सीमा शर्मा पाठक

Tragedy

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सीमा शर्मा पाठक

Tragedy

जमुना काकी

जमुना काकी

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अगले दिन सुबह शहर जाना है हमेशा के लिए ये सोचकर जमुना काकी रात भर नहीं सोई। घर के आंगन में खडे़ नीम के पेड़ के नीचे बैठकर अपनी गुजरी जिन्दगी याद करने में लगी रही, क्योंकि वो नीम का पेड़ ही था जो उस घर में पुराना था उसी की तरह वरना समय के साथ साथ सब कुछ बदलता गया। गांव में काकी के नाम से जानी जाने वाली जमुना गांव वालों के लिए किसी देवी से कम ना थी। हर किसी का दुख दर्द हर तकलीफ अपनी समझकर सबका सहारा बनती। शहर जाने का मन नहीं था उसका, अपना अन्तिम समय अपने घर में ही बिताना चाहती थी उसी घर में जहां अपना पूरा जीवन जिया उसने। जीवन के हर उतार चढ़ाव को देखा उसने। समय और समाज के नियमों को परिवर्तित होते हुये देखा उसने।

नीम के पेड़ के नीचे उसी आंगन में अपनी खाट पर बैठी जमुना काकी सोचने लगी -यहीं इसी घर में करीब 84 साल पहले महज 11 वर्ष की उम्र में ब्याहकर आई थी मैं और इसी आंगन में अपना बचपन खोकर सिर पर बडी़ बडी़ जिम्मेदारियों को ढोना सीखा था। बडा़ मन करता था अपनी हमउम्र ननद रमा के साथ गुड़िया से खेलने का लेकिन कहां अधिकार था मुझे गुडडे् गुडियों से खेलने का बहु जो थी इस घर की। साल भर में रमा भी विदा होकर चली गई थी अपनी ससुराल और मैं चलने लगी थी अपनी गृहस्थी की गाड़ी पर सवार होकर और इस सफर में अनेकों दुख अनेकों सुख और अनगिनत अनुभवों का अहसास किया मैंने। कुछ अनुभव बडे़ कड़वे थे और कुछ शहद से भी मीठे।


जब दुनिया और रिश्तों की समझ आई तब तक 5 बच्चों की मां बन गई थी। समय बढ़ता गया परिवार और बच्चों को सम्हालते सम्हालते कब स्वयं को कहीं खो दिया पता भी ना चला। बच्चे बडे़ हुये शहर चले गए और वहीं बस गये। बडा़ बेटा था जो समय से बहुत पहले ही भगवान के पास चला गया उसकी बहु को अपने पास ही रखा एक बिटिया थी उसके पास। आज का समय होता तो दूजा ब्याह करा देती उसका उस समय तो विधवा विवाह के बारे में सोचना ही अपराध था।

बच्चे समय समय पर आते और हर एक पुरानी चीज को नया करवा जाते।मिट्टी की दीवारें जिनको बडे़ ही सलीके से रंग विरंगे रंगों से रंगा करती थी हर तीज त्यौहार पर वो अब पक्की ईंटों की हो गई थी। चूल्हा चौका अब रसोईघर बन गया था। आंगन में लगे नल में अब समर लग गई थी । बाल बच्चों की किलकारियों से गूंजता आंगन अब सूना पड़ गया था। कुछ सालों पहले वो भी छोड़ गया जिससे बन्धन बांधकर इस घर में आई थी और इसी घर की होकर रह गई थी। बडी़ बहु ही बची थी जो मेरा सहारा थी और मैं उसका लेकिन वो भी कुछ दिन पहले मुझे छोड़कर चली गई। बच्चे जिद पर अडे़ हैं कि साथ ही ले जायेगें शहर। अब कैसे कहूं कि जान बसती है मेरी इस घर में अपने जीवन के 84 वर्ष इसी घर में काटे हैं अब कहीं और रहना नामुमकिन होगा।

जानकी काकी ने रात भर में अपना पूरा जीवन याद कर लिया था एक एक पल उसे ऐसे याद था जैसे कल ही गुजरा हो। जैसे जैसे दिन निकलता जा रहा था जानकी काकी का मन उतना ही दुखी होता जा रहा था। बच्चों की जिद थी कि मां अब उनके साथ शहर में ही रहेगी पोते और पोता बहु भी खुद लेने आये थे तो मना नहीं कर पाई जमुना काकी और चल दी शहर के लिए गांव वालों से विदा लेकर। गांव वालों की आंखों में आँसू थे और काकी की आंखों में आँसुओं का समुन्दर लेकिन उसने बहने नहीं दिया उसे रोके रखा और चली आई शहर।


