अनामिका अनूप तिवारी

Tragedy Inspirational Romance

5.0  

अनामिका अनूप तिवारी

Tragedy Inspirational Romance

नही हारी मैं

नही हारी मैं

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दीदी...दीदी सोई रही हो क्या अब तक?

अरे ये तो रामलाल की आवाज़ है, बमुश्किल से आँख खुली.सिर भारी भारी लग रहा था फिर भी पैर खींचते हुए रसोई की तरफ बढ़ गयी।

दरवाजे पर चिंतित रामलाल दूधवाला खड़ा था, उसे ऐसे देख हंसी आ गयी .क्या हुआ रामलाल ऐसे क्यों मुँह बनाये हो? 

"दीदी आप तो हमका डरा दिए, रोज तो पहिलहिये खड़ी हो जात हो, आज आधा घंटा से हम दरवाजे पर खड़े है"।

"हा आज कुछ सिर भारी भारी लग रहा था, रविवार की छुट्टी भी है इसलिए..अच्छा अब चलो जल्दी दूध दे दो" सिर दर्द बढ़ने लगा तो रामलाल को जाने को बोल दिया नहीं तो वो अपनी रामकहानी शुरू ही करने वाला था।

"अच्छा दीदी हम चलत रहे, तुम अदरक वाली चाह (चाय) पी लियो, आराम मिलोगे तुम्हरा"| "ठीक है रामलाल" कहते हुए दरवाजा बंद किया।

देर तो हो ही गयी है नहा कर ही चाय बनाऊँगी...सोचते हुए बाथरूम के तरफ बढ़ गयी।

चाय ले कर बालकनी में रखी आराम कुर्सी पर बैठ गयी, शालीन के जाने के बाद आज पहली बार अकेलेपन और खालीपन का आभास हो रहा था, पर वो भी कब तक अपनी माँ के पास रहता, एक ना एक दिन उसको अपनी ज़िंदगी की शुरुवात तो करनी ही थी।

पिछले सप्ताह जब शालीन ने बताया "माँ अब आप रिटारमेंट ले लो और मेरे साथ चलो।

"तू कहाँ जा रहा है और मैं क्यों रिटारमेंट लूँ" मैंने अचरज से उसके तरफ़ देखा ।

"माँ पुलिस अधीक्षक ट्रेंनिग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग बीकानेर में मिली है"।

जितनी ख़ुशी उसके पुलिस अधीक्षक के चयन समय मुझे हुई थी आज उतनी ही तकलीफ़ उसके दूर जाने से हो रही थी, पर किसी तरह खुद को मज़बूत दिखाते हुये मैंने कहा...."बेटा कहाँ कहाँ मैं तुम्हारे साथ घुमूंगी, तुम अब बहुत बड़ी जिम्मेदारी के पद पर हो अपना काम ईमानदारी और पूरी लगन से करना और मेरी फिक्र ना करो मैं अभी अपना काम करने में सक्षम हूं और तुम्हारी बेला माँ और चाचा तो है ना मेरे पास"।

बेला और रमेश भैया के बहुत समझाने और भरोसा दिलाने के बाद वो बीकानेर के लिए रवाना हुआ।

फ़ोन की घंटी सुन सोच से बाहर आई, जरूर शालीन होगा चैन नहीं उसे भी.सोचते हुए फ़ोन उठाया।

मेरे कुछ कहने से पहले ही उधर से एक महिला की आवाज़ आयी,

"हेलो..हेलो...गौरी है क्या"?

उफ़ ये तो उसी की आवाज़ है, अब क्या लेना है इसको मुझसे, मेरा सब कुछ छीन कर भी चैन नहीं इसे।

बिना कुछ बोले फोन को रख दिया मैंने, इतने बर्षो बाद उसकी आवाज़ सुन मेरे हाथ पैर सुन्न पड़ गए थे, दिल दिमाग़ दोनों मेरे बस में नहीं था, उसके प्रति दबी हुई नफ़रत और बढ़ गयी।

इतने बर्षो बाद उसने क्यों फ़ोन किया मुझे, मेरा घर उजाड़ कर लगता है अभी तक मन नहीं भरा उसका, नाराज़गी और नफ़रत से मेरा सिर दर्द और बढ़ गया, किसी तरह खुद को समेटे वही सोफे पर ही लेट गयी।

बेला दीदी से बात करूं क्या, पर वो तो अभी अस्पताल में होंगी, अभी फ़ोन करना मुनासिब नहीं होगा, इन्ही उधेड़बुन में कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला।

आँख खुली तो देखा तीन बज़ गए है, दर्द कुछ कम हुआ था, भूख भी लगी थी. आज शान्ता भी छुट्टी पर थी, इसलिए आज रसोई में कुछ बना ही नहीं।

मेरा भी कुछ बनाने का मन नहीं कर रहा था, अभी तक उसकी आवाज मेरे कानों में गूँज रही थी।

पर भूख के आगे मन कब तक मनमानी करता, रसोई के तरफ खुदबखुद पाँव बढ़ गए, परांठे सेंके और ड्राइंग रूम में ही टीवी के सामने बैठ गयी, लाख कोशिशों के बाद भी उसकी आवाज से पीछा नहीं छुड़ा पा रही थी, आख़िर उसके फोन करने का सबब क्या था, इतने वर्षों बाद उसे मेरी याद कैसे आ गयी।

उसकी धोखे की कहानी फिर आँखों के सामने आ गयी, जैसे कुछ समय पहले की ही बात हो।

बचपन में मैंने अपने माता पिता को एक सड़क दुर्घटना में खो दिया था, लड़की होने के नाते घरवालों ने मेरी जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया ऐसे समय में मेरी मामी मेरे लिए खड़ी हुई, उन्होंने मेरी दादी और घरवालों को खूब खरी खोटी सुनाई और मुझे लेकर बनारस आ गयी।

मामा ,मामी का एक बेटा था अविनाश, मेरे रूप में उन्हें एक बेटी मिल गयी और मुझे माता पिता के साथ एक भाई, नानी थी...जो माँ के गुजरने के कुछ समय बाद वो भी चल बसी।

मैं मामा ,मामी के प्यार दुलार में बड़ी हुई, माता पिता को तो कभी देखा नहीं था तो वही मेरे लिए मेरे माता पिता थे, मैं उन्हें माँ बाबा बुलाती।

पढ़ाई के साथ साथ माँ की सीख से मैं गृह कार्य में पारंगत थी, रूप रंग भी ऐसा था की कोई देख कर प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। 

