जल पिशाच
जल पिशाच
प्रस्तावना
मई १९९३ के उस इतवार को जो हुआ, नहीं होना चाहिए था। मेरा उस हादसे से कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन उस समय मैं घटना स्थल पर ही था। जो हुआ था वो तो मात्र एक क्षण में हो गया लेकिन उस हादसे को याद करते हुए और भी बहुत कुछ याद आ जाता है। हलाकि उस सब से उस उस हादसे का कोई सरोकार नहीं है। लेकिन उस हादसे के बारे में बताने से पूर्व उस सबका जिक्र करना जरूरी सा लगता है। और उस सब में बहुत सी घटनाये, स्थान व व्यक्ति है, उन्हें जाने बिना उस हादसे का समझा जाना थोड़ा कठिन है। मैं उन सभी घटनाओ, स्थानों एवम व्यक्तियों के बारे मेँ सिलसिलेवार बताने की कोशिश करता हूँ।
गुरु अर्जुन देव पब्लिक स्कूल
मैं उस समय इस स्कूल में पिछले तीन साल से पढ़ रहा था। इस से पहले मैं मॉडर्न स्कूल (दिल्ली वाला नहीं) में पढता था। किसी परिचित की सलाह पर मेरे पिता जी ने मुझे मॉडर्न स्कूल से निकाल कर गुरु अर्जुन देव पब्लिक स्कूल में डाला था। यह सिखों का स्कूल था, पढाई और अनुशासन में अव्वल। वहाँ कक्षा ६ में किसी नए स्टूडेंट का एडमिशन कठिन ही नहीं नामुमकिन था, लेकिन स्कूल के प्रिंसिपल, जिन्होंने मुझे देखते ही रिजेक्ट कर दिया था, न जाने कैसे मेरे पिता जी की जान पहचान निकल आयी और मुझे एडमिशन मिल गया। मैं अपने पुराने स्कूल में बहुत खुश था लेकिन इस जेल जैसे स्कूल में आकर मेरा दम घुट रहा था।
सिखों का स्कूल था तो सिख छात्र ही दोस्त भी बने। नवदीप सिंह और सतविंदर सिंह नाम थे उनके। हम तीनो हमउम्र और लगभग एक ही लंबाई के थे। पिछले तीन साल से हम बैक बेंचर ही थे। बैक बेंचर होना हमारी चॉइस नहीं थी बल्कि हम कक्षा के लंबे लड़को में से थे इसलिए टीचर हमे पिछली बैंचो पर ही बैठा देते थे। पढाई में तीनो कुछ ख़ास नहीं थे लेकिन आखरी समय पर तैयारी करके ५० छात्रों की कक्षा में टॉप टेन में अपनी जगह बना लेते थे। हम तीनो में जो ज्यादा मार्क्स लाता था वो बाकी दो की ईर्ष्या का पात्र बनता था।
हम तीनो के विचार आपस में मिलने के कारण हम तीनो अपने आप में सीमित रहते थे। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। न तो हम किसी को परेशान करते न कोई हमसे मतलब रखता था। लेकिन अगर कोई पंगा लेता तो उसका पीछा पाताल तक न छोड़ते थे। हमारी दूसरे छात्रों के साथ छिटपुट लड़ाईया हमें दुसरे छात्रों से दूर करती गयी और टीचर्स की निगाह में हमारी गिनती लड़ाकू छात्रों में होने लगी। और इस वजह से हमें एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटीज में हिस्सा नहीं लेने दिया जाता था। अपने हालात को देखते हुए हमने किसी भी लड़ाई में उलझने से तोबा कर ली।
