Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Inspirational

काश! काश! काश! (5)...

काश! काश! काश! (5)...

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मुझमें, रात हुई ऋषभ से चर्चा ने तब, साहस का संचार कर दिया था। तब मुझे लगा था कि मुझे अब कोई कठिनाई नहीं बची है। कार्यालय में जाकर मुझे क्या करना, नवीन से क्या कहना है, ऋषभ के बताने पर मैंने, उस योजना पर हाँ भी कर दी थी। 

फिर, तब के आत्मविश्वास में मैंने, ऋषभ के साथ का जी भर आनंद उठाया था। रात सोते हुए मुझे सब सामान्य हुआ लग रहा था। 

सुबह जब मैं नींद से जागी तब मुझे, ऑफिस जाने के विचार ने फिर परेशान कर दिया। इस बात से कि कार्यालय में मुझे, नवीन का सामना करना पड़ेगा मेरा आत्मविश्वास डोल गया था। अपनी नित्य क्रियाओं के साथ साथ ऋषभ सहित मैंने, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया था। बाद में किचन में व्यस्त रहते हुए, हमारा ऑफिस जाने का समय हो गया था। 

अपने मन में उठ रहे भय को मैंने, ऋषभ से नहीं कहा था। ऋषभ समझ रहे थे कि रात उनके समझा दिए जाने पर, मुझे कोई समस्या नहीं रहनी चाहिए। ऐसे में सुबह फिर उस चर्चा को छेड़कर, मैं ऋषभ को परेशान नहीं करना चाहती थी। 

मेरी स्कूटी ख़राब होने से, ऋषभ ने मुझे ऑफिस छोड़ा था। साथ ही सर्विसिंग वर्कशॉप में कॉल करके, स्कूटी रिपेयर करने के लिए बता दिया था। 

जब मैं, ऑफिस पहुँची तो मुझमें अंदर घबराहट भरी हुई थी। कुछ देर में पता चल गया था कि नवीन ने कुछ दिनों की छुट्टी ली है। तब मुझे अच्छा अनुभव हुआ कि कल के दुस्साहस के बाद वह, आज मेरा सामना करने का साहस नहीं कर सका है। इसलिए भी अच्छा लगा कि विश्वासघाती की (मनहूस) शक्ल, मुझे कुछ दिन नहीं देखनी पड़ेगी। 

बाद का दिन कार्यालय के कामों में व्यस्त होकर, नित दिन की भाँति बीत गया था। ऑफिस छूटने तक मेकैनिक, मेरी स्कूटी भी सुधार कर दे गया था। अपनी स्कूटी से मैं, घर पहुंची तो मानसिक रूप से शांत थी। 

कुछ देर बाद ऋषभ का कॉल आया था। उन्होंने बताया कि ऑफिस में चल रहे सेमिनार में विदेश के लोग भी आये हैं। डिनर उनके साथ करनी है अतः घर लौटने तक मुझे 11.30 बज जाएंगे। मैंने, ठीक है, कहा था। 

फिर मैं चेंज करके, बच्चों के साथ व्यस्त हो गई थी। बच्चों को खिलाते हुए मैंने भी डिनर की थी। 9.30 तक बच्चे सो गए थे। तब मैंने, टीवी चलाने की जगह, बिस्तर पर शवासन में लेटना पसंद किया था। 15 मिनट ऐसे लेटने से मेरा चित्त शांत हो गया था। 

अब मैंने सिरहाने से टिक कर डायरी और पेन ले ली और सोच रही थी कि क्या लिखना चाहिए। फिर मैंने एक विषय तय कर, उस पर सोच सोच कर लिखना शुरू कर दिया। लिख थोड़ा ही सकी थी मगर समय ज्यादा लग गया था। कॉल बेल के बजने पर, घड़ी पर निगाह डाली तो, 11.25 हुए देख, लगा कि ऋषभ आ गए हैं, मैंने द्वार खोले थे। 

ऋषभ ने पूछा - सो गई थीं, क्या? 