समय बीतता गया...अविनाश भैया इंजीनियरिंग पूरा करने के बाद सिंगापुर चले गए, उन्हें वही अपनी एक सहकर्मी से प्यार हो गया, भैया फ़ोन पर अपनी प्रेम कहानी के बारे में माँ बाबा को बताया, और अगले महीने शादी की इच्छा बतायी"बाबा ने तो सहर्ष स्वीकृति दे दी, पर माँ कुछ दिन नाराज़ रही।

भैया बनारस आ गए और शादी ब्याह की तैयारियोँ में लग गए, माँ भी अपने एकलौते बेटे से कब तक नाराज़ रहती, भैया को देख सारी नाराज़गी भूल गयी और सभी रस्मो रिवाजो के साथ धूमधाम से भैया का विबाह संपन्न हुआ, भाभी बहुत खूबसूरत और स्मार्ट थी, दोनों की जोड़ी बहुत प्यारी थी, मैं बहुत खुश थी की भाभी के रूप में मुझे एक अच्छी सहेली मिल गयी थी, महीने भर घर में खूब रौनक थी,माँ भी भाभी को अपनी बहू के रूप खुले दिल से स्वीकार कर ली,एक महीना कब बीत गया गया पता ही नहीं चला..भाभी और भैया हम सब को छोड़ सिंगापूर वापस जा रहे थे, दोनों की छुट्टियां ख़त्म हो गयी थी।

उनके जाने के बाद घर में अज़ीब सी उदासी छा गयी थी।

कुछ महीनो के बाद मेरे लिए बाबा के एक सहयोगी के रिश्तेदार के वहाँ से रिश्ता आया।

लड़का दिल्ली में रहता है, बैंक में उच्च पद पर है, घर में सिर्फ माँ है जो गाँव में रहती है, दहेज़ के नाम पर दुल्हन सिर्फ एक जोड़े में और विवाह पंद्रह दिनों के अंदर ही होने चाहिए।

ऐसा रिश्ता पा कर माँ मेरी बालाएं लिए नहीं थक रही थी, बाबा भी हर किसी आने जाने वाले से अपनी खुशियाँ बांटने में लगे थे।

पर एक सवाल सबके मन में था विवाह के लिए इतनी जल्दी क्यों।

माँ की सहेली की बेटी बेला दीदी दिल्ली में डॉक्टर थी, माँ ने दीदी को फोन पर सारी बात बता कर लड़के के बारे में पूरी जानकारी लेने को कहा।

दीदी ने अपने स्तर से सभी तरह की मालूमात हासिल की और माँ को बताया की लड़के का नाम प्रवीण शर्मा है ।लड़का देखने में अच्छा है, नौकरी भी बहुत अच्छी है, दो कमरों का फ्लैट खरीद लिया है और वही अकेले रहता है।

भैया भाभी की भी सहमति मिल गयी की पंद्रह दिन में शादी हो जाए, वो लोग भी दो एक दिन के लिए आ जायेंगे, फिर क्या था.. माँ बाबा विवाह की तैयारी में जोर शोर से लग गए, समय कम होने के कारण रिश्तेदारों की फ़ौज तो जमा नहीं हो पायी थी..हा.. कुछ आसपास रहने वाले रिश्तेदार जरुर आ गए थे, विवाह सादगी से होनी थी क्योंकि लड़के की मांग थी की विवाह सादगी से होनी चाहिए, फिर भी माँ ने अपने घर के सभी रस्मो को पूरा किया और मेरा विवाह संपन्न हुआ, सभी रिश्तेदार मेरी किस्मत पर रश्क कर रहे थे, इतने कम समय में ऐसा परिवार और इतना होनहार दूल्हा मिल गया।

माँ मेरी और भाई की नजऱ उतारते ना थकती, उनको लगता था सभी की नजर मेरे बेटे और बेटी को लग रही है।

दुल्हन के रूप में मुझे देख माँ बाबा के आंसू छलक पड़े थे फिर भी वो खुद को मेरे सामने कमज़ोरी नहीं दिखा रहे थे।

बिदाई की घडी भी आ गयी, माँ बाबा का धैर्य अब टूट चुका था, मुझे बाहों में लेकर दोनों फूट फूट कर रोने लगे, किसी तरह भैया और भाभी ने उन दोनों को संभाला और मेरी बिदाई की गयी, मैं पुरे रास्ते रोती रही, पर प्रवीण एक दो बार ही मुझे चुप रहने के लिए बोले, कार में अपनी सीट पर तटस्थ बैठे रहे। 

उस समय मैंने कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया, एक तो अपने माँ बाबा से दूर जाने का गम दूसरा एक अनजान लोगों के साथ रहने का डर। 

कुछ और सोच मेरे दिमाग में नहीं आ रही थी।

जैसे तैसे रोते बिलखते ससुराल पहुंची, वहाँ कुछ एक रिश्तेदार और सासु माँ मेरे स्वागत में खड़ी थी, सासु माँ का व्यवहार काफ़ी स्नेही लगा, बड़े प्यार से मुझे कमरे में ले गयी आंसू पोछ कर मुझे गले लगा कर बोली "बेटी नहीं है इस घर में, तुम आज से मेरी बेटी हो और अब रोना नहीं हँसते हुए मेरे धीर गंभीर बेटे को संभालना, चलो मुँह धो लो और बाल ठीक कर लो, कुछ देर में सभी मुंहदिखाई के रस्म के लिए आएंगे" उनका प्यार पा कर मेरा डर एकदम से गायब हो गया ,मैं पुरे मन से खुद को यहाँ के रस्मो के लिए तैयार कर लिया।

मुं हदिखाई के लिए अड़ोस पड़ोस की महिलाएं और घर में आये हुए रिश्तेदार थे, सभी ने मेरी खूबसूरती और साथ आये हुए साज़ो सामान की खुले दिल से तारीफ़ की, मैंने अपनी सासु माँ की तरफ देखा, गर्व और ख़ुशी से उनका चेहरा दमक रहा था।

सबको संतुष्ट देख मन को शांति मिली,सभी के जाने के बाद, सासूमाँ ने माँ को फ़ोन किया और उन्हें भरोसा दिलाया कि उनकी बेटी अब इस घर की बेटी है, मुझसे बात कराई, माँ बेटी घंटो बात किये जैसे कितने बर्षो से नहीं मिले हो।

शाम ढलने को थी, प्रवीण गृहप्रवेश की रस्मो के बाद से दिखे नहीं थे, मुझे एक सजे सजाये कमरे में ले जा कर बिठा दिया गया, हर लड़की की तरह अपनी सुहागरात के सुन्दर सपने सजाये मैं प्रवीण का इंतजार करने लगी. दिन भर के रस्मो से थकान महसूस हो रही थी पता नहीं कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला. "गौरी, उठो बेटी" सासु माँ की आवाज़ सुन चौंक कर उठ बैठी । "सॉरी माँ मैं इतने देर तक नहीं सोती पता नहीं ऐसे कैसे सो गयी थी" मेरी नजर शर्म से फर्श पर टिकी थी।