इन लड़ाइयों के बहुत सारे साइड इफ़ेक्ट थे। पहला साइड इफ़ेक्ट था- पिटाई, जो चार चरणों में हुआ करती थी, खासतौर पर मेरे लिए। झगडे के बाद झगडे में शामिल सब छात्रों को प्रिंसिपल के पास ले जाया जाता था। वहाँ पर दंड प्रिंसिपल के मूड के अनुसार मिला करता था। यदि प्रिंसिपल का मूड सही है तो सबको उनके ऑफिस के सामने मुर्गा बना दिया जाता था। यदि मूड थोड़ा ख़राब है तो हथेलीयो पर दस जोरदार बेंत लगती थी। यदि मूड बिलकुल ख़राब है तो फिर पूरी देह की मरम्मत तसल्ली बख्स तरीके से की जाती थी।
तीनो तरह की सजाओ में एक बात कॉमन थी, पेरेंट्स को स्कूल में तलब किया जाना। नवदीप और सतविंदर के पिता क्रमशः डॉक्टर और इंजीनियर थे, जो प्रिंसिपल से मिलते और अपने बेटो को डांटते और चले जाते। मेरे हालात थोड़े अलग थे। मेरे पिता को स्कूल में आने के लिए समय निकलना थोड़ा मुश्किल काम था। वो अपने कैटल फीड स्टोर में बहुत व्यस्त रहते थे, स्कूल से बुलावा वो भी शिकायत सुनने के लिए उन्हें बहुत नागवार गुजरता था। शिकायत सुनने आने का मतलब था कारोबार का नुकसान और ऊपर से स्कूल प्रिंसिपल का ताना, "शर्मा जी, योर लैड हैज़ क्रॉस्ड एवेरी लिमिट, ही इज़ अ मेनेस टू अदर स्कूल चिल्ड्रन, आइदर मेंड हिम और आई विल रस्टिकेट हिम।" (शर्मा जी, तुम्हारा लड़का सब हदे पार कर चूका है। वो स्कूल के दुसरे बच्चो के लिए खतरा है। या तो इसे सुधार लो नहीं तो मुझे इसे स्कूल से निकालना पड़ेगा)
इतना सुनना पिता जी के लिए बेइज्जती की इन्तहा होती थी जिसका अंजाम मुझे हाथ के हाथ भुगतना पड़ता था। प्रिंसिपल के ऑफिस में उनके तीन -चार जोरदार थप्पड़ मुझे दिन में तारे दिखा देते थे। मैं बेइज्जत होकर क्लास में आ जाता था, मेरे दोनों दोस्त और सारी क्लास मेरा कुटिलता भरी मुस्कान के साथ स्वागत करती थी और मैं जलता भुनता कोई भी किताब खोलकर बैठ जाता था। पिटाई को तीसरा चरण शाम को शुरू होता था जब घर पर मेरी शाम की क्लास लगती, इस पिटाई के लिए डण्डा या पिटाई के दूसरे साधनो का भी प्रयोग होता था जिसमे पिता जी की चरण पादुकाएं भी शामिल होती थी।
पिटाई का चौथा चरण दो चार दिन बाद उस दिन प्रारम्भ होता जिस दिन पिता जी मुझे पढ़ाने बैठते, मैथ के किसी भी सवाल का उत्तर गलत होने पर जबरदस्त पिटाई होती जिसमे उपरोक्त वर्णित पिटाई के सभी साधनो का प्रयोग होता था।
हरजीत सिंह
हरजीत सिंह छोटे कद का मजबूत सिख लड़का था और पढाई में अव्वल होने के कारण सभी अध्यापको व प्रिंसिपल का चहेता था। नवदीप, सतविंदर और मैं उसे क्लास मॉनिटर के तौर पर पिछले चार साल से झेल रहे थे। सफलताओ ने उसे बेखोफ बना दिया था वो एक रूलर हाथ में रखता था और मौका मिलने पर किसी भी छात्र पर उसका प्रयोग भी कर देता था। प्रिंसिपल और दुसरे अध्यापको के डर से कोई उसे कुछ नहीं कहता था। हम तीनो की बदनामी उसे हम तीनो से दूर रखती थी, वो कभी भी हमसे उलझने की कोशिश नहीं करता था और हमें भी उसकी कुछ ख़ास परवाह नहीं रहती थी। हर साल हम दुआ करते थे की वो किसी दुसरे सैक्शन में चला जाये, लेकिन बदकिस्मती से वो हमारे ही सैक्शन में आ जाता था।
