष्ठुर को, उलाहना देना चाहती थी, मगर दिया नहीं। ख़त भेजा ही नहीं। आज भी मेज की दराज में महफूज़ है। रोज खोलती हूं, फिर पढ़ कर रख देती हूं।
ख़त जो भेजा नहीं..
प्रिय (शायद ऐसा लिखने का अधिकार खो चुकी हूं)
तुम घर कब लौटोगे?
क्या...
मेरे प्रेम की कोई कीमत नहीं ?
क्या...
इन गलियों को तुम भूल पाओगे?
जिनमें बसती है, मेरी, तुम्हारी आँख मिचोली !
इन्हें छोड़ कर तुम जी पाओगे ?
नहीं...
कभी नहीं तुमसे पूछूंगी
तुम्हारी बेरुखी का सबब
अब....
घर लौट आओ
अब नहीं रोकूंगी ,न टोकूंगी
जानते हो....
दाना नहीं चुगता हमारा हीरामन
और....
तुम्हारे पढ़ने की जगह
तुम्हारी बांट जोह रही है।
देखो....
तुम्हारे आने का इंतज़ार करती
पथरा रही हैं ये दो आँखें
सखी कहती है
बाट जोहना बंद कर दे
जी तू भी अपनी ज़िंदगी
इत्मीनान से ..
कैसे....
जब जीने की चाहत हो ही नहीं
जीने का मकसद हो ही नहीं
.. ..तो ?