"कोई बात नहीं बेटी, तुम बहुत थकी हुई थी इसलिए नींद आ गयी, चलो अभी नहा लो और तैयार हो कर बाहर आ जाओ, कुछ रिश्तेदार जाएंगे अभी थोड़ी देर में" हँसते हुए उन्होंने मेरे सिर पर अपना प्यार भरा हाथ रखा।

"जी माँ, अभी तैयार हो कर आती हूँ" सासु माँ के जाने के बाद मैं प्रवीण के लिए सोच रही थी, संकोचवश उनसे पूछ भी ना सकी, रात में वो कमरे में आये भी थे या नहीं या सुबह उठ कर चले गए हो " उफ़ गौरी ऐसे कैसे अपनी सुहागरात में घोड़े बेच कर सो गयी" खुद को कोसते हुई तैयार होने के लिए उठी।

लगभग सभी रिश्तेदार तैयार थे जाने के लिए सासु माँ सभी की विदाई कर रही थी, मैं भी उनकी मदद के लिए उनके साथ जा कर खड़ी हो गयी पर मेरी नज़रे प्रवीण को ढूंढ रही थी, वो कही नहीं दिख रहे थे। सासु माँ को शायद मेरी मनोस्थिति का भान हो गया था, "गौरी, सुबह से प्रवीण सभी के लिए टैक्सी का इंतजाम में लगा है, तुम परेशान ना हो" मैं झेंप कर इधर उधर देखने लगी और वो मुस्कुरा रही थी ।

सभी के जाने के लगभग एक घंटे बाद प्रवीण कमरे में आये । "कल रात बहुत गहरी नींद में सो रही थी.. शायद तुम इन तीन चार दिन से ऐसे बोझिल रस्मो से थक गयी थी" आते ही सवाल किया।

"जी, कल नींद आ गयी थी मुझे, पर आप जगा सकते थे मुझे" अपनी तरफ से मैंने भी सफाई दी, "कोई बात नहीं" मुस्कुराते हुए मुझे देखा।

सच कहूं तो ज़िन्दगी में पहली बार मुझे ऐसा कुछ महसूस हो रहा था जिसको मैं समझ नहीं पा रही थी और ऊपर से प्रवीण की मुस्कुराहट, मैं खुद पर नियंत्रण खोती जा रही थी । ज़िन्दगी खूबसूरत लगने लगी, सब कुछ अच्छा लग रहा था, हर चीज़ खूबसूरती दिखती,ये क्या हो रहा है मुझे..कही मुझे प्रवीण से प्यार तो नहीं हो गया।

"इतनी जल्दी.. अभी तक प्रवीण से मेरी ज्यादा बात भी नहीं हुई और मैं क्या क्या सोच रही हूँ"

"पागल गौरी" खुद से बात करते हुए हंस पड़ी मैं।

कुछ समय ऐसे ही नयी नवेली दुल्हन और उसके सपनो को जीती हुई मेरी प्यारी सी छोटी सी दुनिया..जिसमे मैं रच बस गयी थी ।कुछ दिनों बाद सासु माँ ने फरमान जारी किया " बहु अपनी भी पैकिंग कर लो, कल प्रवीण के साथ अपनी माता पिता से मिलने चली जाना और परसो दिल्ली।

माँ ऐसे अचानक,अभी तो कुछ समय और रुकना था" नहीं बेटी, प्रवीण की छुटियां खत्म हो रही है वो परसो चला जाएगा तो तुम यहाँ क्या करोगी" सासु माँ का फैसला था मानना तो था ही।

मैने भी अपनी पैकिंग शुरू कर दी, पर प्रवीण के चेहरे पर एक अजीब घबराहट और बेचैनी महसूस की मैंने, पर क्यों?

हो सकता है.. मुझे साथ नहीं ले जाना चाहते हैं ..एक बार पूछूं क्या !पूछने पर कही नाराज़ ना हो जाएँ " मन में कई तरह के सवाल चल रहे थे, अचानक ऐसी तब्दीली देख किसी का भी मन संशय में पड़ जाए और ये मेरा भ्रम भी तो हो सकता है, माँ को छोड़ कर जाने से भी मन उदास हो सकता है।

मैं भी क्या,कुछ भी सोच कर बैठ जाती हूँ, यही सच होगा.. माँ के लिए ही प्रवीण चिंतित होंगे" सोच कर काम में जुट गयी।

अगले दिन सुबह सुबह मायके के लिए निकल गए हम दोनों।

माँ, बाबा हम दोनों को देख बहुत खुश थे, "गौरी बिटिया, आज कुछ भी ना नुकुर नहीं करना सब अच्छे से खा लेना तुम्हारी माँ सुबह से रसोई से निकली नहीं, तुम्हारी पसंद का सब बनाया है, दामाद बाबू की पसंद के बारे ज्यादा कुछ अभी पता नहीं, जो पता था वो सब बन गया है" "अरे बाबा, आप नाहक परेशान हो रहे है और माँ को भी परेशान किये हुए है, प्रवीण सब कुछ खाते हैं "।

मेरी बाबा से प्यारी नोक झोंक चल रही थी पर मेरी नज़र प्रवीण पर ही थी, उनके चेहरे पर पहले से अधिक परेशानी दिख रही थी, आखिर बात क्या है? यहाँ भी कुछ पूछा नहीं जा सकता था, माँ तो मेरी शक्ल देख कर ही मेरा दिमाग़ पढ़ लेगी.. मुझे सहज होना होगा।

किसी तरह दिन बीता, मैं खुद को सहज रखने का भरसक प्रयत्न करती रही।

"दामाद बाबू कम बोलते हैं या नाराज़ हैं तुझसे, जब से आये हैं गुमसुम सेहैं, हर सवाल का हा या ना में जवाब दे रहे है " आखिर माँ ने पूछ ही लिया माँ की नज़रों से कैसे कोई छिप सकता है' "माँ, आप भी ना..क्या क्या सोच लेतीहैं , हां प्रवीण कम बोलते हैं पर मुझसे नाराज क्यों होंगे, वो माँ को अकेले छोड़ कर जाने की वजह से थोड़े परेशान हैं बस" माँ को किसी तरह समझा लिया पर सच तो ये था प्रवीण का ये व्यवहार मेरी समझ से भी परे था।

माँ बाबा से विदा ले कर हम उसी रात चले आये यहाँ भी सासु माँ हमारा इंतज़ार कर रही थी, खाना खा कर आये थे थके हुए भी थे इसलिए ज्यादा बात ना करते हुए सिर्फ वहाँ का हाल चाल बता कर सोने चली गयी।