मैंने कहा - नहीं, डायरी का पन्ना गोद रही थी। 

ऋषभ ने पूछा - क्या, लिख रही थीं?

मैंने कहा - आप खुद पढ़ लेना। 

फिर ऋषभ वॉशरूम गए थे। वे डिनर करके आये थे अतः मुझे, कुछ करना नहीं था। मैं बेड पर आकर लेट गई थी। लेटते ही मुझे नींद आ गई थी। अतः ऋषभ का बिस्तर पर आना मुझे पता नहीं चला था। 

अगली सुबह बच्चों को तैयार कर रही थी। तब ऋषभ उठकर आये थे। प्रशंसा करते हुए बोले - वाह! रिया बहुत अच्छा लिख लेती हो। 

मुझे याद आया कि डायरी पढ़ने के लिए कल, ऋषभ से मैंने ही कहा था। 

मैंने कहा - थैंक्यू। 

ऋषभ शरारती स्वर में बोले - इससे काम नहीं चलेगा। मैं, समझ गई थी ऋषभ के मन में क्या है। 

फिर बच्चे स्कूल चले गए थे। मैड को आने में समय था। ऋषभ और मैंने तब प्यार करते हुए कुछ समय बिताया था। फिर तृप्त हुए ऋषभ ने बताया - मुझे ऑफिस थोड़ा जल्दी पहुंचना है। 

कहते हुए वे स्नान को चले गए थे। तारीफ का मैंने क्या लिखा है, यह देखने के लिए, डायरी उठा ली थी। रात मैंने लिखा था - 

“पुरुष, तुमने मुझसे कहा था - हे नारी, तुम मेरे जीवन की धुरी हो, तुम मेरे घर की इज्जत हो। 

मैं भोली-भाली, तुम्हारी बातों पर विश्वास कर बैठी थी। मैंने अपनी अभिलाषाओं के डैने समेट कर किसी धुरी जैसे ही, स्वयं को, तुम्हारे घर में स्थापित कर लिया था। 

पुरुष तुम्हें, मैं, खुले नीले आसमान में उड़ान भरते हुए आनंद से भरा देखा करती, मेरा मन तो तुम्हारी जैसी ही उड़ान का आनंद लेने को होता। मगर मुझे, तुम्हारा कहना स्मरण आता कि मैं, धुरी हूँ। तब मैं, तुम्हारी इस बात को गंभीरता से निभाने में फिर लग जाती थी। निरंतर ऐसा करते हुए मैं विस्मृत कर चुकी थी कि मेरी भी जीवन में कुछ अभिलाषायें थीं। 

ऐसा करते हुए भी मैं, कोई शिकायत नहीं रखती थी मगर, तुम में से कुछ पुरुष, हममें से कुछ नारी को घर से अगुआ कर अपने हरम में रख कर शोषित करने लगे। कुछ पुरुष, हम पर गृह हिंसा करने लगे। कुछ ने, हमारा प्रयोग, सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन एवं अपने पैर दबाने वाले दास जैसा मान लिया। 

कुछ ने हमें अपनी आश्रिता रखने की कीमत, ‘हमसे विवाह’ करते समय दहेज लेकर वसूल करनी शुरू कर दी। कुछ ने, हममें से कुछ को अगुआ हुआ देख, अपने घर की इज्जत लुट जाने जैसी मान ली। कुछ को हमारे विवाह पर दहेज दिया जाना, भारी लग गया। 

इन समस्याओं के समाधान के लिए, पुरुष तुमने, हम पर पदों की मोटी असुविधाजनक परतें लादने और कहीं कन्या भ्रूण को गर्भ में ही मारने में मान लिया। 

हमारा अगुआ होना, हमारे साथ दहेज का आवश्यक किया जाना, तुमसे बड़ी स्वयं हमारी विपत्ति थी। 

