कैरम
कैरम
कहानी नहीं एक किस्सा जो बीत तो चुका है लेकिन आज भी उसकी यादें मन को प्रफुल्लित कर देती है। मन में फ़िरसे वही बचपना आ जाता है। बचपन है ही ऐसी स्थिति जिसके आगे बाकी सब फ़ीकी लगती है। बचपन के खेल ...खेल हुआ करते थे। जिनका मज़ा आज कहीँ नही है। चाहे खो खो, कबड्डी हो या लूडो , कैरम। हर एक खेल का मज़ा बचपन में बड़ा ही निराला और अनोखा हुआ करता था।
मुझे याद है हम बचपन में गर्मियों के दिन शाम से रात के खाने तक छत पर कैरम खेला करते थे। स्कूल की छुटियाँ भी रहती थी तब। एक बल्ब को घर के अंदर से छत पे खड़े एक खम्बे पर तार से खींच के लगाया जाता और खेल शुरू होता।
कैरम हमारे परिवार का राष्ट्रीय खेल जैसा था। खिलाड़ियों के अलावा देखने वालों की भीड़ और उत्साह कुछ ज़्यादा ही थी। ताऊ जी का बेहद पसंदीदा खेल है। तब ताऊ जी के साथ मेरे तीन भाई खेला करते थे और हम सब खेल देखने चारों तरफ़ घेर के बैठजाते थे। वो पल भी बड़े यादगार हैं। ताऊजी के साथ जो भी जोड़ी में होता था उसे बहुत गाली पड़ती थी। अगर निशाना गलत हुआ और हर गए तो बस… उसका बेड़ा पार। सामने वाली जोड़ी से ग़लती होती तो ताऊ जी के चेहरे की मुस्कुराहट में के अलग ही चमक आ जाया करता था। और अगर खुदका निशाना चूक जाता तो दिमाग काम न करता। और अपने जोड़ीदार पर दबाव ऐसा देते थे थी वो बेचारा हिट करने से डर जाता। के इसके बाद ताऊजी की प्रतिक्रिया क्या होगी। अगर ग़लती हो गई और वो बाज़ी हार गए ,तो उसका गुस्सा अगले दिन जीतने तक बनी रहती थी। भाइयों के बीच द्वंद बना रहता था कि कौन ताऊजी के साथ जोड़ीदार बनेगा। क्यूंकी ये बड़ा 'रिस्की जॉब' था।
आज भी कैरम खेलते हैं पर वो मज़ा और नहीं आता। अब तो मोबाइल पे भी खेल लेते हैं लोग पर वो कहाँ उस बचपन के खेल के मज़े की कमी को पूरा कर पाएगा।