भोर की किरणें जब चेहरे पर पड़ी तो मेरी नींद खुली, बगल में प्रवीण भी गहरी नींद में थे।

यूँ तो सभी के सामने धीर गंभीर रूप में रहते है और अभी चेहरे पर ये कैसी मासूमियत झलक रही है, मैं एकटक निहारे जा रही थी तभी प्रवीण की आंख खुली, मुझे ऐसे देखते हुए झेंप गए "क्या बात है..आज सुबह सुबह इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे जनाब के" प्रवीण की बात सुन मैं भी शरमा गयी चोरी जो पकड़ी गयी थी।

पूरा दिन सामान समेटने और लास्ट मिनिट की पैकिंग में चला गया, रात की ट्रेन से हम दिल्ली के लिए निकल गए।

सुबह प्रवीण का मूड ठीक था पर जैसे जैसे जाने का वक्त आ रहा था प्रवीण के चेहरे की परेशानी बढ़ती जा रही थी।स्टेशन से टैक्सी कर घर आ गए, प्रवीण मुझे फ्लैट नंबर बता कर चाभी दिए और खुद सामान उतारने लगे।

घर तो बहुत गन्दा होगा लगभग पंद्रह दिनों से प्रवीण थे नहीं यहाँ, पता नहीं कोई मेड भी है या नहीं' यही सोचते हुए मैंने लॉक खोला मेरी आँखे खुली की खुली रह गयी, " ये क्या, आप इतने दिनों बाद आये हो फिर भी घर ऐसे साफ़, जैसे हर रोज सफाई होती हो" पीछे आते हुए मैंने प्रवीण से पूछा।

आ अ... हा.. वो मेरे एक फ्रेंड की फैमिली भी यही रहती है, उनको मैंने सफाई के लिए बोल दिया था, उन लोगो ने ही करवाया होगा" प्रवीण अचकचाते हुए बोले।

"ये तो सही किया आपने.. अच्छा किचन कहाँ है " प्रवीण से पूछा मैंने।

"तुम फ्रेश हो जाओ मैं खाना आर्डर कर देता हूं, तुम बहुत थकी हुई हो, खाना खा कर आराम करो, किचन देख लो पर खाना शाम को बनाना" बड़े प्यार से मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए बोले।

"जी, जैसा आप कहे हुज़ूर" मैंने भी नज़ाकत से आँखे झुका कर बोला फिर दोनों हंस पड़े।

अगले दिन प्रवीण के ऑफिस जाने के बाद दरवाजे पर कुछ खटका, मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने एक बेहद खूबसूरत औरत जिसके हाथ में चाभी थी शायद वो मेरे फ्लैट की लॉक खोलने की कोशिश कर रही थी ,मुझे एकटक देखे जा रही थी जैसे कोई अजूबा देख लिया हो।

"आप कौन?.. उसको अपने तरफ ऐसे देख मैं थोड़ी घबरा गयी इसलिए सीधा सवाल किया।

"ये फ्लैट तो मिस्टर प्रवीण का है आप कौन हैं?"

उसने मेरे सवाल का जवाब सवाल में दिया।

"मैं मिस्टर प्रवीण की वाइफ गौरी हूँ, कल ही हम लोग आये हैं " मेरा ये कहना ही था कि वो मुझे चौंक कर देखी और चकरा गयी मैंने झट से उसे सहारा दिया और अंदर ले आयी, पानी पिलाया तो वो कुछ संभली।

"आप ठीक तो हैं ,कौन हैं आप" मेरे जेहन में कई तरह के सवाल आ रहे थे।

"जी, मॉफ करें मैं आप के ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूं, कल बाहर गयी थी रात में वापिस आयी इसलिए पता नहीं चला की मिस्टर प्रवीण वापस आ गए है,मैं तो सफ़ाई करवाने आयी थी" उसने खुद को सयंत करते हुए कहा।

"वो तो.. वो आप है, कल प्रवीण ने बताया था की उनका कोई फ्रेंड ऊपर वाले फ्लैट में रहते है वही साफ़ सफाई करवाया देते हैं , पर आप की तबियत सही नहीं लग रही" मैंने कहा।

"हाँ, कमजोरी महसूस कर रही हूँ कुछ दिनों से शायद इसलिए ही चक्कर आ गया होगा"

"अरे..तो फिर आप को आराम करना चाहिए और आप मेरे घर की देखभाल में लगी है, आप बैठिए मैं चाय बनाती हूं"

"आप प्लीज़, परेशान ना हों " " परेशानी कैसी.. आप के बहाने मैं भी चाय पी लूँगी" कहते हुए मैं किचन में चली गयी।

"देखिये..मैं भी कितनी अज़ीब हूं इतनी देर से हम बाते कर रहे है और आप का नाम तो मैंने पूछा ही नहीं"

"मैं मधु रहेजा, मेरे पति दर्शन रहेजा आर्मी में है पोस्टिंग भी ऐसे जगह पर दिया है जहाँ परिवार को नहीं रख सकते इसलिए मैं अकेली ही अपनी बेटी को लेकर रहती हूं।

"आप दिल्ली जैसे शहर में अकेली रह रही हैं , मधु जी आप में बहुत हिम्मत है मैं तो अकेले रह ही नहीं सकती, प्रवीण जब तक ऑफिस से आते नहीं मैं तो बेचैनी से उनका इन्तजार करती रहती हूँ" मेरी बात सुन कर वो अज़ीब नज़रो से मुझे एकटक देख रही थी, मैंने गौर तो किया पर कुछ समझ नहीं आया वो ऐसे क्यों देख रही थी मुझे। 

सूरज डूबने लगा था आसमान में चारो तरफ़ लालिमा छायी थी मैं गेट पर खड़ी प्रवीण का इंतज़ार कर रही थी और प्रकृति की इस खूबसूरत नज़ारों और अपनी खुद की बनाई सपनो की दुनिया में खोई हुई थी तभी प्रवीण की आवाज़ ने मुझे मेरे ख्यालों की दुनियां से बाहर निकाला।

"यहाँ क्या कर रही हो, गौरी तुम अभी इस शहर से पूर्णतया अंजान हो ऐसे बाहर निकल कर मत खड़ी रहो" घर में घुसते ही प्रवीण के सवाल शुरू हो गए।

"तो क्या, मैं पुरे दिन घर में बैठी रहूँ, बाहर सिर्फ मैं ही नहीं और भी औरतें खड़ी हैं और मैं इस शहर से इतनी भी अंजान नहीं भाई जब यहाँ पढता था तो मैं भी उसके पास रहती थी" कहते हुये मैं चाय बनाने चली गयी या यूँ कह ले बात बढ़ने से रोकने के लिए हट गयी।