"भाई लोगो इस का कुछ इलाज है तुम लोगो के पास?" क्लास के एक मरियल से लड़के ने आकर हम तीनो से पूछा।
"भाई; हमने लड़ना बहुत पहले छोड़ दिया है। हम इसका कुछ नहीं कर सकते।" नवदीप ने उसे दो टूक जवाब दे दिया था।
"जिस दिन ये तुम तीनो को मारेगा उस दिन देखेंगे तुमने कितना लड़ना छोड़ दिया है। वो दिन भी आएगा जब तुम तीनो भी पिटोगे।" कहकर वो लड़का चला गया।
"तब की तब देखेंगे।" सतविंदर ने बड़ी उदासीनता के साथ कहा था।
खैर वो हमसे कभी उलझा नहीं और वक़्त गुजरता रहा।
बड़ी नहर और उसकी सहायक छोटी नहरे
सर्दी और गर्मी के इतवार कुछ ज्यादा अलग नहीं होते थे लेकिन सर्दी के इतवार को पुरे दिन क्रिकेट खेला जाता था, जो आम तौर पर अपनी कॉलोनी के लड़को के साथ ही खेला जाता था। जिस इतवार पिताजी घर होते उस दिन पूरे दिन स्कूल के पेंडिंग काम किये जाते।
अप्रैल से सितम्बर तक हर इतवार और दूसरे छुट्टी के दिनों में हम कॉलोनी के सब लड़के नहर में तैरने जाते थे। नहर हमारे शहर से गुजरने वाली तीन छोटी नहरो में से एक थी जो शहर के बाहर से निकलने वाली बड़ी नहर से सिचाई के लिए निकली गयी थी और अलग-अलग रोस्टर के हिसाब से बहती थी। कहने का मतलब उनमे महीने में एक या दो हफ्ते के लिए पानी आता था और हम उनमे खूब तैरते थे। इन छोटी नहरो की चौड़ाई औसत २५ से ३० फिट और गहराई औसतन ६ से १० फिट होती थी जो हमारे तैरने के लिए बिलकुल बढ़िया माप थी। न डूबने का डर न चोट लगने की चिंता ऐसे होते थे वो गर्मियों के इतवार। आज तक समझ नहीं आता की हम सब अपने माता पिता को धोखा देकर तैरने कैसे आ जाते थे?
अब बात बड़ी नहर की, यह यमुना नदी से निकली उन नहरो में से एक थी जो पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कृषि भूमि की सिचाई करती थी। यह औसतन १०० से १३० फिट चौड़ी और १० से २० फिट गहरी होती थी।
बड़ी नहर हमारी कॉलोनी से ५ किलोमीटर से ज्यादा दूर थी लेकिन छोटी नहर में पानी न आने की सूरत में हम बड़ी नहर में तैरने आ जाते थे। हम २० फिट गहरी नहर में तैरते थे? नहीं भाई नहीं, उसमे कूद के जान थोड़े ही देनी थी। वो तो शहर के रईसों और उनके जवान लड़को की ऐशगाह थी, वो सब उसमे रंग बिरंगी रबड़ की हवा भरी ट्यूब ले कर कूद जाते और तैर कर दुसरे किनारे निकल जाते। उनमे से कुछ बहादुर बिना ट्यूब के भी तैरते थे। लेकिन हमारी कॉलोनी के बड़े लड़को ने उसमे किसी का भी तैरना निषिद्ध किया हुआ था, क्योकि उस नहर में हर साल कम से कम तीन-चार लड़के डूब कर मर जाते थे। डूबने वाले सब मंझे हुए तैराक होते थे, लेकिन नहर उनकी बलि ले ही लेती थी। हमारी कॉलोनी के बड़े लड़को ने हमें समझाया हुआ था की नहर में एक जल पिशाच का वास् है जो जरुरत पड़ने पर तैरने वालो को नीच
