Anamika anoop Tiwari

Romance

4  

Anamika anoop Tiwari

Romance

सेमल के पुष्प सा इश्क़ मेरा

सेमल के पुष्प सा इश्क़ मेरा

22 mins
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कभी कुछ ख़बर ऐसी होती हैं जिसपर इंसान प्रतिक्रिया क्या दे वो समझ नही पाता, मेरे सामने रखे लैपटॉप में एक मेल..जिस में लिखी चंद पंक्तियां तकलीफदेह हैं, नामालूम सवालों ने घेर लिया जिनके जवाब ढूंढती मैं बालकनी में आ गयी..बाहर सन्नाटा है, रात्रि का प्रथम प्रहर..ऐसा लग रहा है जैसे सब कुछ सिमटा जा रहा है, श्मशान सी नि:स्तब्धता चारों तरफ फैली है, कोई हलचल नहीं, झींगुरों की तेज़ आवाज इस नि:स्तब्धता को भेदने में असमर्थ है, इस ख़ामोशी में अतीत चलचित्र की भांति आंखों के सामने था...

10 बरस का अंतराल

उस दिन की सुबह कुछ ख़ास नही थी..वही रोज़ की दादी और माँ के बीच की किचकिच..मैं कॉलेज के लिए निकल गयी..इनकी झिकझिक से बचने का यही तरीका आता था मुझे. कॉलेज में एक नया छात्र आया हैं, सभी सहेलियां गुणगान में लगी थी, किसी को पहली नज़र में इश्क़ हो गया तो कोई उसके पूरे खानदान की जानकारियां बटोरने में लगी थी ताकि रिश्ता भिजवा सकें..मैं निर्बुद्धि उन सभी को सुन रही थी आख़िर बोलती भी क्या जब मैंने उस को देखा ही नही.

वो सुगंधा तो जॉन अब्राहम से उसकी तुलना कर रही थी..मुझे अच्छा नही लगा तो मैं कॉमन रूम से निकल कर ग्राउंड की तरफ़ जाने लगी

'सौम्या..कहाँ जा रही है ? हिंदी की क्लास एक घन्टे बाद है' पीछे से रेखा ने आवाज़ दी.

रेखा..मेरी एकमात्र राज़दार सहेली, दिल और दिमाग़ की उथलपुथल उससे बता कर ही शांत होती है लेक़िन आज वह भी कथित जॉन अब्राहम की कल्पनाओं में उड़ रही है..उसकी बात को अनसुना करतें हुए मैंने क़दम आगे बढ़ा लिए

कॉरिडोर से निकलतें हुए देखा सामने दस पंद्रह लड़को का झुंड आ रहा था, मैं एकदम दीवार से चिपकी उनसे बचते हुए निकल रही थी.

'उफ़्फ़..ऐसी सुंदरता' किसी एक ने कहा और बाकी पीछे मुड़ कर मुझे देखने लगें.. मैं लगभग भागते हुए ग्राउंड में पहुंच गई..

सिर्फ़ एक आवाज़ कानों में पड़ी थी

'भाई.. दूर रहना इससे, सिर्फ़ शक़्ल सुंदर है अज़ीब पढ़ाकू, घुन्नी, घमंडी लड़की है'

तो ये छवि है मेरी कॉलेज में ?

सुंदर...पढ़ाकू तक तो सही था पर ये घुन्नी और घमंडी कब से बन गयी मैं?

स्वयं से प्रश्न था लेकिन अनुत्तरित थी.

इस वाक़ये के बाद क्लास रूम में जानें कि हिम्मत नही थी..या ये कह लूं..उन लड़को का सामना नही करना था मुझे, ऐसे में मेरे क़दम खुदबखुद घर की तरफ़ बढ़ चले.

'आ गयी बिटिया..आज बड़ी जल्दी आई' घर मे घुसते ही दादी चौखट पर मिल गयी.

'हा..दादी, तबियत ठीक नहीं लग रही थी इसलिए आ गयी'

दादी तुरंत मुझ पर घरेलू नुस्खे आज़माने लगी

'दादी..आपसे कुछ कहना गुनाह हो जाता है, शरीर ठीक है बस मन दुःखी है' झुंझलाते हुए कहा.

'ले..अब मन को क्या हो गया?' दादी ने बड़ी मासूमियत से पूछा

'मेरी छोड़ो...ये बताओ, आप और माँ के बीच शांति वार्ता शुरू हुई? आप दोनो की वज़ह से ही मेरा मन ख़राब हुआ है'

बड़ी सफ़ाई से सारा दोष उनके और माँ के मत्थे मढ़ दिया.

'वाह..बिटिया, अब दोषी मैं और मेरी बहुरानी'

हम दोनों की हंसी सुन माँ भी कमरे से बाहर आ गयी

'बिट्टो..तू आ गयी..अच्छा की चली आई..चल खाना देती हूं सुबह बिन कुछ खाए पिए चली गयी..तेरे बाबू जी हम दोनों पर बरस पड़े थे, अम्मा चलो..हम दोनों भी खा ले, चंपा भी आती ही होगी, उसके आने से पहले रसोई से निबट जाएं हम लोग'

इन दोनों का ऐसा ही है कभी कट्टर विरोधी बन जाती है तो कभी बरसों की बिछड़ी हुई माँ बेटी..माँ रोज़ सुबह लड़ती हुई उठती, रात में दादी के पैरों में बिना तेल लगाएं नही सोती..जानें कैसा अबूझा रिश्ता है, इन दोनों के बीच, इनके बीच कोई बोलता भी नही क्योंकि दोनो एक दूसरे की बुराई भी नही सुन सकती थी.