चाय पीने के साथ प्रवीण भी सहज हो गए थे तभी मैंने मधु जी के बारे में बताया, मधु का नाम सुन प्रवीण बहुत असहज हो गए उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं हाव भाव अचानक बदल गए " क्या हुआ आपको तबियत तो ठीक है आपकी" मैं उन्हें ऐसे देख घबरा गयी। 

"नहीं कुछ नहीं, मैं ठीक हूं तुम परेशान ना हो, शायद ब्लूडप्रेशर बढ़ गया होगा" कहते हुए प्रवीण खुद को सहज करने की कोशिश करने लगे।

"क्या बात हुई तुम दोनों में" प्रवीण ने पूछा

"कुछ खास नहीं, उन्हें शायद हमारी शादी के बारे में पता नहीं थी इसलिए मुझे देख थोड़ी नर्वस लग रही थी" कहते हुए मैं डिनर की तैयारियों में लग गयी।

समय निकलते देर नहीं लगती ऐसे ही दिन गुजरने लगे थे, प्रवीण मेरे तरफ से निश्चिन्त थे और मैं उनके तरफ से।

मुझे अपने प्यार पर इतना भरोसा था कि शक की कोई गुंजाइश नहीं थी, मधु जी भी कब मेरी बड़ी बहन के रूप में मेरी ज़िंदगी में एक अहम् किरदार में आ गयी पता ही नहीं चला।

हँसते मुस्कुराते खुशियाँ बटोरते यूँ ही तीन महीने गुज़र गए, एक दिन सुबह से ही तबियत ठीक नहीं लग रही थी प्रवीण आजकल बैंक के काम से शहर से बाहर गए थे इसलिए खुद ही बेला दीदी को फोन कर उनके हॉस्पिटल चली गयी, दीदी ने कुछ जरुरी जाँच के बाद बताया कि मैं माँ बनने वाली हूं।

ख़ुशी और डर दोनों भाव मेरे अंदर समाहित हो मेरे आंसू छलक पड़े, दीदी भी ख़ुशी से मुझे बधाई देते हुए गले लगा ली।दीदी ने कुछ खास एहतियात बरतने को और समय से मेडिसिन लेने को कहा और फिर मैं ख़ुशी से घर के तरफ़ बढ़ गयी।


आज प्रवीण भी टूर से वापस आने वाले थे मैं वैसे भी उनका बेसब्री से इंतज़ार कर थी अभी ये न्यूज़ सुन कर मेरी बेसब्री बेचैनी में बदल गयी थी, जल्द से जल्द घर पहुँच कर प्रवीण को हमारी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी देना चाहती थी।

घर पहुँच गयी पर प्रवीण अभी आये नहीं थे, पर उनके फ्लाइट की टाइमिंग के हिसाब से उन्हें घर पर होना चाहिए, हो सकता हो घर बंद देख वापस ऑफिस चले गए हो फ़ोन भी बंद आ रहा है।मेरी बेसब्री अब चिंता में बदल गयी, दिमाग में तरह तरह की बातें आ रही थी, फिर मैं मधु दीदी के घर के तरफ़ बढ़ गयी सोचा हो सकता है उनसे बात कर उनको अपनी परेशानी का हल निकाल सकूँ।

दरवाज़ा पूरी तरह से बंद नहीं था इसलिए बिना नॉक किये मैं अंदर चली गयी वैसे भी अब उनसे मैं इतनी बेतकलुफ़्फ़ हो गयी थी की सामान्य औपचारिकता की जरुरत नहीं थी, तभी मुझे मधु दीदी की ज़ोर ज़ोर से लड़ने की आवाज आई किसी पर बहुत बुरी तरह नाराज़ थीं मुझे लगा शायद मैं गलत वक्त पर आ गयी हूं इसलिए चुपचाप निकलने वाली ही थी की प्रवीण की आवाज़ सुन मेरे क़दम वही जड़ हो गए, प्रवीण उनको शांत होने के लिए बोल रहे थे, मुझे सहसा अपने कानों पर विश्वाश नहीं हो रहा था और मैं विश्वास करना भी नहीं चाहती थी फिर भी अपनी शंका दूर करने के लिए दरवाज़े से झांक कर देखा, सामने प्रवीण और मधु दीदी बैठे थे प्रवीण के कंधे पर सिर टिका कर मधु दीदी रो रही थी "प्रवीण आखिर कब तक मुझे ऐसी ज़िन्दगी जीनी होगी मैं तुम्हारे लिए अपने पति की ना हो सकी,कभी सोचा है हमारे रिश्ते के बारे में दर्शन को पता चल गया और सबसे बड़ा सच हमारी बेटी..जो दर्शन को लगता है उसकी बेटी है ये सच उसे पता चल गया तो वो ना मुझे छोड़ेगा ना तुम्हे"!


"देखो मधु तुम परेशान ना हो ऐसा कुछ नहीं होगा जैसा तुम सोच रही हो, गौरी को बहुत जल्दी ही माँ के पास छोड़ आऊँगा फिर पहले की तरह हम रहेंगे"

उन दोनों की बात सुन मेरा दिमाग़ सुन्न पड़ गया जड़वत हो कर अपने साथ हुई ये धोखे की दांस्ता खुद अपनी ही आँखों से देख रही थी, मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था ये बेशर्म लोग जो अपने प्यार भरे रिश्तों के साथ ऐसा खिलवाड़ करेंगे , मैं गुस्से और नफ़रत से काँप रही थी तभी पीछे से आवाज आयी "सुनिए, आप कौन" पूरी तरह से मैं उस इंसान को देख भी नहीं पायी और वही गिर के बेहोश हो गयी।

जब आँख खुली तो सामने बेला दीदी और आर्मी यूनिफार्म में एक फौज़ी को देखा ।

दीदी को देख मैं खुद को रोक ना सकी और रोने लगी। "क्या हुआ मेरी गुड़िया क्यों रो रही हो अभी कुछ समय पहले ख़ुशी से रो रही थी और अभी ऐसे, प्लीज़ बताओं क्या हुआ?"

