STORYMIRROR

सीमा शर्मा सृजिता

Inspirational

3  

सीमा शर्मा सृजिता

Inspirational

विवाह और स्त्रियां

विवाह और स्त्रियां

4 mins
253



हमसे पहले की पीढ़ियों ( स्त्रियों )ने बहुत कष्ट झेला, बहुत आंसू बहाये, बहुत कम विरोध कर पाईं।

 हमारी पीढ़ी की बहुत सी स्त्रियां आज भी कष्ट झेल रही हैं, आज भी आंसू बहा रही हैं, बहुत सी विरोध भी कर रही हैं।

इससे पहले कि हमारी आने वाली पीढ़ियां भी वही दंश झेले, उसी तरह आंसू बहायें और सारी की सारी विरोध पर उतर आयें।

हमारे बच्चों को समझाना होगा विवाह का असली मतलब खासकर बेटों को। विवाह का मतलब स्त्री पर हुकूमत करना कदापि नहीं होता। विवाह एक संस्कार है प्रीत का, विश्वास का, बराबर जिम्मेदारी का, मान का, सम्मान का।


एक पुरूष अपनी स्त्री से चीख -चीखकर कह रहा है कि उसकी दी हुई छूट का फायदा ना उठाया जाये, वरना अच्छा नहीं होगा। वो बता रहा है स्त्री कब बोले, कितना बोले, साल में कितनी बार अपने मां -बाप से मिले, घर से बाहर जाये या न जाये, कितना हंसे, कितना रोये, पुरूष की हां को हां और ना को ना कहे और सांस ले या न ले। ये सारे पैमाने सिर्फ पुरूष तय करेगा, क्यों? क्योंकि उसने विवाह किया है। विवाह कॉपीराइट है किसी स्त्री पर शासन करने का। मैं सुन रही हूं, बोलने के लिए बहुत कुछ है मगर मेरे आस - पास के पुरूष ही नहीं स्त्रियां भी बुदबुदा रही हैं, ठीक नहीं होता स्त्रियों का ज्यादा बोलना। एक स्त्री की आवाज आ रही है वो कह रही है आ जाता है पुरूषों को गुस्सा मगर तुम तो स्त्री हो सह जाती, क्या जरूरत है उससे जुबान लड़ाने की, अब जुबान लड़ाओगी तो पिटोगी ही, पुरूष का मनोबल बढ़ रहा है। मैं सुन रही हूं एक स्त्री हंस रही है मन ही मन देखकर आज का तमाशा। पुरुष का मनोबल और बढ़ रहा है। एक स्त्री सिखा रही है स्त्री को धरती होना, सहते जाओ, सहते जाओ, बस सहते जाओ। पुरूष का मनोबल बढ़ता ही जा रहा है। उसकी तेज आवाज में कही गईं तीखी बातें मुझे चाबुक जैसी लग रही हैं। उसका अट्टहास मेरे कान फोड़ रहा है। मैंने अब कान बंद कर लिये हैं।

मैं धम्म से बैठ गई हूं और सोच रही हूं ये पुरूष हमने ही तो जन्मे हैं फिर हम पर ही हु

कूमत करना इन्होंने कैसे सीखा ?हमने कैसे सीखने दिया ? हम क्यों असमर्थ रहे हैं इन पुरुषों को सही संस्कार देने में ? हमारी कोख से निकलकर, हमारी गोद में पलकर, हमारी छाँव में संवरकर ये कहां से सीख आये ये सब। कहीं हम अपने दोषी खुद ही तो नहीं? क्या हम काट नहीं सकते इनकी वो जुबान जो करती है हमारे अस्तित्व को तार -तार? क्या हम तोड़ नहीं सकते इनका वो हाथ जो पहुंचता है हमारी आत्मा तक और करता है घायल? 


हम कर सकते हैं, हम सब कर सकते हैं मगर हम करेंगे नहीं, पितृसत्ता का दंश झेलती, टूटती, बिखरती स्त्री को देख दो चार टेसू टपका लेंगे, शोषण के खिलाफ खड़ी स्त्री का मजाक बना लेंगे, गलत को गलत बोलने वाली स्त्री को दो चार कड़वे शब्द और बोल आयेंगे, अपना अधिकार मांगने वाली स्त्री को स्त्री होने का मतलब समझा आयेंगे, सम्मान मांगने वाली स्त्री को अपमानित कर आयेंगे लेकिन साथ नहीं देंगे।

कितना अच्छा होता ना हम सभी स्त्रियां भी पढ़ लेंती अनेकता में एकता का पाठ। जब - जब संसार की किसी स्त्री पर जुल्म होता हम एक हो जातीं। हमारी एकता में इतनी ताकत होती कि एक झटके में ढह जाते समाज के बेतुके सडे़ -गले नियम।


क्या हम नहीं बता सकते अपने बच्चों को विवाह की सही - सही परिभाषा? प्रेम की सही - सही परिभाषा, विश्वास का सही अर्थ, पुरूष होने का सही - सही मतलब, स्त्री होने का सही - सही मतलब। इससे पहले के 50 साल बाद भी कोई स्त्री यही सब लिखे जो आज मैं लिख रही हूं, हमें समझाना होगा अपने बच्चों को, अपने बेटों को, पिलानी होगी स्त्री सम्मान की घुटी बचपन से ही, कोई पुरूष हमारे लिए ये सब नहीं करेगा, यकीनन नहीं करेगा। हमें खुद ही लड़नी होगी अपनी लड़ाई मिलकर, हमें बनाना होगा अपनी आवाज को थोड़ा और बुलन्द, इतना बुलन्द कि गिर जाये पितृसत्ता की ये दीवार धड़ाम से।

सुनो स्त्रियों! यदि स्त्री होकर भी हम ये सब नहीं कर पाये तो किसी भी पुरूष को अपना दोषी मानना नाजायज है, एकदम नाजायज।

   


Rate this content
Log in