अगली सुबह कॉलेज जाने को तैयार हो रही थी तभी माँ कमरे में आई

'बिट्टो..ये सूट देख, कितना सुंदर रंग है..कल रात तेरे बाबूजी लाये थे..तब तू सो रही थी' माँ की हाथों में हल्के बैंगनी रंग की चूड़ीदार, कुर्ती और हल्कें गहरें बैंगनी में बड़े बड़े फुलों वाली ओढ़नी

'अहा! कितना प्यारा है, माँ आज पहन लूं?'

हां..पहनने के लिए ही तो आया है, जा पहन ले, काज़ल जरूर लगा लेना नही तो नज़र लग जायेगी'गालों को थपथपाते हुए माँ बाहर चली गयी.

नज़र और मुझे?अब माँ को क्या बताऊँ उनकी घुन्नी और घमंडी बेटी से लोग बचना चाहते है, मुझे नज़र कौन लगाएंगा.कॉलेज में घुसते ही रेखा मिल गयी

"वो देख सामने"

"कौन है? किसको देखूं?"

"अरे यार..आंखे होते हुए भी अंधी क्यों बनी रहती है" रेखा घूरते हुए बोली

सामने पंद्रह बीस लड़कों के बीच एक बेहद सुदर्शन लड़का खड़ा था, चेहरे पर गज़ब की रुमानियत थी..मुस्कान दिल तक पहुंच चुकी थी..शांत, बेज़ान रहने वाला मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था..उफ़्फ़ ! ये क्या हुआ मुझे?

ख़ुद को संभालते आंखे नीचे झुकायें रेखा के साथ क्लास रूम की तरफ़ बढ़ चली..

"हाय..मैं अभिमन्यु" वो बिल्कुल मेरे आंखों के सामने था, बहुत पास..उसकी आंखों में मेरा अक़्स साफ़ दिख रहा था.

मैं एकटक उसे देख रही थी..ज़ुबान मौन था, दिल की धड़कन साफ़ सुनाई दे रही थी, मैं होश खोने ही वाली थी.

"यहां क्या चल रहा हैं, जाइये आप लोग अपने अपने क्लास रूम में" चतुर्वेदी सर की तेज़ आवाज़ ने भीड़ को तीतर बितर कर दिया लेकिन मैं वही खड़ी थी..मेरे कदम जड़ हो गए थे, ये कैसा पाश है जो मुझे बांध रहा था.

"सौम्या.. चल" रेखा खींचते हुए मुझे ले गई.

सभी लड़के लड़कियों का ध्यान चतुर्वेदी सर के लेक्चर में नही मुझ पर था..कोई रश्क़ से देखता तो कोई मार डालने की नीयत से..लड़के तो निसंदेह यही सोच रहे थे.."क्या देख लिया उसने इस घुन्नी में"?

जो कुछ भी हो मैं आसमान की सैर कर रही थी..

मेरी ख़ुशफ़हमी तो देखो..जानती थी..आसमान से मुंह के बल गिरने वाली हूं फिर भी मैं निरी बावरी उड़ती जा रही थी, गर्व से तना सिर और मेरा दिल सबको बताना चाह रहा था "सुन लो..मैं घुन्नी घमंडी नही हूं, मैं भी इंसान हूं जिसका दिल धड़कता हैं"

घर पहुंचते ही दादी के सवालों ने स्वागत किया

लेकिन मैं पहुंची अपने कमरे में..रेडियो पर गाना आ रहा था


"क्योकि इतना प्यार तुमको, करते है हम

क्या जान लोगे, हमारी सनम

क्योकि इतना प्यार तुमको, करते है हम

क्योकि इतना प्यार तुमको, करते है हम…


मेरा मन मयूर बना था..प्रेम के सप्तरंगी सपने सजाएं ख्यालों में खोई थी.कौन कहेगा..ये वही लड़की है जो कल तक किसी लड़के को भाव नही दे रही थी आज एकतरफ़ा इश्क़ में खो गयी है...

लेकिन मेरी सोच थी..प्रेम की कश्ती में ज़रूरी नही दोनो सवार हो कभी कभी एक ही यात्री अपने प्रेम के काल्पनिक रूप के साथ साहिल तक पहुंच जाता हैं.

अगले दिन अंधेरी सुबह उठ गई..सूर्य देव उद्गम के लिए चांद से उलझे थे और मेरी आंखे उनकी दीदार के इंतजार में..

वश चलता तो सूर्य देवता को खींच कर सामने ला देती, आज चांद की शीतलता से कही ज़्यादा सूर्य की तपिश से प्रीति लगी थी ..शीघ्र दिन उगे और मैं कॉलेज जाऊं, पहली बार मेरे आईने को भाव मिला था वरना वो उपेक्षित एक तरफ़ टंगा रहता था..कभी कानों की बालियां ठीक करती तो कभी अपनी पसंदीदा गुलाबी ओढ़नी..आज थोड़ा पाउडर भी लगाया लेकिन भक्क़ सफ़ेदी से घबरा कर पोछ दिया, हम छोटे शहरों वाली लड़कियों को अपने घर से ज़्यादा पास पड़ोस की बुआ चाची की नज़रों से बचना पड़ता था..