े पानी में खींच कर डूबा कर मार डालता है। हमें इस किवदंती पर पूरा भरोसा था इसलिए हम बड़ी नहर में कभी नहीं कूदते थे।
इस बड़ी नहर के किनारे एक पनचक्की थी जिसमे, आस-पास के गाँव की औरते गेहू का आटा पीसने आती थी। उस पनचक्की को चलाने के लिए बड़ी नहर से एक छोटी नहर निकाली गयी थी, जिसमे पूरी गर्मियों पानी मिलता था और हम उसी नहर में तैरते थे।
हम थोड़ी देर तैरते थे उसके बाद उन अमीर दुःसाहसी लड़को के कारनामे देख कर अपना मनोरंजन किया करते थे। यही रूटीन हमें हर इतवार बड़ी या छोटी नहर पर ले जाता और हम उस इतवार का पूरा मजा लेते।
मई १९९३
हम तीनो कक्षा ९ पास करके कक्षा १० में आ गए थे। और ग्रीष्म अवकाश से पहले की पढ़ाई शुरू हो चुकी थी। पीरियड खाली था और हम लोग फालतू की बकवास कर समय काट रहे थे।
"यार तुम लोग कभी तैरने क्यों नहीं आते हो? मैंने नवदीप और सतविंदर से पूछा।
"उन गंदे नालो में?" नवदीप ने नाक सिकोड़ते हुए पूछा।
"अबे वो गंदे नाले नहीं है, यमुना नदी का पानी है उनमे।" सतविंदर ने उसकी बात काटते हुए कहा।
"उनमे आदमियो के साथ जानवर भी नहाते है……. है न वो गंदे नाले?" नवदीप अपनी बात पर कायम रहते हुए बोला।
"तुझे तैरना आता है जो बकवास कर रहा है?" मैंने पूछा।
"तैरना? ……. देखा है मैंने तुझे उन छोटी नहरो में तैरते हुए…… बड़ी नहर में तैर के दिखा तो मैं तुझे तैराक मानू।
"तेरे मानने या न मानने से कुछ नहीं होता, मैं बढ़िया या घटिया तैराक हूँ इसका फैसला तो तैराकी का मुकाबला करने के बाद ही हो सकता है; चल करता है मुकाबला?"
हमारी बकवास चल ही रही थी की तभी मेरे बांये कंधे पर एक जोरदार रूलर पड़ा। मैंने उलट कर देखा तो मेरे पीछे आग बबूला हुआ हरजीत सिंह खड़ा था और उसके हाथ में उसका रूलर था।
"डोंट टॉक इन द क्लास।" (क्लास में बात न करो) उसने दोबारा रूलर मेरी तरफ उठाते हुए कहा।
इससे पहले कि अगला रूलर मुझे पड़ता मैंने उठकर हरजीत का हाथ पकड़ लिया और फिर दोनों गुत्थम-गुत्था हो गए। क्लास के दुसरे छात्र इकठे हो गए और तमाशा देखने लगे। तभी मेरे दोनों दोस्त भी लड़ाई में कूद पड़े, मेरी मदद के लिए नहीं बल्कि लड़ाई ख़तम करने ले लिए।
"अबे छोड़ दे……नहीं तो फिर तेरी पिटाई होगी…... ये तेरे पिता जी को फिर से स्कूल में बुलाएँगे…... तू फिर पिटेगा।" कहते हुए उन दोनों ने मुझे हरजीत से अलग कर दिया।
अलग होते ही हरजीत बाहर भाग गया। थोड़ी देर बाद दो चपरासी हम तीनो को पकड़ कर प्रिंसिपल के ऑफिस में ले गए, जिनका मूड किसी बात से ख़राब था।
प्रिंसिपल ने सिर्फ एक सवाल किया, "तुम लोगो ने फिर से क्लास में लड़ाई की?"
