जीवन की बगिया
जीवन की बगिया
जीवन की बगिया
लेखक: कल्पेश पटेल
एक छोटे से गाँव में, जहाँ आम के ऊँचे पेड़ हवा से बातें करते थे और धूल भरी पगडंडियाँ सूरज की किरणों से चमकती थीं, वहाँ रहता था एक लड़का — रामू।
वह बारह साल का था, बाँस की तरह दुबला, आँखों में सवालों की चमक और दिल में सपनों की आग।
रामू की माँ खेतों में काम करती थी। उसके पिता का देहांत तब हुआ था जब वह बहुत छोटा था।
जीवन उनके साथ कोमल नहीं था — वह उन्हें नुकीले पंजों से थामे रखता, संघर्ष और भूख की राह पर धकेलता।
फिर भी, रामू हर सुबह मुस्कुराता था। उसे लगता था कि सूरज सिर्फ उसी के लिए उगता है।
हर दिन स्कूल जाने से पहले, रामू अपने झोपड़ी के पीछे लगे नींबू के पेड़ से नींबू तोड़कर बेचता।
गाँव के लोग अक्सर उसे चिढ़ाते,
“इतना काम क्यों करता है, रामू? बचपन तो खेलने के लिए होता है!”
रामू बस मुस्कुरा कर कहता,
> “मैं भी खेल रहा हूँ।
> मैं जीवन से खेल रहा हूँ — और मैं जीतूंगा।”
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एक दोपहर, गाँव में ज़ोरदार तूफ़ान आया।
वह नींबू का पेड़ — जो उनकी एकमात्र आमदनी था — जड़ से उखड़ गया।
उसकी शाखाएँ ऐसे टूटीं जैसे काँच की हड्डियाँ हों।
रामू की माँ चुपचाप बैठी रही, आँखें नम थीं, उस टूटे पेड़ को देखती रही।
वही पेड़ उन्हें सालों से भोजन देता आया था।
पहली बार, रामू ने जीवन के पंजों को गहराई से महसूस किया।
वह माँ के पास गया और उसका हाथ थाम लिया।
“माँ… अब क्या?”
माँ ने फीकी मुस्कान दी, “फिर से लगाएंगे।”
लेकिन रामू कुछ और करना चाहता था।
अगले दिन, वह पास के शहर की ओर चल पड़ा।
उसके पास पाँच नींबू थे — अधपके, हरे, आख़िरी बचे हुए।
वह घंटों चला, नंगे पैर, धूल और पसीने से लथपथ।
बाज़ार पहुँचा और एक जूस वाले से बोला,
“चाचा, ये नींबू ले लेंगे?”
विक्रेता ने उन छोटे, चोट खाए नींबुओं को देखा और हँस पड़ा।
“इनसे जूस नहीं बनेगा, बेटा।”
रामू का दिल भारी हो गया, लेकिन उसने हार नहीं मानी।
वह धीरे से बोला,
> “तो मुझे ले लो।
> मैं काम करूँगा। मैं मज़बूत हूँ।”
विक्रेता ठहर गया।
रामू की आँखों में कुछ ऐसा था जो उसे अपने बचपन की याद दिला गया — भूख, संघर्ष, जज़्बा।
“कल आना,” उसने कहा।
“मैं तुम्हें जूस बनाना और ग्राहकों से बात करना सिखाऊँगा।”
रामू का चेहरा सूरज की तरह चमक उठा।
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हर दिन स्कूल के बाद, रामू उस ठेले पर काम करता।
वह नींबू काटना, चीनी घोलना और हर ग्राहक से विनम्रता से बात करना सीख गया।
कुछ हफ़्तों में, उसने थोड़ा-थोड़ा पैसा बचा लिया।
एक शाम, वह माँ के पास लौटा — हाथ में एक छोटा नींबू का पौधा था।
माँ की आँखें भर आईं।
“रामू… तुम पेड़ वापस ले आए?”
रामू ने धीरे से सिर हिलाया और कहा,
> “नहीं माँ।
> मैं उम्मीद वापस ले आया हूँ।”
उन्होंने मिलकर वह पौधा लगाया।
मिट्टी नरम थी।
आसमान देख रहा था।
और जीवन — जो अब भी उन्हें कसकर थामे था — थोड़ा सा कोमल लगने लगा।
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नैतिक संदेश
कभी-कभी जीवन हमें अपने पंजों से थामता है,
हमें चोट पहुँचाने के लिए नहीं,
बल्कि गिरने से बचाने के लिए —
याद दिलाने के लिए कि हम उससे कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं जितना हम सोचते हैं।
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