"बिट्टो..कैसा रूप निखरा हैं" सीढ़ियों से उतरते ही दादी ने घूरते हुए कहा

"क्या दादी..आप ही बोलती रहती है लड़कियों वाले कोई गुण नही है मुझ में..आज बालियां क्या पहन ली आप मज़ाक बनाने लगी" झूठा गुस्सा दिखाते हुए मैंने कहा

"मैं क्यों भला मज़ाक बनाऊंगी.. अरे मैं तो नज़र उतारने की बात कर रही हूं, बहु ज़रा नज़र तो उतार मेरी बिट्टो की" दादी लाड़ दिखाते हुए बोली..मां और बाबू जी हंसने लगें.

कॉलेज के कॉमन रूम में एक ही चर्चा थी..कौन है फूलों वाली बैंगनी रंग की ओढ़नी ओढ़ी लड़की ?

"सौम्या..चल ग्राउंड में चलते हैं"

"क्यों..क्या हुआ?"

"सब तुझे ढूंढ रही है..बिना कोई बात हुए बदनाम हो जाएंगी" रेखा ने बूढ़ी काकी की तरह प्रवचन दिया.

"बदनामी..किसकी ??" 

मेरे सवालों का जवाब दिए बिना मुझें पार्क में खींच कर ले गयी.

"सौम्या..अब तुझे थोड़ा अलर्ट रहना होगा, मैं जानती हूं.. तू उसे पसंद नही करती..तुझे ये प्रेम वरेम में कोई विश्वास नही, तुम कुछ दिन घर पर रहो..बाद में सब नॉर्मल हो जाएगा". रेखा बोलती जा रही थी..मैं उसकी बात का क्या जवाब देती..क्या समझाती.. सच तो यही था..ये प्रेम है..मेरा प्रेम..अनासक्ति के भाव मे लिपटा हुआ जो साथ नही मांगता बस टकटकी लगाए देखते रहने की इच्छा रखता है..लेकिन मैं मौन थी..मेरा प्रेम मेरी आत्मा में स्थिर था.

"हाय सौम्या.. मैं तुम्हें ही ढूंढ रहा था" सामने अभिमन्यु था

"मुझे??...लेकिन क्यों??"

"तुम फिलॉसफ़ी डिपार्टमेंट में हो..मुझे यूनानी दर्शन के सभी नोट्स चाहिए"

"ये लो..बाक़ी का कल दे दूंगी"

प्लेटो का शिक्षा दर्शन उसके हाथों में देते हुए रेखा का हाथ पकड़े मैं क्लास रूम की तरफ बढ़ गयी.

अचंभित रेखा कभी मुझे देखती कभी उसे

"ये तो पूरा आसक्त है तुझ पर" 

"कुछ भी बोलती हैं..अभी एडमिशन हुआ है तो उसके पास नोट्स कहां होंगे"

"तू सच में मूढ़ बुद्धि हैं..वो साइंस डिपार्टमेंट में है" 

मेरा ह्रदय आह्लादित था, अचंभित था..यानी ज्वार दोनों तरफ़ हैं.. कब क्लास ख़त्म हुई, कब घर पहुंची, कुछ नही पता..दादी की आवाज़ मुझे स्वप्नावस्था से बाहर ले आयी.

कुछ ही दिनों में मैं कॉलेज की चर्चित हस्ती बन गयी थी..मैं धीरे धीरे घुन्नी घमंडी के ओढ़ाएं गए आवरण से निकल रही थी..मैं इस नए बदलाव को गर्व से जी रही थी..धीरे धीरे हमारी प्रेमकथा कॉलेज की चहारदीवारी से निकल कर हमारे घरों के चौखट पर पहुंच गई..इसका परिणाम यह हुआ कि अब घर मे पहले की तरह चुहल नही होती..मुझे कोई कुछ कहता तो नही लेकिन अब उनके लिए उनकी बिट्टो अपनी नही लगती थी..मैं भी गुनहगारों की भांति सबसे नज़रे चुराती रहती..दादी और माँ की चुप्पी बहुत खलती थी..लेकिन दूसरी तरफ़ दिल दिमाग़ अभिमन्यु की तरफ़ खींचता हैं..प्रेम का भाव ऐसा क्यों हैं? 

चंद पलो में दिल इश्क़ में डूब गया..मेरी लगन आसक्त नही समर्पित है..संग नही साँसों में बसना चाहता हैं..कैसे समझाती किसी को मेरे प्रेम की व्याख्या..मेरे पास तो शब्द भी नही थे..कातर दृष्टि से माँ को देखती शायद वह मुझे समझ लें.

अब अभिमन्यु से कभी कभार मिलना होता था लेकिन उसकी ख़बर बराबर मिलती थी..उसने भी की थी बग़ावत.. वो चुप नही था.

अभि की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी, साल बीत गए..

मेरी सदृढ़ चुप्पी और अभि के स्पष्ट शब्दों ने हमारे गठबंधन के लिए हामी भरा ली..अनमने मन से ही सही परिवार के लोगो ने बड़ी धूमधाम से हमारा ब्याह किया..विदाई के वक़्त दादी, माँ, बाबूजी के आंखों से आंसू नही थम रहे थे..उनके आशीर्वाद को महसूस किया..मेरे प्रेम पर उनकी स्वीकृति की मुहर लग गयी थी.

अब जिंदगी नए रूप में थी जहाँ प्रेम की छत औऱ सुरक्षा की दीवारें थी, भव्य आभूषणों से सजी, सुंदर महंगी साड़ियों में लिपटी अपने दप दप करते सौंदर्य को देख स्वंय ही अचंभित थी. विवाह के बाद कुछ महीने घूमने घामने और पार्टियों में बीत गए.

