उम्मीद
उम्मीद
दिन भर का थका हारा सुखिया जैसे ही अपनी झोपड़ी में घुस ही रहा था कि पीछे से आवाज़ आयी-
"सुखिया, अभी हवेली चल,मुखिया जी के बेटे का जन्मदिन है शहर से बड़े बड़े लोग आ रहे है, बहुत काम है, बाबू ने गांव के सभी मज़दूरों को बुलाया है।"
मुखिया के सलाहकार कह लो या उसके कुकर्मो का साथी बाबू का चमचा बसंत खीसे निपोरता हुआ सामने खड़ा था।
"भाई, देख तो रहे हो अभी गारे मिट्टी का काम से आ रहा हूं, कुछ खा पी लूं तो आता हूं।"
"अच्छा अच्छा ठीक है, लेकिन देरी मत करना बाबू ने कहा है जल्दी आओ" बसंत कहते हुए निकल गया।
सुखिया की पत्नी धर्मी पानी लेकर सुखिया के मुँह हाथ धुलवाने लगी।
"मना क्यों नहीं कर देते हवेली वालो को, क्यों जाते हो वहाँ, कुछ मिलता तो है नहीं"
"बावली जैसी बात मत कर, पानी मे रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं कर सकते और हम पानी मे रहने वाले वो छोटी मछलियां जिनके नसीब में चारा नहीं सिर्फ पानी की चंद घुट है"
"तो क्या अपनी मेहनत की कमाई भी नहीं मांग सकते हैं, तुम कुछ बोलते नहीं इसी का फायदा उठाते है ये लोग" आज धर्मी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
"बोल के क्या कर लेंगे जरा वो भी बता दे, कन्हैया की हालत देख कर भी जब तू बोल रही है तो तू सच्ची में बावली हो गयी है" पिछले बरस सुखिया ने अपने बचपन के दोस्त कन्हैया और उसके पूरे परिवार को खो दिया था, गांव में एक अकेला वही था जिसने मुखिया के जुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और बदले में उसकी पत्नी जो कुछ ही दिन पहले ब्याह कर आई थी उसे उठा ले गए, माता पिता को इतना मारा की कुछ दिनों में वो दोनों चल बसे, कन्हैया ने माता पिता की हत्या और पत्नी की आत्महत्या कर लेने के बाद विछिप्त अवस्था मे दूर एक गाँव के कुएं में छलांग लगाकर जान दे दिया।
"पिता जी कहते थे हम मज़दूर जन्म लिए और मज़दूर ही मरेंगे, मज़दूर जब काम पर निकलता है तो ये सोच कर निकलता है ईश्वर की कृपा रही तो शाम को सही सलामत घर आ जाएंगे"
सुखिया रोटी खाते हुए पत्नी को समझाया।
"बात तुम्हारी सही है लेकिन सच तो ये भी है गांव का मुखिया पूरे गाँव का माई बाप होता है, तुम देखो इस वसंत का पक्का घर बन गया उसकी घर वाली के नख़रे ही नहीं खत्म होते, हमारे सामने ऐसे इठला कर चलती जैसे कोई सेठाइन हो" धर्मी ने मुँह बनाते हुए कहा।
"अच्छा तो तू इस लिए परेशान है,ऐसा बोल तुझे बसंत की लुगाई से जलन हो रही है" तनाव भरे माहौल को कम करने के लिये हंसते हुए सुखिया बोला।
"मैं क्यों जलने लगी, जलती नहीं हूं पर गुस्सा बहुत आता है अगर घर उसकी कमाई से बनता तो कोई बात नहीं लेकिन उसका घर सरकारी पैसो से बना है जो पूरे गांव वालों के लिए आता है पर मिलता हैं बाबू और मुखिया के चमचो को" धर्मी की ये बात सौ टके सच थी, पर मुखिया के सामने ये बोलने का हक़ किसी को नहीं था।
"देख।। अपना जी जलाने से कोई फ़ायदा नहीं है, मजदूर और मज़बूरी एक ही शब्द है, सिर्फ गांव नहीं हर जगह पैसे हमारे ही काटे जाते है, शहर में ठेकेदार कम पैसो में हमसे काम लेना चाहता है, कितना भी काम करो रोज की मज़दूरी में कुछ पैसे काट कर ही मिलते है, हमारी ये स्थिति सदियों पहले से चली आ रही है ना कल कुछ बदला था ना आज कुछ बदला है, हम सुबह से लेकर रात तक इनकी गालियां और मार खाते है लेकिन हमारी सुनवाई कही नहीं, ना गांव का मुखिया ना ठेकेदार ना प्रशासन ना सरकार, बस बिना कोई आवाज़ निकाले काम करते रहो, आवाज़ निकाले तो क्या होगा ये तू भी जानती है, जो चूल्हा जल रहा है उसके भी लाले पड़ जायेंगे,मैं काम करूंगा और अपने दोनों बच्चों को पढ़ाऊंगा" सुखिया लंबी सांस भरते हुए कहा।
"सपने देखने की मनाही नहीं है सपने देखो, हो सकता है मुखिया जैसे लोगों के भगवान की नज़र हम जैसो पर भी पड़ जाए" धर्मी का मानना था भगवान अमीरों के होते है हम जैसो के लिए नहीं इसलिए वो भगवान को मुखिया के भगवान कहती है।
"चिंता मत कर।।अब इस घर मे कोई और सुखीराम सुखिया नहीं बनेगा" सुखिया कंधे पर गमछा डाल कर अपने सपनों को पूरा करने के पक्के इरादे ले कर मुखिया की हवेली की तरफ़ चल दिया।