तुमने हमें अपने जीवन की धुरी बताया था। ऐसे में हम पर ऐसी विपत्तियां आशंकित ना हों, इस हेतु समाज के कर्ताधर्ता बने तुमसे, अपेक्षा यह थी कि तुम अपनी धुरी पर आये संकट के समाज के चलन को ठीक करते। 

हमें अगुआ होने से बचाते, हम पर बलात्कार की आशंकायें ना रहें यह व्यवस्था बनाते। दहेज़ जैसी बुराई का उन्मूलन करते, मगर तुमने घर में बेटियों का उन्मूलन शुरू कर दिया। 

यह देख मेरा, पुरुष तुम पर से विश्वास उठ गया। मुझे तुम्हारे समाधान की योग्यता पर से विश्वास उठ गया।

मुझे लगा कि अपने जीवन की धुरी बताना एवं हमें अपने घर की इज्जत निरूपित करना, यह समाधान, तुम्हारी एकतरफा स्वार्थ अपेक्षा से प्रभावित था। 

सदियों तुम्हारे छल को ना समझ कर मैंने जी लेने के बाद, मुझे अब और छला जाना स्वीकार ना रहा है। 

मैंने स्वयं से तर्क किया कि अगर, जीवन से अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए जब तुम्हें, अपनी धुरी कही गई नारी की जीवन अभिलाषाओं की कदर नहीं तो मुझे, तुम्हारे घर के मान की कदर में, अपने हित क्यों त्याग करने चाहिए। 

मैं, अपने पर से परदों को एकबारगी में परे कर उठ खड़ी हुई हूँ। मैंने घर में कैद रह जाने की विडंबना से विद्रोह कर दिया है। मैंने अपने डैनों को फैला कर, स्वयं खुले आसमान में, तुम्हारी तरह उड़ान भरना आरंभ कर दिया है। 

पहले वस्त्रों में लदी होते हुए भी तुम्हारी दृष्टि अपने पर देख मैं, लजा जाया करती थी। अब मैंने, अपने पर आधुनिक परिधान सुशोभित करना आरंभ कर दिया है। जिनके होने से अब मैं, तुम्हारी कामुक, ललचाई दृष्टि अपनी देह यष्टि पर देखती हूँ। 

मैं, अब बदल गई हूँ पहले की तरह मुझे इससे लाज अनुभव नहीं होती है। मेरा तर्क कहता है कि जब तुम कुछ भी पहनने, करने को स्वतंत्र हो तो मैं भी ऐसा क्यों ना करूं? 

मैं अब अगर अपने पर, तुम्हारी दृष्टि ख़राब देखती हूँ तो मुझे यह मेरी समस्या नहीं लगती है। इस दृष्टि से अगर तुम्हारे भीतर खराबी आती है, तुम मेरे बारे में सोचकर अपना समय व्यर्थ करते हो तो, इससे मेरा कुछ ख़राब नहीं होता है। मैं, मुझे जो पसंद है उसे करके प्रसन्न रहती हूँ।”

यद्यपि ऋषभ ने, इसे पढ़कर मेरे लेखन की प्रशंसा की थी। तब भी भावावेग में मेरा ऐसा लिखना उचित था या नहीं मैं, खुद नहीं जानती थी। फिर उस दिन ऋषभ और मैं बारी बारी से तैयार होकर ऑफिस चले गए थे। 

तीन दिन और ऐसे बीते थे। 

चौथे दिन जब मैं, ऑफिस में काम कर रही थी तब अपराह्न, मुझे मेरे नाम का एक लिफाफा दिया गया। क्या है इसमें, इस जिज्ञासा में मैंने, लिफाफा खोला था। उसमें अंदर मेरे, ट्रांसफर का आदेश था। मुझे, कल से सिविल लाइन्स वाले कार्यालय में काम पर उपस्थित होने को निर्देशित किया गया था। 

मुझे स्मरण आया था कि छह महीने पूर्व, हमारे क्रय किये गए नए फ्लैट से पास होने के कारण मैंने, बॉस से सिविल लाइन्स कार्यालय में ट्रांसफर किये जाने का निवेदन क्या था। आज यह आदेश पाकर मैं, प्रसन्न हुई थी। 