अब अभि घर का बिजनेस संभालने लगे थे, उस दिन सुबह ही ऑफिस चले गए उनके जाने के थोड़ी देर बाद एक काली मर्सडीज़ पोर्टिका में खड़ी हुई...चौड़े सुनहरे बॉर्डर,सुर्ख लाल साड़ी में लिपटी 45/50 के उम्र की बेहद खूबसूरत महिला निकली, उनके साथ छह फुट लंबा हैंडसम लड़का था..वो देखने हमउम्र ही लगा था, दरबान, नौकर चाकर सभी उनके आगे बिछे जा रहे थे, सासु माँ एक नज़र मेहमानों पर डाला और चुपचाप अपने कमरे में चली गयी, उनकी आंखों में दर्द और अपमान का भाव देख मैं सिहर गयी थी..मेहमानों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया से मैं अचकचाई, मैं चुपचाप खड़ी माहौल को समझने की कोशिश कर रही थी..उस महिला की अकड़ से इस घर मे उसकी महत्ता साफ़ प्रतीत हो रही थी..

"तुम सौम्या हो..अनिल, मानना पड़ेगा अपने अभि की पसंद, बहुत प्यारी दुल्हन लाया हैं" बेतकल्लुफी से पापा जी के तरफ़ देखते हुए बोली.

"सौम्या बेटी, प्रणाम करो..रागिनी तुम्हारी माँ समान हैं" पापा जी ने जैसा कहा मैंने किया लेकिन रिश्तों की ये पहेली सुलझा नही पा रही थी. 

रागिनी और उनके बेटे अनुराग का इस घर पर अधिकार, पापा जी के चेहरे पर ग्लानि युक्त हर्ष, मम्मी जी का यूं दरवाज़ों के भीतर होना..मेरा मन संभावनाओं में घिरा था.

"सौम्या..आप कॉलेज तो जाती है" अनुराग ने पूछा

"हा, जाती हूं" 

"किस सब्जेक्ट से मास्टर कर रही हो" 

"फ़िलासफ़ी" 

"व्हाट..फ़िलासफ़ी??" जोर से हंसते हुए बोला.

उसकी हंसी तीर सी चुभन दे रही थी..

"बेटा बुरा मत मानना, इसे मज़ाक करने की आदत हैं" रागिनी आंटी ने अपने बेटे का पक्ष लेते हुए कहा.

मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन यहाँ चुप रहना बेहतर था.मुझे यहाँ अभि की जरूरत थी, मम्मी जी भी साथ नही थी...और मेहमानों के सामने से हटना शिष्टाचार के विरूद्ध था, उल्टे सीधे विचारों में उलझी भावशून्य सी बैठी रही.

शाम को अभि ने घर मे आतें ही हंगामा कर दिया, मम्मी जी के कमरें का दरवाज़ा पीटने लगें.. 

"कोई मुझे भी बताए यह सब हो क्या रहा हैं??" मेरा सवाल दरवाज़े के ज़ोर ज़ोर के थाप की आवाज़ में खो गया.

"जिंदा हूं मैं..तेरे पिता ने मेरे अपमान में कोई कसर छोड़ी हैं जो अब तू तमाशा कर रहा हैं " मम्मी जी ने दरवाज़ा खोलते हुए कहा.

"माँ, ठीक हो" अभि ने मम्मी जी को अपने बाहों में भर लिया.

"इतने बरसों से ठीक ही तो हूं" मम्मी जी ने अभि का चेहरा अपने दोनों हाथों में भर लिया..दोनों की आंखों में कुछ सवाल और ढ़ेर सारे जवाब थें...मैं बाहरी दुनिया से आई इनके आंखों और चेहरे के भाव मे अपने सवालों के जवाब ढूंढ रही थी.

"सौम्या बेटी..जानती हूं तुम्हारे मन मे क्या चल रहा हैं, सब बताउंगी..लेक़िन फ़िलहाल इस समय तुम अभि को ले जाओ, मुझे कुछ समय अकेले रहने दो..फ़िक़्र मत करो, मैं ठीक हूं.. दरवाज़ा भी खुला रहेगा" मम्मी जी, अभि का हाथ मेरे हाथ मे पकड़ाते हुई बोली...

घर अबोला था, सब मुझसे नज़रे चुराते..मैं जुबां पर सवाल लिए सबको ताकती रहती..

आखिरकार दो दिनों बाद मम्मी जी ने बुलावा भेजा..

"आओ सौम्या.. अंदर आओ, बैठो मेरे पास.." मैं उनके पास बैठ गयी, मम्मी जी का अंतर्मुखी स्वभाव के कारण मैं उनसे बेतकल्लुफ नही थी..यहाँ टिपिकल सास बहू वाला रिश्ता ज़्यादा दिखता था लेकिन आज उनकी बातों से मुझे माँ की खुश्बू आ रही थी..

"बाल कितने रूखे लग रहे हैं..तेल नही लगाती" मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मम्मी जी ने कहा

"घर पर माँ और दादी जबर्दस्ती तेल लगाती थी" 

"अच्छा किया बता दिया..अब यह जबर्दस्ती मैं करने वाली हूं, इधर आओ" मेरे बालो में माँ की ममता का जादुई स्पर्श हमारे रिश्तों को मजबूत गर्माहट दे रहा था.