और हमारा जवाब मिलने से पहले ही उनकी बेंत ने हम तीनो की धुनाई शुरू कर दी।
पिटने के बाद नवदीप और सतविंदर ने एक स्वर में मुझे कोसा, "अबे तुझे पहले ही रोका था……लेकिन खुद तो पिट गया साथ में हमें भी पिटवा दिया।"
"तुम्हे बीच में घुसने को किसने बोला था? मैं अकेला उस से निपट लेता।"
"भलाई का जमाना नहीं है…...एक तो तुझे बचाया……उलटे हमें ही कोस रहा है।"
"भाड़ में जाओ।" मैंने अपनी चोट को सहलाते हुए कहा।
उसके बाद क्लास में आकर हम तीनो ने हरजीत को कोसा। लेकिन पिटाई का चक्र शुरू हो चुका था। पिता जी ने परम्परागत तरीके से स्कूल और घर पर मेरी पिटाई की। इस बार नवदीप और सतविंदर के पितृजन के सब्र का प्याला छलक गया था इसलिए प्रिंसिपल ऑफिस में वो भी अपने-अपने पितृजन से पिटे। और उन्होंने मुझे एक बार फिर कोसा और दोस्ती खत्म। अगले दिन से वो एक साथ और मैं अलग बैंच पर बैठने लगे। तभी गर्मी की छुट्टियां पड़ गई।
वो इतवार
छुट्टियों का हर दिन इतवार ही था लेकिन फिर भी इतवार का इंतजार रहता था क्योकि उस दिन हमारे पास की नहर में पानी आ सकता था और हम उसमे तैर सकते थे। उस इतवार को भी हम कॉलोनी के सब लड़के नहर पर गए, लेकिन नहर में पानी नहीं था। थोड़ी देर सोचने के बाद सबने बड़ी नहर पर चलने का निर्णय लिया। भरी गर्मी में टहलते हुए बड़ी नहर पर आ गए, रास्ते में किसी ने आम के पेड़ से आम तोड़ लिए, इससे पहले की वो अकेला खाता सबने आम उससे छीन लिए और टुकड़ो में तोड़ कर बाँट कर खा लिए।
नहर पर पंहुचे तो देखा वहाँ ज्यादा भीड़ नहीं थी। छोटी नहर में गिनती के लड़के तैर रहे थे और बड़ी नहर में रंगीन ट्यूब वाले भी कम थे। खैर हमें क्या, हमने लगभग दो घण्टे तैरने का मजा लिया और फिर बड़े लड़को की जिद पर पानी से बाहर निकले।
कपडे पहन कर जब बड़ी नहर के रंगीन ट्यूब वाले एरिया में आये तो देखा वहां तैराकी के मुकाबले की तैयारी हो रही थी। दो लड़के बिना ट्यूब के नदी पर करने के लिए आपस में शर्त लगा रहे थे। उनमे से एक हरजीत सिंह था दूसरा कोई उसकी जान पहचान का था।
हम सब मुकाबला देखने के लिए रुक गए। वो दोनों आपस में पंजाबी में बहस कर रहे थे जिसे सुनने या समझने की हमें जरुरत नहीं थी। लेकिन मैं हरजीत से आँख चुरा रहा था क्योकि मैं नहर पर कोई पंगा नहीं चाहता था।
थोड़ी देर बाद वो दोनों किसी निर्णय पर पहुँच गए और बड़ी नहर में छलांग लगाने वाले किनारे पर पंहुच गए। देखते ही देखते दोनों ने पानी में छलांग लगा दी। दूसरा लड़का थोड़ी देर पानी में रहने के बाद पानी की सतह पर आया और उसने तैरने का उपक्रम शुरू कर दिया। हरजीत अभी पानी की सतह पर नहीं आया था, लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं थी क्योकि कुछ लड़के पानी के नीचे तैरने में पारंगत होते थे और काफी दूर जाकर पानी से बाहर आकर पानी की सतह पर तैरने लगते थे। लेकिन हरजीत सतह पर नहीं आया, उसके साथी को किसी अनहोनी का अंदेशा हो गया था वो चिल्लाते हुए नहर से बाहर आ गया और इस तरह चिल्लाने लगा की कुछ समझ नहीं आ रहा था।