दुःख और क्रोध में रोते हुए पूरी बात दीदी को बताया ये भी नहीं सोचा की सामने जो फौज़ी खड़ा है वो मधु का पति है।

मेरी बात सुन कर पहले तो मेरी बात पर विश्वास नहीं किया पर पूरी बात सुनने के बाद उनका मन भी मधु के प्रति नफ़रत से भर गया सिर पकड़ वहीं सोफ़े पर बैठ गए,तभी दोनों बेशर्मो की तरह एक दूसरे से अनजान बनते हुए आये और बेला दीदी से मेरे बेहोश होने का कारण जानने की कोशिश करने लगे उन दोनों को देख कर मन हुआ खूब चिल्लाऊं उन दोनों की बेशर्मी और धोंखे की दास्तां सब को चीख चीख कर बताऊं मेरी नफ़रत बढ़ती जा रही थी उन दोनों के लिए, मधु, दर्शन की तरफ बढ़ी पर दर्शन के आँख में आंसू क्रोध से भरा चेहरा देख वही जड़ हो गयी उन दोनों को अंदेशा हो गया था शायद उनके बारे में हम दोनों को पता है ।

दर्शन ने बताया था जब मैं बेहोश हुई तो वहाँ प्रवीण नहीं थे, मेरे बेहोश होने के समय भी ये दोनों खुद को छिपाने में लगे थे ये सुन कर क्रोध से मेरा दिमाग़ फटा जा रहा था।

मैंने दर्शन और बेला दीदी से कहा कि इन दोनों को कमरे से बाहर करे मैं अब एक सेकंड भी इनको बर्दाश्त नहीं कर सकती,मेरी बातों से अब साफ़ हो चुका था कि मुझे सब पता है और दर्शन को भी।

मधु, दर्शन को सफाई देने की कोशिश करने लगी लेकिन जब दर्शन ने डीएनए टेस्ट की धमकी दी तो रोते रोते सब कबूल कर लिया, प्रवीण तठस्थ खड़े रहे चेहरे का रंग उड़ा हुआ था मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी जैसे कंठ सूख गया हो।

"मेरे साथ ऐसा क्यों किया प्रवीण, तुम पर मैंने अपना सर्वस्व लुटा दिया प्यार किया भरोसा किया तुम पर और तुमने क्या किया, अगर मधु से प्यार करते थे तो थोड़ी हिम्मत और मर्दानगी भी जुटा लेते, माँ से बात करते कम से कम मेरी ज़िन्दगी तो बर्बाद नहीं करते" कहना तो बहुत कुछ चाहती थी पर जिसकी आँखों और विचारों में शर्म नहीं उस से कुछ भी कहने सुनने से क्या फ़ायदा, इन दोनों ने एक पल में मेरी ज़िन्दगी बदल दी, कहाँ मैं अपनी खुशियाँ बांटने चली थी और अभी इनके दिए गए धोखे से टूटी हुई हॉस्पिटल की बेड पर पड़ी हूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ, किधर जाऊं, मेरे इस बुरे वक्त में बेला दीदी और दर्शन जो खुद मेरी तरह इनके धोखे का शिकार हुए थे, मेरे साथ साहस से खड़े रहे।

दीदी ने माँ और मेरे मायके में फ़ोन कर उन लोगो को भी बुला लिया।

माँ बाबा मेरी हालत देख टूट से गए थे अकेले में दोनों रोते पर मेरे सामने हिम्मत और समझदारी की बात करते, बेला दीदी मुझे और माँ बाबा को अपने घर ले गयी।

माँ बाबा को मेरी प्रेग्नेंसी के बारे में पता था, वो समाज़ और परिवार के लिए मुझे समझौते के लिए राज़ी करने में लगे थे, उनका सोचना था अकेले इस पुरुषवादी समाज में कैसे मैं एक बच्चे को पाल सकती हूं इसलिए मैं प्रवीण को माफ़ कर दूँ।

मैं विवश होकर इनकी बाते सुनती और सोचती रहती क्या हम औरते इतनी कमज़ोर हैं कि अकेले बच्चे नहीं पाल सकते अकेले रह नहीं सकते क्यों हर पल हमें ज़ीने के लिये पुरुष का सहारा चाहिए, अपनी पत्नी माँ को धोखा देने वाले पुरुष को क्या कहेंगे, जब वो एक साथ दो औरते से सम्बन्ध रखे तो उसके पुरुषत्व का क्या नाम देंगे।

समझौते सिर्फ स्त्री करे और पुरुष अपनी बड़े से बड़े गुनाहों को छिपा कर समाज़ में सिर उठा कर चले, मुझे ये मंज़ूर नहीं था पर बेला दीदी के अलावा कोई मेरी इस बात को नहीं समझ रहा था।

अगले दिन सुबह सुबह प्रवीण आये मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की पर मैंने साफ़ कहलवा दिया की मैं उनकी उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर सकती, मेरी प्रेग्नेंसी की खबर उन्हें लग गयी थी शायद माँ ने सासु माँ को बताया हो।

बच्चे का हवाला दे कर बहुत मनाने की कोशिश की गयी पर मैं अपने फैसले पर अडिग रही।ऐसे इंसान के साथ अब मैं एक पल भी नहीं रह सकती जिसकी एक रखैल और उसकी एक बेटी भी हो।

ज़िन्दगी में कभी कभी ऐसे मुकाम भी आते है जब हमें दिल से नहीं दिमाग़ से फ़ैसले लेने पड़ते है, आज मैं भी उसी मोड़ पर खड़ी हूँ।भाई भाभी का भी साथ मिला, बेला दीदी तो पहले ही मेरे साथ थी, मेरे लिए फ़ैसला लेना अब इतना भी मुश्क़िल नहीं था।भाई के सहयोग से एक अच्छे वकील मिल गए और मैने तलाक के लिए केस दर्ज कराया, तलाक की लंबी प्रक्रिया के बीच कही मैं हिम्मत ना हार जाऊ ये सोच कर भाई ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में मेरा एडमिशन करा दिया, मैंने अपना पूरा ध्यान अब पढ़ाई में लगा दिया, सासु माँ भी अपने बेटे को छोड़ मेरे साथ आ गयी, मेरा हौसला बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, प्रवीण को अपनी तमाम सम्पति से बेदखल कर दिया और सब कुछ मेरे और मेरे होने वाले बच्चे के नाम कर दिया।


समाज़ और परिवार के ख़िलाफ़ जा कर माँ ने जो मेरे लिए किया उसके आगे हम सभी नतमस्तक हो गए थे।माँ ने दिल्ली में मेरे नाम से फ्लैट ले लिया और मेरे साथ मेरी देखभाल के लिए रहने लगी, माँ बाबा को वापस भेज दिया, वो लोग भी बीच बीच में आते रहते मुझसे मिलने।भाई फोन से सभी जानकारियां लेता रहता और और अपने मित्रों के सहयोग से मेरे हर काम में मदद करता रहता। पढ़ाई के साथ तलाक लेने में जो भी मुश्क़िले आतीं , सब का हल मेरे परिवार के निस्वार्थ सहयोग से ही संभव हुआ।

