ख़त्म ना होने वाली बात
ख़त्म ना होने वाली बात


ऐसे ही एक दिन मैंने हमारे ग्रुप में बात कही,"मेरी एक क़िताब पब्लिश हुयी है।"
बतातें वक़्त मैं बेहद खुश थी....
लेकिन यह क्या ?
मेरे अज़ीज़ मित्र ने दुसरे मित्र की तरफ मुख़ातिब होकर कहा,'तुम भी लिखना शुरू कर दो अब।'मैंने, कहा,"क्यों नही!क्यों नही!!"और हम सब लोग एक साथ हँस पड़े।
उनके लिए शायद बात खत्म हो गयी थी।
लेकिन बात वहीं ख़त्म नही हुयी थी, बल्कि बात तो वही से शुरू हो गयी। बात भी कैसी!!
मन की ढेरों परतों को उघाड़ती.....
कही वह ईर्ष्या तो नही थी?
या मेरे लिए छुपा हुआ सा कोई सवाल? 'तुम कौनसी कोई बड़ी कवयित्री हो…?'
उस एक बात के कितने सारे मतलब थे,नही?
बात को आगे बढ़ाते हुए वे दोनों एक दूसरे से मुख़ातिब होकर बोलने लगी,"हम भी लिख सकते है लेकिन बच्चों के साथ घर गृहस्थी के काम में समय ही कहाँ मिलता है?"
इस बात से उन्होंने बात खत्म कर दी।
क्या वह बात वहाँ खत्म हो गयी थी?नही!!!
बात तो वही से शुरू हुयी थी..........
क्या पता वह बहुत बड़ी राइटर बन गयी होती अगर घरगृहस्थी में न उलझी होती....इनकी घर गृहस्थी वाली दुनियादारी से दुनिया कुछ बेहतर साहित्यिक रचनाओं से मरहूम ही रह गयी.......
थोड़ी देर सोचने के बाद मेरे मन मे ख़याल आया कि ये दुनिया कितनी आसानी से आपको कम करके आँकती है......काम के प्रेशर जिक्र करते हुए वह जाने के लिए निकली।जाते जाते मेरी लिखी कहानियों और कविताओं की तारीफ़ भी की।
काश वह मन से मेरी तारीफ़ करती.... लेकिन फिर वह बात तो फिर वही खत्म हो जाती.....
फिर कौन सी बात होती ? क्या बात होती?
बात बेबात अगर कोई बात नही भी हो तब भी तो कोई बात होनी चाहिए न !
बात जो खत्म हो जाये वह क्या कोई बात होती है भला ?