उसकी चिल्लाहट सुनकर कुछ बड़ी उम्र के तैराको ने नहर में कूद कर गोता लगाया और थोड़ी देर बाद पानी की सतह पर आ गए। लेकिन हरजीत का कुछ पता न चला। वो पानी में डूब चूका था।
"उसे जल पिशाच ने डूब दिया।" हममें से एक बड़ा लड़का बोला।
"अब यहाँ कुछ नहीं बचा चलो यहाँ से चलो।" दुसरे बड़े लड़के ने कहा।
और हम सब भारी मन से वापस आ गए।
अगले दिन एक लड़के के नहर में डूब कर मारने की खबर आग की तरह फ़ैल चुकी थी। उसकी लाश कही दूर किसी जाल में फंशी मिली, जो खासतौर पर इसी काम के लिए लगाया गया था। हम कॉलोनी के सब लड़के खामोश रहे और उस सीजन के तैरने जाने के सब प्रोग्राम रद्द कर दिए गए।
उपसंहार
जुलाई में स्कूल खुले, पहले दिन कंडोलेंस कर दी गयी क्योकि स्कूल का एक छात्र डूब कर मर गया था। नवदीप, सतविंदर और मैं फिर इकठे हो गए थे, पुराने मतभेद भुला दिए गए। हरजीत की मौत पर दोनों ने मिली जुली प्रतिक्रिया दी।
"मर गया सा…." उनमे से एक बोला।
"मरे हुए के बारे में गलत नहीं बोलते।" दूसरे ने समझाते हुए कहा था।
इस हादसे के बाद मैं फिर कभी उन नहरो में तैरने गया या नहीं, याद नहीं पड़ता। अगले साल हम तीनो अलग-अलग स्कूल में चले गए और जिंदगी की चूहा दौड़ में शामिल हो हमेशा के लिए बिछड़ गए।
वो एक अलग ही दुनिया थी तब जात-पात और मजहब की दीवारे इतनी ऊँची न थी। सब एक दुसरे से जुड़े रहते और वक़्त पड़ने पर एक दूसरे के काम भी आ जाते थे।
मेरा परिवार पुराना शहर छोड़ कर नए सभ्रांत इलाके में बस गया है, जहाँ कोई एक दुसरे से मतलब नहीं रखता है।
पिछले वर्ष दुर्गा नवरात्र पर घर जाना हुआ, पत्नी और बिटिया के साथ माँ दुर्गा की मिटटी की बनी प्रतिमाये बड़ी नहर में विसर्जित करने गया क्योकि छोटी नहर के किनारे नयी कॉलोनियां डेवेलप हो रही है और बिल्डरों ने उन नहरो को नाले का रूप देकर सीमेंट की सिल्लियो से ढक दिया है।
बड़ी नहर तक शहर की आबादी पंहुच चुकी है। नहर में मटमैला पानी बह रहा था। नहर के छिछले पानी में बहुत सारे लड़के घुसे हुए थे जो पूजा के सामान से अपने मतलब की वस्तुए चुन कर निकाल रहे थे। मैं पतलून को घुटनो तक चढ़ा कर पानी में घुस गया और माँ दुर्गा की प्रतिमा व् पूजा का दूसरा सामान जल में विसर्जित कर दिया। मेरे पीछे - पीछे बिटिया भी पानी में आ गयी थी और बहुत उत्साहित थी। पानी में आने के बाद उसके चेहरे पर शायद वो ही चमक थी जो कभी बचपन वाले इतवार को नहर के पानी में घुसकर मेरे चेहरे पर होती थी।
पत्नी चिंता के साथ हमें पानी से बाहर आने के लिए कह रही थी और हम उसकी पुकार सुनकर पानी से बाहर आ गए।