मैं अब अकेली नहीं पर इस समय प्रवीण अकेले हो गए थे उनकी माँ ने भी उनका साथ नहीं दिया फिर दोस्त भी कहाँ तक साथ देते, सुनने में आया अब प्रवीण मधु और अपनी बेटी के साथ ही रहने लगे हैं , दर्शन भी मधु को तलाक देने के लिए केस कर चुके थे, मेरा और दर्शन के केस का फ़ैसला लगभग एक साथ होना था।

दिन महीने गुजरते गए डॉक्टर ने डिलीवरी के लिए अगले महीने की तारीख़ दे दी, मैं प्रेग्नेंसी के उस दौर में थी जब चलना फिरना भी मुश्किल होता है और इस वक्त मैं अपना पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई में लगाना चाहती थी अगले महीने से परीक्षाएं भी शुरू होने वाली थी।भाई का फ़ोन आया की अगले माह शायद फैसला मिल जाए।

"माँ, मैं अगले महीने क्या क्या करुँगी, एक्जाम्स भी सर पर है डिलवरी डेट भी अगले महीने और मेरे और प्रवीण के तलाक का फैसला भी अगले महीने" मैं माँ की गोद में सिर रख कर रोने लगी।

"गौरी..मेरी बच्ची, ऐसे हिम्मत नहीं हार सकती, तुम इतने महीनों से किस किस मानसिक तनाव से गुजरते हुए यहाँ तक पहुंची हो और जब सभी परेशानियों का हल निकलने जा रहा है तो तुम्हारे आँखों में आंसू" माँ ने मेरे आंसू पोछते हुए कहा, " इन आंसुओं को अपनी हिम्मत बनाओ और आगे बढ़ो बेटी, तुम्हारे साथ हम सब खड़े हैं।

माँ की बाते और उनके प्यार से मुझे हिम्मत मिलती ।माँ ,बाबा, भाई , भाभी, बेला दीदी और माँ सबकी कितनी उम्मीदें है मुझसे, सभी ने मुझ पर भरोसा किया है कि मैं इस कठिन समय को हरा दूँगी इतनी आसानी से मैं हार नहीं मान सकती इन सबके के साथ मेरे कोख में पल रहे मेरे बच्चे का भी तो साथ है, कभी कभी महसूस होता है जैसे वो कह रहा है "माँ, तुम कभी अपना हौसला ना खोना, ये लड़ाई मैं भी लड़ रहा हूँ तुम्हारे साथ।

आख़िर वो दिन भी आ ही गया, मेरा और प्रवीण का रिश्ता अब ख़त्म हो चुका था, प्रवीण उदास से खड़े कभी मुझे देखते कभी माँ को, जो मेरे हाथ पकड़ कर खड़ी थी।माँ ने उनके तरफ देखा भी नहीं और मेरा हाथ थामे कोर्ट की सीढ़ियां उतरने लगी, उस दिन के बाद मैंने कभी प्रवीण को नहीं देखा।


कुछ दिनों बाद ही शालीन का जन्म हुआ, शालीन के आते ही घर की उदासी दूर हो गयी, दादी पूरे समय अपने पोते के देखभाल में ही गुजार देती, नाना नानी भी आ गए थे, तीनो अपना सारे दुःख उसकी मुस्कुराहट देख भूल जाते।मैं निश्चिन्त हो कर अपनी पढ़ाई में जुट गयी, दस दिन रह गए थे परीक्षा में।

बेड पर लेटे लेटे ही पढ़ाई करती क्योंकि शरीर अभी कमज़ोर था और मेरी दोनों माँओं की सख्त हिदायत थी की मैं कोई भी काम ना करूं ।

इसी तरह माँ और माँ बाबा की देख रेख में मैंने बीएड कर लिया, टीचर ट्रेंनिग की भी डिग्री ले ली, तीन साल कैसे गुजर पता ही नहीं चला।सबकी दुआ से दिल्ली के ही सरकारी स्कूल में हिंदी साहित्य की टीचर की नौकरी भी मिल गयी।धीरे धीरे मेरी गाड़ी पटरी पर आ रही थी। व्यस्तता बढ़ गयी थी ऐसे समय में परिवार का साथ मेरे लिए वरदान से कम नहीं था।

बेला दीदी की भी शादी हो गयी और वो नया घर मेरे घर के पास ही ले ली।

शालीन बेला दीदी से बहुत हिल मिल गया था, दीदी को बेला माँ कहता और दीदी भी उस पर अपना सारा स्नेह लुटाती रहती, बेला दीदी के पति रमेश भैया बहुत सुलझे हुए इंसान थे मेरी ज़िंदगी में वो मेरे दूसरे भाई बन कर आये थे।

"ट्रिंग ट्रिंग" फ़ोन की घंटी मुझे अतीत से वर्तमान में ले आयी।

"हैलो हैलो माँ" शालीन की आवाज़ सुन मैं अपने आंसुओ को पोछते हुए खुद को सँभालने का भरसक प्रयत्न किया।

"हां, बेटा सब ठीक है वहाँ, तुम ठीक तो हो , कुछ खाये की नहीं" "अरे रुको मेरी प्यारी माँ, मैं ठीक हूँ, यहाँ घर भी बड़ा है, रसोईया भी है इसलिए खाना भी खा लिया हूँ" बोलते हुए हंसने लगा।

"अच्छा अब ज्यादा मज़ाक ना बना मेरी, बदमाश! इतना बड़ा अधिकारी बन गया पर माँ की बातों का मज़ाक बनाना नहीं गया" मैंने भी झूठा गुस्सा दिखाया।

"माँ, मैं चाहे कितना भी बड़ा बन जाऊं पर मैं हमेशा आप का छोटा सा बेटा ही रहूँगा" शालीन की बातों से मैं और इमोशनल हो गयी पर खुद को सयंत करते हुए शालीन को उसके फ़ोन के बारे में बताया।

शालीन ने साफ़ मना कर दिया की ना ही मैं कभी फ़ोन उठाऊ और ना ही उनके बारे में सोचु।

शालीन ने बेला दीदी और भैया को भी बता दिया की वो लोग मेरे पास आ जाए ताकि मैं अतीत की यादों में ना चली जाऊ।

शालीन को प्रवीण के बारे में सारा सच पता था खुद माँ ने उसे उसकी पिता की सारी सच्चाई बता दी थी।

वो अपने पिता का नाम भी सुनना पसंद नहीं करता और ना ही कभी मिलने की इच्छा जाहिर की, माँ और मैंने उस से कई बार पूछा था अगर वो अपने पिता से मिलना चाहे तो हम नहीं रोकेंगे पर शालीन को प्रवीण का नाम भी सुनना पसंद नहीं था और कभी प्रवीण ने भी शालीन से मिलने और उसके बारे में जानने की इच्छा नहीं दिखायी।