इस आदेश की टाइमिंग बहुत अच्छी थी। शायद कल से ही नवीन, वापस ड्यूटी पर आने वाला था। इस आदेश की प्राप्ति के बाद मुझे, कल से इस कार्यालय में नहीं आना था। अर्थात जो मैं चाहती थी वह परिस्थिति निर्मित हो गई थी। मुझे विश्वासघाती नवीन का, नित दिन मुंह देखने की विवशता ना रही थी। 

मैं नहीं जानती थी कि इस आदेश की पृष्ठभूमि, मेरा निवेदन नहीं कुछ और था। मैं, बॉस को धन्यवाद कहने गई थी। बॉस ने मेरे धन्यवाद का मुस्कुरा कर उत्तर देते हुए कहा - रिया आप, मेरे अधीनस्थ कार्य करने की विवशता से मुक्त होकर खुश हो?

मैं, बॉस के सेंस ऑफ ह्यूमर से खुल कर हँस पड़ी थी। मैंने उन्हीं के लहजे में उत्तर दिया था - जी, सर बहुत खुश हूँ। 

तब बॉस ने बताया - रिया, दरअसल मुख्यालय से निर्देश थे कि हमारे कार्यालय में लंबे समय से पदस्थ में से, कुछ कर्मी स्थानांतरित किये जायें। आप और नवीन इस कार्यालय में सब में पुराने कर्मी थे। किसी एक को ट्रांसफर करने के विकल्प में मैंने, तुम्हारे पूर्व निवेदन का स्मरण आने पर तुम्हारा ट्रांसफर उचित समझा है। 

मैंने कहा था - सर बहुत बहुत आभार, फिर उनसे हाथ जोड़कर विदा ली थी। अब मुझे खुलासा हुआ था कि बॉस ने, मेरी नहीं स्वयं अपनी चिंता की है। मैं जानती थी कि अपनी कार्य क्षमता के कारण नवीन, बॉस के लिए मेरी अपेक्षा ज्यादा उपयोगी अधीनस्थ है। 

खैर कारण जो भी था। मेरे मनोनुकूल होने से मैं, उस दिन ख़ुशी ख़ुशी घर लौटी थी। नवीन भी इस आदेश के मालूम पड़ने पर खुश हुए थे। मेरा सिविल लाइन्स कार्यालय, मेरे फ्लैट से पैदल चल सकने जितनी दूरी पर था। 

इस अवधि में मेरा, नेहा से संपर्क व्हाट्सएप संदेशों के माध्यम से बच रह गया था। पहले तो कभी कभी हम, कॉल कर लिया करते थे मगर, इधर कुछ दिनों से, ना नेहा जी ने और ना ही मैं, कॉल कर सकी थी। 

फिर मेरे बच्चों के स्कूल का ‘वार्षिक दिन’ आया था। सांस्कृतिक कार्यक्रम पर आमंत्रित होने के कारण, हम पेरेंट्स स्कूल गए थे। मेरा ध्यान नहीं गया था मगर हमें वहाँ देख, नेहा जी अपने बच्चों सहित, हमारी पास वाली सीट पर आकर बैठ गई थीं। नेहा जी, अपने बच्चों के साथ अकेली थीं, जबकि मैं ऋषभ के साथ थी। 

कार्यक्रम चल रहे थे। मेरे और नेहा जी के बच्चे आपस में मिल जाने पर ख़ुशी से बतिया रहे थे। तब नेहा जी ने, मुझसे अलग चलकर बैठने का आग्रह किया था। मैंने ऋषभ को हमारे और नेहा जी के बच्चों पर ध्यान देने कहा था। फिर नेहा जी और मैं, पीछे की कतार में रिक्त पड़ीं सीट्स में से दो पर आ बैठी थीं। 

यहाँ स्पीकर की आवाज का शोर भी कम था। अर्थात नेहा जी और मैं आपस में, आराम से बतिया सकते थे …             



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