काश
काश
वैसे तो मै उसे स्कूल के समय से जानता था, मेरी ही कक्षा में पढ़ती थी, साधारण नाक नक्श, गोरा रंग , गोल चेहरा औसत कद काठी की साधारण लड़की थी, उसमें ऐसा कुछ भी नही था जो किसी को प्रथमदृष्टया आकर्षित कर ले | हाँ जब बोलती थी तो उसके शब्द थोड़ा फँस कर निकलते थे, शायद यही था जिसने मुझे उसकी तरफ आकर्षित कर लिया था | शांत स्वभाव पर चंचल आँखें, हमेशा शरारतों से भरी हुयी , थोड़ी सी आहट पर डर जाने वाली, ये वो बातें थी जिनसे आकर्षण प्रगाढ़ हुआ | हमारी मैत्री की शुरुआत भी बेहद नाटकीय थी, नौवी की बोर्ड परीक्षा में उसे कुछ सहायता की आवश्यकता थी, चूँकि हमारे घरों के रास्ते एक ही थे तो मै शायद उसके लिए सबसे अच्छा विकल्प था , प्रथम प्रश्न पत्र के बाद रास्ते में उसने मुझे अपनी सहेली से रुकवाया और सहायता करने को कहा था , इस पूरे प्रकरण में वो बस चुपचाप पीछे खड़ी रही , न तो कोई औपचारिकता न कोई वार्ता, सहमी हुयी इधर ऊधर देखती हुयी, यह मेरे लिए बहुत रहस्यमय व्यवहार था क्योंकि संयोग से वह ही मेरे परीक्षा कक्ष में थी जबकि उसकी सहेलियां मेरे कक्ष से एक गलियारा छोड़ कर दूसरे कक्ष में थी तो वस्तुतः उसे मुझसे बात करनी चाहिए थी , खैर मैने आश्वासन दे दिया |
अगले दिन गणित की परीक्षा थी, मैं अपने प्रश्नों को हल कर रहा था और साथ ही उसके पूछने की प्रतीक्षा भी , पर वो तो वो थी , कलम रुकी हुयी थी पर शायद उसमें साहस नही था या उसका अहम् आड़े आ रहा था , मेरा धैर्य जवाब दे गया तो मैने ही उससे पूछ लिया "कोई समस्या है क्या ?" इसके बाद बातचीत का जो सिलसिला शुरु हुआ वो ग्यारह वर्षों तक अनवरत चलता रहा | कब हम सहपाठी से मित्र बने? कब और कैसे वो मेरी सबसे अच्छी और विश्वास पात्र बन गयी इसका पता मुझे भी नही चला ? स्कूल समाप्त हो चुका था , सब अपनी अपनी मंजिल की तलाश में दूसरे महानगरों का रुख कर चुके थे , हम भी अपने सपनों के आयाम खोजने दूसरे शहर आ गये चूँकि तब संचार का माध्यम सिर्फ फोन था तो हमारी बातें बस त्योहारों पर होने वाली थी, शैक्षिक वर्ष का पहला पर्व रक्षाबंधन हमारी बात हुयी तो पता चला वो भी उसी महानगर में है जहाँ मै हूँ सम्पर्क सूत्रों का आदान प्रदान हुआ, मिलना जुलना बढ़ा और समय अपनी गति से बीतता चला गया, शायद मै उसके सहपाठियों में अकेला उसके सम्पर्क में था इसलिए घनिष्ठता हो गयी थी| वो उच्च शिक्षा के लिए दूसरे शहर चली गयी तब तक मोबाईल आ चुके थे , हम उसके सहपाठियों के मोबाईलों के माध्यम से सम्पर्क में थे, सब कुछ ठीक था, हम अच्छे मित्र थे , परंतु अचानक एक दिन जब मै अपने शिक्षण संस्थान से लौट रहा था, मैने उसे फोन किया, जो कि मेरी दिनचर्या का एक अभिन्न अंग बन गया था, तो उसने मुझसे पूछा -" क्या तुम मुझमें रुचि रखते हो? "
मैने स्तब्ध था मुझे उससे ऐसे किसी प्रश्न की उम्मीद नही थी प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया- " ये क्या पूछ रही ?" उसकी आवाज में गंभीरता थी उसने सवाल दोहरा दिया, उसकी गंभीरता मेर चिंता बढ़ा रही थी , मुुझे कुछ सूझ नही रहा था तो मै विषय बदलने का प्रयास करने लगा , सामन्यत: वो किसी बात को पकड़ती नही थी पर उस दिन वो जवाब लेेेेने पर अडिग थी और मै किंकर्तव्य विमूूढ़ , हारकर उसको नाराज न करने के लिए मुझे सकारात्मक जवाब देेना पड़ा , सारी रात मै सो नहीं पाया , सोचता रहा था कि इस जवाब की परिणति क्या होगी ? कही ये आखिरी बार तो नही जब हम बात कर रहे थे ? खैर तब तो नही पर जिस तरह, जिस मोड़ पर हम अलग हुए , अब मुझे लगता है कि काश, उस दिन मैने हिम्मत करके उसको मना कर दिया होता तो हम आज भी सबसे अच्छे दोस्त होते | काश, हम हमेशा सिर्फ दोस्त ही रह जाते , काश !

