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Nirupama Naik

Abstract

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Nirupama Naik

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गुरुकुल

गुरुकुल

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परिवार में कोई न कोई गुरुजन ऐसे होते हैं जो अनुशासन, मर्यादा, और पूर्वजों की प्रतिष्ठा को अपने आने वाले पीढ़ी में निरंतर आगे बढ़ाने की कोशिश में रहते हैं। उनके लिए उससे बढ़कर और कुछ नहीं होता। अपने संस्कार, स्वाभिमान और मान सम्मान का आदर करना और अपने अनुजों में उस निष्ठा को भरना उनके जीवन का लक्ष्य होता है। वो स्वभाव से सख्त तो होते हैं मगर दिल के बुरे नहीं होते। उनको परवाह रहती है के परिवार का कोई सदस्य कुछ ऐसा न कर दे जिससे परिवार की शान पे कोई आंच आए। हम सब ऐसे बुज़ुर्गों के बारे में यही सोचते हैं कि ये स्वार्थी होते हैं, इनको बस अपनी शान से मतलब होता है और कीसी के बारे ये सोचते ही नहीं। आज कल के इस आधुनिक दौर में ऐसे बहुत कम देखने को मिलते हैं। परिवार ही छोटे छोटे टुकड़ों में बंटे हैं, वंश बस नाम के लिए हैं, मानो अगर चार भाई हैं और सबके चूल्हे अलग अलग जल रहे हैं तो बड़ा भाई चाहे जितना अनुभावी हो दूसरे के परिवार के मामलों में कुछ बोलते नहीं हैं, छोटे भी उनकी राय लेते नहीं हैं। अब बहुत कुछ बदल चुका है।

आज किसी और कि नहीं मैं अपने स्वर्गवासी ताऊ जी की बात इस कहानी के रूप में पेश करने जा रही हूँ।वो बड़े कड़क मिजाज़ के थे। बचपन से देखते आए हैं पापा को कभी कभार उनसे डांट भी पड़ती थी। दादाजी के चार बेटे, उनमे से बड़े ताऊ जी सबसे अधिक ज्ञानी, समझदार, सख्त, और अनुशासन प्रिय थे। 

दादाजी जब थे तब से ही चारों भाइयों के परिवार बंट चुके थे। सबके चूल्हे अलग थे लेकिन बड़े ताऊ जी का सबके ऊपर अधिकार हुआ करता है। दीवाली, दशहरा, और अन्य तीज त्योहार पर सबके चूल्हे एक होते, एक ही रसोई में सब खाना बनाते और दादाजी के कमरे में एक साथ पूरा परिवार मिलजुलकर खाना खाता था। 


तीनों भाइयों को डांटते भी थे, उनके घर के मामलों में भी राय देते थे, तीनों भाई भी बड़े भाई से पूछे बिना और उनके परामर्श के बिना अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल भी नहीं करते थे। पापा को उनसे डरता देख हम सब बच्चे भी उनसे बहुत डरते थे। ताऊजी के आते ही सब किताब खोलकर बैठ जाते। एक बार तो मैंने उल्टी किताब लेकर बैठी थी। पकड़ी गई और सज़ा भी मिली। उनके बच्चे मतलब हमारे बड़े भाई और बहन पापा स्कूल के प्रिंसिपल की तरह हर हरकत पर निगरानी करते रहते हैं। और हम सब उनको 'नारायण शंकर' बोला करते थे। तब मोहबतें फ़िल्म आई थी तो वही नाम रखा था उनका। जब ताऊजी शाम को घर लौटते तो मझले ताऊजी के बेटे गेट के पास से आवाज़ देते - किताब पकड़ लो ताऊ जी आगये...पर यह बात उनके कान तक पहुँच जाती और खूब डांट पड़ती थी। अबसे बस 'नारायण शंकर' चिल्लाकर भैया भाग कर पढ़ाई वाले कमरे में चले आते। और सब समझजाते।

जैसे जैसे बड़े हुए कॉलेज के दाखिले से लेकर विभाग चयन तक सब कुछ उनके परामर्श और अज्ञान से होता था। वो बख़ूबी जानते थे कौन किस विषय में कमज़ोर है और किससे क्या हो सकता है। जैसे उनको हर बात का पता होता था। जितना हमारे पापा और मम्मी को पता नहीं होता शायद। कभी कभी हमारी कुछ इच्छायों को वो नज़रअंदाज़ करदेते। गुस्सा तो बहुत आता था पर मजबूर थे। जहाँ पापा मुँह नहीं खोल सकते वहाँ हम किस खेत की मूली। 


लेकिन उनके लिए हुए फैसले सही वक़्त पर सही नतीजे देते थे। ये बात हम सबको अब इस आधी उम्र में मालूम पड़ रही है। 


आज बड़ा मन कर रहा है ताऊजी से डांट सुनने का क्योंकि हम गलतियों पे गलतियां करते जा रहे हैं और कोई डांटने वाला नहीं है। आज किसीके परिवार से किसीका भी कुछ लेना देना नहीं है। सब सगे हैं पर बड़े बुज़ुर्ग अब छोटो से कुछ बोलने से खुदको रोक लेते हैं। क्योंकि ये पीढ़ी बहुत कुछ जानती है। बहुत एडवांस्ड हो चूकीं हैं। लेकिन वो अनुशासन और प्रेरणा जो उनसे मिलती थी वो आज ढूढ़ने पर भी नज़र नहीं आ रही। 

कभी जो गुरुकुल हुआ करता था अब प्राइवेट कॉलेज के जैसे बंटी हुई है क्योंकि 'नारायण शंकर' अब उस गुरुकुल में नहीं बल्कि स्वर्ग में रहने चले गए हैं।



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