"बेटी..अब यह घर तुम्हारा हैं..बेटियों को ईश्वर ने अनोखी शक्ति दी हैं, घरों और रिश्तों के बदलाव को आत्मा से निभाती हैं" 

"मम्मी जी, शादी में अभि के मामा जी के घर से कोई नही आया था" मैंने माहौल को देखते हुए पहला सवाल किया.

"कौन आएगा?? मैं इकलौती संतान थी..मेरे माता पिता को मेरे दुःख ने देवलोक पहुंचा दिया, रिश्तेदारों को अनिल पसंद नही करतें थे..तो मैंने स्वंय ही सबसे दूरी बना ली" मम्मी जी आवाज़ में दर्द महसूस कर रही थी और ख़ुद पर गुस्सा भी आ रहा था..क्यों सवाल पूछा??

"सॉरी मम्मी जी..मुझे पता नही था" 

"अरे..सॉरी क्यों?? अच्छा किया पूछ लिया, मैं तुमसे कुछ नही छिपाउंगी...

तुम रागिनी से मिल चुकी हो..आज मैं तुम्हें उस से जुड़ी रिश्तों से परिचित कराती हूं...

मैं,अनिल और रागिनी कॉलेज के दोस्त थे, मैं अनिल से मोहब्बत करती थी..एकतरफा...ग्रेजुएशन में कुछ महीने रह गए थे, अनिल तक अपनी दिल की बात पहुंचाने के लिए बहुत हिम्मत जुटाई थी..कॉलेज के गेट तक पहुंचते ही पैरों में कई मन की बेड़िया लग गयी..सामने खड़ा अनिल रागिनी की गहरी आंखों में डूबा हुआ था, उस दिन उनके हाव भाव कुछ अलग दिख रहे थे..पैरों को धकेलती मैं आगे बढ़ रही थी उन्हें ऐसे देख दिल भारी था, जिस्म बेजान, बेजुबान तो थी ही..

"देवयानी..क्या हुआ आज बड़ी देर कर दी, मैं इंतजार कर रही थी" रागिनी ने कहा

"वो..वो ऐसा हुआ.." और फिर मौन

हमेशा ऐसा ही होता था.. अनिल के सामने मेरी जुबान को जैसे लकवा मार जाता था, हकलाहट बौखलाहट की जुगलबंदी में मैं निरी बेवकूफ बन जाती थी और उस दिन उनके हाव भाव ने खासा परेशान किया..लेकिन कुछ समय के लिए.

अनिल, रागिनी और मैं स्कूल से ही साथी थे..यहाँ साथी कहना सही नही होगा, साथी तो बस रागिनी थी..अनिल मेरा प्रेम था..अन्य दोस्तो की तरह अनिल मुझसे बात करने की कोशिश करता....लेकिन मैं उसके सामने सुन्न पड़ जाती, 

मुझ में यह एक और कमी थी..मैं दोहरे चरित्र को निभा नही सकती थी, कैसे कोई दिल की हलचल चेहरे तक पहुंचने नही देता हैं..मेरा दिल मेरी आँखों मे बसता हैं..अनिल और रागिनी को छोड़ शायद सबको पता था मेरे आंखों में अनिल बसता हैं.

हमने ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर ली, आखिरी दिन रागिनी ने बताया वो और अनिल दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने जा रहें हैं..

"रागिनी..मुझे अकेले छोड़ कर जा रही हो" मैं उदास थी

"देवयानी.. अनिल ने मुझसे अपने प्रेम का इज़हार किया हैं, मैं भी बहुत अनिल को बहुत चाहती हूं..मेरा उसके साथ जाने का यही कारण हैं"

यह सुन मुझ में बहुत कुछ दरक गया, जीवन मे पहली बार ईर्ष्या का भाव महसूस किया..अंदेशा था मुझे..कुछ तो चल रहा हैं इनके बीच..लेकिन आत्मा ने सदा दिलासा दिया..ऐसा कुछ नही..यह सिर्फ़ भ्रम हैं..उस दिन सत्य टीस दे रहा था, धमनियों में रक्त प्रवाह तेज था.. मेरा मौन प्रतिक्षण क्षीण होते मेरे श्वास को पुनर्संचार करने में विफ़ल हो रहा था.

हम तीनों की दोस्ती के सफ़र में अब दो रास्ते हैं, एक तरफ़ मैं और दूसरे तरफ़ अनिल और रागिनी की यात्रा थी....कुछ समय बाद वो दोनों दिल्ली के लिए निकल गए मैं अनुरक्त सी पीछे खड़ी रही अपने इकतरफ़ा इश्क़ में...

कुछ साल बाद मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी से अपनी पोस्टग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर रही थी...पिता जी ने मेरा ब्याह तय कर दिया, माँ ने एक दो बार मेरे मन की थाह लेने के लिए लड़के की फ़ोटो दिखाने की कोशिश की..लेकिन मैं अपने दुर्भाग्य को स्वयं ही निमंत्रण दे रही थी..मैंने फ़ोटो और नाम जानने की कोई इच्छा नही दिखाई"

"मम्मी जी..तो क्या आप की शादी पापा जी से हो रही थी और आप को पता नही था??" मैंने बात को काटते हुए आश्चर्य से पूछा

"हा...मुझे भी तब पता चला जब अनिल मेरी मांग भरने जा रहे थें, मेरी नज़र इनके चेहरे पर पड़ी..मैं स्तब्ध थी..दुःख, आश्चर्य, प्रेम, विरह, मिलन के भाव से पूर्ण मैं कांप रही थी..सिंदूर के हल्दिया रंग में रंगी मैं ब्याहता तो बन गयी लेकिन अनिल की नज़र में मुझे मेरे अस्वीकृत अस्तित्व की झलक दिख चुकी थी .. मुझ से शादी के लिए हामी भरने के पीछे मेरे नाम करोड़ो की संपति, पिता जी का बना बनाया बिजनेस था, इस हवेली के लालच में अनिल के पिता जी उन्हें मज़बूर कर दिया था..और मैंने भी जानने की कोशिश नही की किस इंसान के खूंटे से मैं बांधी जा रही थी" आंखों में आंसू तो नही पर मम्मी जी के हर शब्द वेदना में डूबे हुए थे.