जमुना काकी को शहर में बडा़ कमरा मिला नौकर चाकर मिले और मिला अकेलापन। बच्चे उसको लेकर तो इसलिए आये थे शहर कि वह अकेली रह गयी थी लेकिन अनजाने में यहां लाकर सौ गुना अकेलापन दे दिया था। शहर जाते ही जमुना काकी को अहसास हो गया कि सबकुछ बदल गया है शहरों में। उसकी अपनी बहुयें साडी़ छोड़ सलवार कुर्तों में घूम रही हैं और पोता बहुयें छोटे -2 कपडे पहने, इतने छोटे जितने तो विलायती औरतें भी नहीं पहनती थी जब उनका हमारे देश में राज था। चरण स्पर्श करने का समय नहीं था किसी के पास दूर से ही गुड मॉर्निंग और गुड नाइट हो जाया करती थी। अंग्रेज तो जा चुके थे लेकिन शहरों में सबको अंग्रेज बनाकर चले गए थे। सब विलायती वेशभूषा और विलायती संस्कृति में ढलते जा रहे थे।

उसके अपने बच्चों के पास इतना समय नहीं था कि 10 मिनट पास बैठकर बात कर सके।वह सोचने लगी मुझे कहां जरूरत थी इस बडे़ कमरे की और नौकरों की मुझे तो जरूरत थी अपनों के साथ की उनके प्यार की लेकिन वो प्यार मिला नहीं। बेटे बहुयें पोते सब भाग रहे थे एक दूसरे से आगे जाने की होड़ में। सब नौकरी करते थे। घर में बस जमुना काकी और नौकरों के अलावा कोई नहीं था। कुछ ही महीनों में समझ चुकी थी वो कि सच में सबकुछ ही बदल गया है कुछ बदलाव बहुत अच्छे हैं लेकिन कुछ बदलाव कचोट रहे हैं उसके मन को अन्दर से। उसने देश की आजादी से पहले और आजादी के बाद का समय देखा है महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार है।


सती प्रथा ,बाल विवाह सब खत्म हो गया आज की महिलायें पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं शिक्षा का अधिकार है उनको नौकरी का अधिकार है उनको पर्दा प्रथा बस गांव तक ही सीमित है। अपने मनपसंद कपडे पहन सकती हैं वो जो चाहे कर सकती हैं वो। सब कुछ बहुत अच्छा हुआ है जीवन बहुत बेहतर हुआ है लेकिन कहीं खो गयी है भारतीय संस्कृति, भारतीय पहनावा, वो बडो़ का मान सम्मान वो प्रेम की भावना और वो अपनापन।उस खोये अपनेपन और सदभाव के एवज में ये आगे बढ़ता हुआ समाज भा नहीं रहा था जमुना काकी को और नाहीं शहर की ये भीड़ भाड भरी ज़िन्दगी। वो तो तलाश रही थी वही सुकुन जो नीम के पेड़ के नीचे अपने घर के उस आंगन में मिला करता था जो एक अलग चमक और खुशी उसके चेहरे पर ले आया करता था। वो चाह रही थी कि उसके पढे़ लिखे बच्चे पढ़ ले उसके चेहरे की उदासी और उस अकेलेपन को लेकिन वो समझ गई थी इस पढी़ लिखी पीढ़ी के पास वो नजरें कहां है जो हम अनपढ़ लोगों के पास हुआ करती थी कैसे हम बिन कहे समझ जाया करते थे एक दूसरे के जजबातों को, एक दूसरे के अहसासों को।

जमुना काकी को शहर के बडे़ से घर का वो बडा़ सा कमरा अच्छा नहीं लग रहा था वहां सुकुन नहीं केवल सन्नाटा था वहां अपनापन नहीं केवल उदासी थी। वहां अपनों के होते हुये भी अकेलापन था और वह अकेलापन उसे मजबूर कर रहा था ईश्वर से ये प्रार्थना करने के लिए कि अब बुलाले वो उसको अपने पास। ये बदली हुई दुनिया अच्छी है लेकिन इसमें कमियां भी बहुत सारी हैं और ये कमियां उसे भा नहीं रही।



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