Vibha Rani Shrivastav

Abstract

5.0  

Vibha Rani Shrivastav

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"का बरसा जब कृषि सुखाने"

"का बरसा जब कृषि सुखाने"

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"रमुआ! रे रमुआ !" बाहर से ही शोर मचाते रतनप्रसाद घर में प्रवेश कर गए।

"क्या हुआ ? इतना गुस्सा में क्यों फनफना रहे हैं?" धीमी आवाज में पूछे गये पत्नी रत्ना के सवाल को अनसुना करते हुए फिर जोर से चिल्लाए..

"रे रमुआ! जिंदा भी है कि कहीं मर-मरा गया...,"

"जी मालिक आ गया बताइये क्या काम करना है ?"

"चल, छोटी-छोटी कांटी और हथौड़ी लेकर बाहर चल..!"

"मुझे भी तो बताने का कष्ट करें कि क्या बात हुई है जिसके कारण आप इतने गुस्से में हैं...," रत्ना ने पूछा।

"अभी मैं अपने उच्च पदाधिकारी के साथ आ रहा था तो बहू के कमरे की खिड़की से पर्दा उड़ रहा था और बहू बिना सर पर आँचल रखे पलंग पर बैठी नजर आ रही थी। पदाधिकारी महोदय ने कहा भी प्रसाद जी वो आपकी बहू है ? खिड़की के पर्दे पर कांटी ठोकवा देता हूँ ! तुम कितने साल घूँघट में रही हो...।"

"आपके अक्ल पर पर्दा पड़ गया है... कल अपना वृद्धाश्रम जाना, आज ही तय कर रहे हैं और आपकी खुद की बेटी अभी जो उड़ाने भर रही है ब्याहनी बाकी है! दुनिया में शोर है ज़माना बदल गया है... इक्कीसवीं सदी की महिलाएं फौज में और फ्लाइट उड़ा रही है... यहाँ उड़ते पर्दे में कांटी ठोका जा रहा है.. !! अक्सर देखा गया है जब मिसालें बनने का मौका मिलता है तो लोग अँधेरा चयन करते हैं मशालें बुझाकर.., कर्म खोटा चाहिए भजनानन्द..!"

स्तब्धता में रतनप्रसाद धम्म से कुर्सी पर गिर पड़े।


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