"इतना दर्द सहने से अच्छा था..आप शुरुआत में ही इस रिश्ते से अलग हो जाती" मैंने कहा.

"बेटी..अनिल से मेरा रिश्ता सदा से एकतरफ़ा था, प्रेम मैंने किया था..मैं उनका नाम अपने नाम के साथ जोड़ कर ख़ुश थी, कामना तो मैंने कभी की ही नही थी..सच कहूं तो प्रेम में स्वार्थी हो गयी थी..कभी रागिनी का ख़्याल भी नही आता की इस घटना के बाद उस पर क्या प्रभाव पड़ा था..मैं बस अनिल की पत्नी का दर्ज़ा पाकर स्वंय को संपूर्णा मान बैठी थी" 

"रागिनी...ने कैसे इज़ाज़त दे दी??" मेरे मन मे कई सवाल थे.

"रागिनी..नाराज़ थी, दुःखी थी..प्रेम में धोखा उसे भी मिला था, अनजाने में सही..धोखा मैंने भी दिया था, वो अपनी बड़ी बहन के साथ विदेश चली गयी..कुछ साल वहाँ रहने के बाद एक बड़ी फ़ैशन डिजाइनर बन कर देश वापस आ गयी, मेरी गोद मे एक बरस का अभि था, अनिल के लिए मैं एक वस्तु से ज़्यादा नही थी..जरूरत हो तो इस्तेमाल करो अन्यथा उपेक्षित एक तरफ़ पड़े रहने दो...सोचा था अभि के जन्म के बाद सब ठीक हो जाएगा, मेरा उनके हृदय से रागिनी की जगह छीनने की कोई मंशा नही थी बस मैं अपनी अलग जगह बनाना चाहती थी..यह शायद मुमकिन हो जाता अगर रागिनी देश वापस ना आती..रागिनी ने अनिल से संपर्क किया, दोनों बिज़नेस पार्टनर बन गए, देश, विदेश मे इनके ब्रांड की धूम गयी..मेरे और अनिल की रिश्ते की कच्ची डोर भी टूट गयी..अनिल, रागिनी अब साथ थे, समाज़ ने कई सवाल उठाये लेकिन अनिल और रागिनी ने बगावत करने की सोच ली थी...एक साल के बाद अनुराग के जन्म ने रिश्तों की परिभाषा ही बदल दी, अब वो एक परिवार था..खुशियों से पूर्ण, इधर मैं और अभि..उपेक्षित, अधूरे"

"मम्मी जी.."

"तुम मुझे ऐसे औपचारिक संबोधन क्यों करती हो..मम्मी जी नही माँ बोलो" मेरी बात को काटते हुए प्यार से मम्मी जी कहा

"सॉरी मम्मी जी.. मैं आप को माँ बोलूंगी..पक्का" 

"ये हुई ना बात..अब बोलो.. क्या सवाल था?" 

"माँ..रागिनी इस घर मे इतने हक़ से क्यों आती हैं? यह घर आप का हैं..आप यूं कमरे में क्यों बंद हो जाती हैं??" 

"बेटी..जब भी रागिनी मेरे सामने आती हैं..मैं अपराधबोध से भर जाती हूं..यह सब अनजाने में हुआ..लेकिन यह सच मेरा हैं, जिस पर किसी को विश्वास नही..ना अनिल को ना रागिनी को..दोनों को सदा यही लगता रहा कि मैं जानबूझकर उन दोनों के बीच मे आयी..दोस्ती में विश्वासघात मैंने किया"

"लेकिन यह सच नही है" मैंने कहा

"जब दिल टूटता हैं तो सत्य से विश्वास उठ जाता हैं..ग़लती किसी की नही..हम तीनों परिस्थितियों के शिकार बने थे, रागिनी का सामना करने की हिम्मत मुझमे कभी नही थी..यही सोच मुझे अपराधी के श्रेणी में खड़ा कर देता हैं मैं निर्दोष हो कर भी मुज़रिम हूं.. अनिल यहाँ कभी कभी अभि से मिलने आते हैं साथ रागिनी भी आती हैं..मुझे उन दोनों की उपस्थिति सहन नही होती और मैं कुछ बोल भी नही सकती..इसलिए अपने कमरे में चली जाती हूं" 

माँ की कहानी सुनकर मैं प्रेम के स्वरूप पर आश्चर्यचकित थी..भाव एक सी..तड़प एक सी..रूप क्यों तीन हैं??

एक के हिस्से अप्रत्याशित प्रेम, निस्वार्थ समर्पण और पूर्ण विश्वास..और एक के हिस्से आए अवसाद के क्षण, विरह की वेदना और विस्मरण की पीड़ा! 

