ज्ञान और ज्ञाता
ज्ञान और ज्ञाता
अतीत में अनेक ऐसे ज्ञानी पुरुष होकर गए हैं जिन्होंने अपने जीवन के तमाम अनुभवों के बाद केवल यही कहा - "मैं इतना ही जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता।" मनुष्य आत्मा की अल्पग्यता की स्थिति की यह हकीकत है। जरा विचार तो कीजिए। विश्व की विराटता का अनुभव करना और उसे अनुभव से जानना अपने आप में बहुत बेहद की आध्यात्मिक स्थिति है। हम साकार संसार में केवल एक या दो आयामी जीवन जीते हैं। शेष सभी हमारा हमसे अज्ञान बना रहता है।
मैं भी इस बात से सहमत हूं और मैं अपने बारे में भी यही कहता हूं कि :- "मैंने अब तक इतना ही जाना है कि मैं कुछ नहीं जानता।" प्रत्येक व्यक्ति भौतिक दुनिया में केवल उतना ही जानता है जितने से वह एक सीमित क्षेत्र में सीमित दायरे में अपनी व्यवस्था के अनुसार अपना काम चला लेता है। अपना काम भी वह कितनी बखूबी गुणवत्ता और सकारात्मकता से चला पाता है, उसमें भी हरेक नंबरवार होते हैं। लेकिन वह सब एक तरह से हमारा अल्प ज्ञान ही होता है।
हम अपने मन में ज्ञान के कुछ affirmation सोचते हुए अपने आपको कुछ कुछ अभ्यास के ढांचे में ढालते हैं। कुछ अपनी अपनी सीमा क्षमता के अनुसार अध्ययन मनन मंथन भी करते हैं। उससे लाभ तो होते हैं पर बहुत सीमित ही। इसका यह अर्थ नहीं होता कि हम affirmation या अध्ययन मनन मंथन से सर्वज्ञ हो जाते हैं। नहीं। परमात्मा जैसी ज्ञान की, ज्ञाता होने की क्षमता किसी में भी नहीं होती। जो आत्माएं परमात्मा के समकक्ष हो जाती हैं, वे विरले गिनी चुनी आत्माएं ही होती हैं। ऐसी आत्माओं को और परम आत्मा को मेरा कोटि कोटि नमन है। विरले ज्ञानी आत्मा होने की पराकाष्ठा वाले होने का केवल यही भावार्थ है उन आत्माओं ने भौतिक और अभौतिक की ठीक ठीक आन्तरिक सूक्ष्म वस्तुस्थिति को दिव्य बुद्धि से समझ लिया है। ऐसी आत्माएं यह संसार द्वंदात्मक स्थिति है। इस द्वंद को समझकर इसमें अपना अनासक्त अभिनय करते हुए इससे पार साक्षी निर्द्वंद स्थिति को प्राप्त करना ही मेरा का परम लक्ष्य है।