पिछले बरस माँ के स्वर्गवास की खबर प्रवीण तक पहुंचा दी गयी थी पर प्रवीण अपनी माँ के अंतिम संस्कार में भी आना जरुरी नहीं समझा।और आज इस फ़ोन ने मुझसे मेरा चैन छीन लिया ।

बेला दीदी आयी तो उन्होंने बताया मधु उनके ही हॉस्पिटल इलाज़ के लिए आई है उसे कैंसर हो गया है । सुन कर मुझे बहुत दुख हुआ.. कभी मैंने भी उनका बुरा सोचा था पर उन दोनों को ऐसी सज़ा मिले ये कभी नहीं चाहा था।पूरी रात इन तमाम झंझावात में गुजरी क्या करूँ, जाऊँ की ना जाँऊ।

सुबह उठी तो सिर फिर भारी भारी सा लग रहा था, नाश्ते के बाद दवा खा ली और तैयार होने लगी कॉलेज जाने के लिए।

निकली तो कॉलेज जाने के लिए पर मेरे कदम हॉस्पिटल की तरफ बढ़ गए.

मनुष्य का मार्ग उसके वश में नहीं होता वह निरन्तर चलता रहता है पर उसके डग उसके वश में नहीं होते...ठीक उसी तरह मैं भी चली जा रही थी उस अनचाहे और टूटे रिश्ते की तरफ़, खुद को रोकना चाह रही थी पर मेरे कदम बढ़ते जा रहे थे।

मधु की कृशकाय असहाय अवस्था में देख कर दुःख तो बहुत हुआ पर मैं इन दोनों के सामने कमज़ोर नहीं दिखना चाह रही थी।

प्रवीण मधु के बेड के साइड चेयर पर बैठे थे, टूटे ,कमज़ोर और निस्तेज...सिर झुकाएं बैठे थे, शायद मुझसे नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं थी उनके अन्दर।

मुझे देख मधु रोने लगी " गौरी, हम दोनों को माफ़ कर दो, तुमसे माफ़ी मांगने का भी हम दोनों हक़ नहीं रखते फिर भी तुमसे हाथ जोड़ माफ़ी मांगती हूं, हम दोनों ने तुम्हे बहुत दुख दिया शायद इसीलिए ईश्वर ने मुझे ये सज़ा दी,मेरे मरने से पहले मेरे गुनाहों की माफ़ी मिल जाए तो मेरी तकलीफ़ कुछ कम हो जाए"रोते लड़खड़ाते जुबान में मधु ने अपनी बात कही।

प्रवीण सिर झुकाये हाथ जोड़े रो रहे थे।इन दोनों की ऐसी अवस्था देख मैं खुश होना चाह रही थी पर खुश नहीं थी।इन दोनों ने मिलकर मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा दुःख दिया फिर भी मैं इनके दुःख में खुद को दुःखी महसूस कर रही थी।


"मधु, माफ़ तो मैंने तुम्हे कब का कर दिया था और प्रवीण तुम्हें भी, तुम दोनों से नफ़रत करने से ज्यादा मुझे अपनी और अपने बेटे की ज़िंदगी संवारने में खुद को खो देना ज्यादा सही लगा, और मैंने वही किया, काश तुम दोनों ने समय से अपने बारे में परिवार को पहले बताया होता तो यूँ...मेरी और दर्शन की ज़िंदगी में तुम दोनों नासूर ना बने होते, अपनों की बददुआएं ना लेते, मेरे साथ तो मेरे अपनों का साथ और आशीर्वाद था इसलिए आज मैं यहाँ खड़ी हूं गुमान से नहीं अपनों के प्यार और आशीर्वाद की वजह से"

"मधु, घर बनाते हैं घर के बड़ो के आशीर्वाद और प्यार से.. नफरत से नहीं, तुम दोनों का घर माँ और मेरे आंसू से बने,माँ की आँखों की वो उदासी बेबसी जो अपने एकलौते बेटे के खो देने से हुई, उम्र भर मेरा साथ देने की भी तो कोई वाज़िब वजह होगी उनकी,उनका सिर्फ साथ ही नहीं उनका निस्वार्थ प्रेम मेरी ताक़त बना उन्हें मुझ पर मेरे सच पर यक़ीन था, आज मैं और मेरा बेटा जो कुछ भी है माँ के बिना मुमकिन नहीं था, प्रवीण तुम्हे तो माँ ने जन्म दिया पाल पोस कर इस लायक बनाया और तुमने अपनी जननी को ही धोखा दिया, उनके अंतिम संस्कार में भी आना जरुरी नहीं समझा"आज मैं बरसो से दबी हुई सारी भड़ास निकाल देना चाह रही थी पर प्रवीण की सिसकियां सुन कर रुक गयी।

"तुम दोनों अब अतीत से बाहर निकलो और अपने इलाज पर ध्यान दो, मेरे मन में अब तुम दोनों के लिए कोई भावना नहीं है ना ही प्यार की और ना ही नफ़रत की, रमेश भैया अच्छे डॉक्टर हैं पुरे विश्वास के साथ इलाज कराओ, ईश्वर तुम दोनों का भला करे" कहते हुए मैं बाहर निकलने लगी तभी पीछे से प्रवीण की आवाज़ आयी " गौरी, मेरा बेटा.. 

"प्रवीण, तुम्हारा कोई बेटा नहीं है,जिसे मेरा बेटा कहा अभी,क्या उसका नाम पता है तुम्हे" मैंने ऊंचे स्वर में प्रवीण की बातों को काटते हुए कहा "तुम्हारी एक बेटी है, बस उस को और अपनी बीमार पत्नी को संभालो, आज के बाद मुझे फ़ोन करने या मुझसे मिलने की कोशिश भी नहीं करना, मैं यहाँ आयी थी सिर्फ तुम दोनों को यह एहसास दिलाने, की अपनों का साथ कितना जरुरी होता है धोखे और झूठ की बुनियाद पर घरौंदे नहीं बनते.. प्रवीण।

 कमरे से निकलते समय लगा मैं अपने अतीत की इन कड़वी यादों से भी निकल गयी हूं मेरा मन साफ़ हो गया, अतीत की कड़वाहट मेरे मन से निकल कर मेरे आत्मा को शुद्ध कर गयी.

" हे ईश्वर, माँ...माफ़ कर दो इन दोनों को, मैने भी माफ़ कर दिया"

मैं कॉलेज के तरफ तेज़ी से चल पड़ी, आज माँ बाबा भी आने वाले थे इसलिए क्लास लेने के बाद समय से घर भी पहुंचना था।


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