पीड़ा से उपजा अप्रत्याशित प्रेम, समर्पण और विश्वास असाध्य को भी साध्य कर देता हैं शायद यही भाव मम्मी जी को यहाँ तक ले आयी.

"बहुरानी..क्या पूरी रात यही बैठी रही?" काकी की आवाज ने समय का अहसास दिलाया.

"काकी..मैं फ़्रेश हो कर आती हूं आप मेरे लिए एक अदरक वाली चाय बना लीजिए"

जानबूझकर कर काकी के सवाल को अनसुना किया..काकी से कुछ भी छिपा नही, बचपन से माँ के साथ हैं, पर माँ की अनुपस्थिति में चुप रहना सही हैं.

बच्चों को स्कूल भेज मैं फिर अतीत की यादों में चली गयी..

मैं माँ की एक अहद सहेली बन गयी थी, हम फ़ैशन, कुकिंग, टीवी प्रोग्राम्स के साथ अपनी भावनाओं का भी बांट करते..जब भी रागिनी आंटी घर आती मैं माँ के साथ स्तंम्भ बन कर खड़ी रहती..अब उनको स्वंय पर विश्वास होने लगा था, रागिनी के आने के बाद अब कमरे का दरवाजा बंद नही होता, माँ और मेरी हंसी ठहाके बाहर सुनाई देने लगे थे जो शायद पापा जी और रागिनी आंटी को पसंद नही आता था क्योंकि धीरे धीरे उनका आना लगभग कम हो रहा था.

मैं माँ को अपने साथ बाहर ले जाने लगी, अभि ऑफिस में व्यस्त रहते और हम सास बहू सैर सपाटे में..हम दोनों का स्वभाव अंतर्मुखी हैं यही कारण था हमारे पास एक दूसरे के लिए बहुत समय था..माँ के साथ रहते हुए मुझे पता चला वो बहुत उम्दा कविताएं लिखती थी, पेंटिग्स बनाती थी..मैंने निश्चय कर लिया..अब फिर उन्हें कैनवास पर रंग बिखेरने हैं, कोरे पन्नों पर स्याह मोतियों से शब्दों का जादू करना हैं.

समय लगा..पर मेरे और अभि के दिये प्यार और हौंसलों से कुछ महीनों में माँ ने अपनी योग्यताओं का बंद दरवाजा खोल दिया..निम्मनता की लकीरें चेहरे से गायब हो रही थी, भावनाओं को शब्द और रंग देकर उनके व्यक्तित्व ने असल खुशियों का पता जान लिया था.

कुछ सालों में माँ ने अपनी अलग पहचान बना ली. मेरे मायके से माँ का गहरा जुड़ाव हो गया था, सिर्फ मेरे साथ ही नही दादी और माँ के साथ उनकी खूब छनती... ज़िंदगी में शांति अपने शीतल रंग बिखेर रही थी, तभी रागिनी आंटी और पापा जी ने अपना फैसला सुनाया वो देश छोड़कर अमेरिका बसने की तैयारी कर रहे हैं.

रिश्तों की डोरी का एक धागा जो हमसे जुड़ा था आखिरकार वो भी टूट गया.

"माँ.. क्या आप दुखी हैं?" ना चाहते हुए भी यह बेतुका सवाल कर बैठी.

"नही बेटी..मैंने शादी के बाद कभी सुख का चेहरा नही देखा, अपमान के साये में अभि के रूप में एक खुशी मिली, वो खुशी कभी महसूस ना कर पाई, लंबे इंतजार के बाद मुझे परिवार के साथ मेरी कविताएं और पेंटिंग्स का मज़बूत सहारा मिला हैं, मैं अब अकेली नही..कलम सदा मेरा हाथ थामे रहती हैं" माँ के आवाज़ में सुकून दिख रहा था.

"माँ..अमेरिका जाने से पहले कल पापा जी मिलने आएंगे"

"अच्छा.. कल जा रहे हैं?" 

"हा"

"अब सब सही होने का समय हैं, बोझिल, भावशून्य, अनचाहे रिश्तों के बंधन से आजादी का समय, रागिनी और अनिल के लिए मैं खुश हूं, अब किसी से कोई मलाल नही, उनकी खुशियों के लिए प्रार्थना करती हूं" माँ संतुष्ट थी.


अगले दिन मेरा अंदेशा गलत निकला, वो लोग एक आखिरी बार मिलने नही आये, अपेक्षा के विपरीत माँ संतुलित थी,..माँ ने असल खुशियों का रास्ता ढूंढ लिया था, मुझे अब उनकी तरफ से कोई फिक्र नही थी, वैसे भी जब कलम किसी का हाथ थाम ले उसे कोई दुख दुखी नही कर सकता, उनके जीवन मे पसरा एकांत, उदासी, भ्रम, अनिच्छा की जगह कलम और कैनवास ने लिया था...लेकिन अभि की व्यग्रता मैं कम नही कर पा रही थी, नाराज़गी चाहे कितनी हो हैं तो पिता ही..पिता पुत्र के बीच की भावनाओं को नज़रंदाज़ नही किया जा सकता था, नॉर्मल होने में वक्त लगा.. शुरुआत में कभी कभी पापा जी का अभि से बिजनेस टूर में मिलना या फ़ोन पर बातचीत हो जाती थी, पर कुछ एक साल में वो औपचारिकता भी ख़त्म हो गयी.  

आठ साल हो गए पापा जी को हमारे जीवन से गए हुए, साथ तो शायद कभी नही थे, लेकिन एक नाउम्मदी से भरा अनचाहा रिश्ता इन्हें जोड़े रखा था...जो आठ बरस पहले टूट गया था, बीते सालों में हमारी ज़िंदगी बहुत बदल गयी हैं, मेरे आंगन को हमारे दो खूबसूरत बच्चों ने गुलजार किया, माँ ने लेखन जगत में नाम कमाया, अभि ने बिजनेस बखूबी संभाला हुआ हैं, बाबा ने हमारे घर के पास नया घर ले लिया था, मैं अपने दोनों परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को सुकून से निभा रही हूं, दादी, बाबा और दोनों माएँ अक्सर यात्रा पर निकल जाते, सच तो यह हैं..इस परिवार ने कभी भी परिवार के मुख्य मुखिया की कमी महसूस नही की, माँ और अभि ने अपने जीवन के अधूरेपन को पूरा कर लिया था...हम सब साथ हैं..सुखी हैं. 


"बहु, आज तो दीदी जी और अभि बेटा भी गांव से आ रहे हैं" काकी ने पूछा

"हा काकी..एक दो घंटे में आ जाएंगे"

"तबियत तो ठीक है ना आपकी??" काकी ने फिर पूछा

"काकी..मैं बिल्कुल ठीक हूं, बस थोड़ा सिरदर्द था अब वो भी गायब हो गया हैं, आप परेशान ना हो" 

आखिर क्या बताती जब मुझे ही नही समझ आ रहा इस खबर को सुन कर दुखी होना है या अफ़सोस करना हैं.


"किन ख्यालों में गुमसुम हो, तुम्हारे बिना मेरे दो दिन बमुश्किल से कटे और मेरी बीवी को मेरी परवाह ही नही" अभि ने प्यार से उलाहना दिया.

"एक बात हैं..आप फ्रेश हो कर आओ, फिर बताती हूं"

"क्या बात है बेटा, तुम परेशान लग रही हो"? माँ ने कहा

"माँ..कैलिफोर्निया के एक ओल्ड एज होम से मेल आया हैं, पापा जी अब वहां रहते हैं, बीमार है..लास्ट ईयर रागिनी आंटी की कार एक्सीडेंट में मौत के बाद अनुराग और उसकी वाइफ ने उन्हें वहां भेज दिया है" 

"यह तो होना ही था" अभि के मन मे उनके प्रति गुस्सा साफ दिख रहा था.

"अभि.. बेटा, सोच समझ कर बोलो, रिश्तों मे कितनी ही कड़वाहट क्यों ना हो..है तो तुम्हारे पिता ही, तुम अपना फ़र्ज़ निभाओ" माँ की आवाज में दर्द से ज्यादा सहानुभूति महसूस किया मैंने.

"माँ..आप क्या चाहती हैं, मैं उन्हें यहाँ ले आऊं, इस घर मे.. हमारे साथ..जिन्हें वो खुद ठुकरा कर गए थे" अभि ने कहा.

"मैंने यह कब कहा तुम उन्हें वापस ले आओ ? बस अपना फ़र्ज़ निभाओ, पैसे रुपये से जो मदद हो वो करो, उनका इलाज कराओ, कभी कभी फ़ोन पर हाल पूछ लिया करो" माँ ने आदेश दिया.

"सौम्या..मेल का रिप्लाई कर दो" अभि यह कहते हुए कमरे से बाहर निकल गए.

शाम के हल्के अंधेरों के संग दिन भर का तनाव ढलान पर था..

बच्चों के साथ माँ गार्डन में थी..हंसते मुस्कुराते बच्चो के उलझे सवालों का जवाब दे रही थी..

"माँ..हम पापा जी को यहाँ भी तो बुला सकते हैं?" सही समय देख मैंने अपनी दिल की बात कही.

"नही बेटा, अनिल ने हमसे सारे रिश्ते खुद तोड़े थे, उनको पूरा विश्वास था उनका फैसला सही हैं, मैं खुद से जुड़े उनके अंतिम फैसले को ग़लत नही करना चाहती, उनकी बेसिक जरूरतें पूरी होती रहे तो वहाँ रागिनी की यादों के सहारे जी लेंगे लेकिन यहाँ हमारे सामने अतीत का दर्द, कड़वाहट, पछतावा, शर्मिंदगी के अलावा कुछ नही मिलेगा इसलिए जो जहाँ है वही रहें" 

"माँ, आप बहुत हिम्मती हैं" मैंने कहा

"यह हिम्मत और विश्वास तुमने ही दिया हैं, तभी मैंने उन लकीरों को मिटा दिया जो जबर्दस्ती मेरी हथेली पर बनाये गए थे, जीवन मे कुछ रिश्ते जीने के लिए नही निभाने के लिए मिल जाते हैं...एक औपचारिक बंधन .. अब जाओ मेरे नादान गुस्सैल बेटे को यह समझाओ"

"फिक्र ना करें..अभि ने मेल का रिप्लाई कर दिया हैं और फोन पर बात भी कर लिए हैं" मैंने कहा

"माँ..जैसा आप कहेंगी वही होगा, मैं और सौम्या आप के हर फैसले पर राजी हैं" अभि ने कहा

प्रेम का एक यह भी रंग हैं.. किसी ने खो कर पाया तो किसी ने सब कुछ पा कर भी सब कुछ खो दिया..यही ज़िंदगी हैं..माँ के चेहरे पर सुकून, अभि की मुस्कान ने मेरे दिल मे कल रात से उमड़ गुमड़ रही अंदेशो को दूर कर दिया था.


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