नीलय की संध्या
नीलय की संध्या
नीलय की संध्या
(एक लघु कथा)
धारमपुर का आसमान आज कुछ अजीब लग रहा था।
ना दिन था, ना रात — बस एक विशाल जलरंग की तरह, गुलाबी से नारंगी में धीरे-धीरे घुलता हुआ।
नीलय पुराने बरगद के पेड़ के पास खड़ा था, उस क्षितिज की ओर देखता जहाँ अभी-अभी
उस चुप्पी के आने से पहले, नीलय की सोच आगे नहीं, पीछे चली गई।
नदी किनारे।
वो दोनों वहाँ बैठे थे, जहाँ पानी फुसफुसाहटों की तरह बहता था।
निलीमा ने अपनी उंगलियाँ पानी में डुबोईं और कहा —
"अगर तुम मुझे कभी भूल जाओ, तो यहाँ आना। नदी सब कुछ याद रखती है।"
नीलय ने कुछ नहीं कहा। बस मुस्कराया — वो मुस्कान जो चाहती है कि समय वहीं ठहर जाए।
उन्होंने गीली रेत में आकृतियाँ बनाई थीं,
ऐसे सपनों की बातें की थीं जो अब उधार जैसे लगते हैं।
एक कागज़ की नाव उनके बीच बह रही थी —
कहीं पहुँचने के लिए नहीं, बस साथ बहने के लिए।
अब, अकेले खड़े नीलय ने उसी नदी को यादों में देखा।
पानी अब भी बह रहा था, पर अब वो फुसफुसा नहीं रहा था।
वो बस बह रहा था — उदासीन।
नीलय झुका, सतह को छुआ,
और एक पल के लिए, वो गर्म लगा —
जैसे उसकी उंगलियाँ अभी-अभी वहाँ से हटी हों।
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ऐसे विदा के बाद एक अजीब सी चुप्पी आती है।
ये चुप्पी बाहर की नहीं होती — ये भीतर की होती है।
नीलय ने उस चुप्पी को अपने अंदर बढ़ते हुए महसूस किया,
जो धीरे-धीरे संध्या की परछाइयों का आकार ले रही थी।
उसे याद आए वो वादे जो उन्होंने नदी किनारे किए थे…
वो खत जो उन्होंने लिखे थे…
वो सपने जो उन्होंने साथ देखे थे।
अब वो सब सूखी धारा में तैरती कागज़ की नावों जैसे थे।
एक हल्की हवा उसके गाल को छू गई —
पहले गर्म, फिर ठंडी।
बस वही एक स्पर्श बचा था —
जो साबित करता था कि वो कभी पास थी।
जैसे ही आखिरी सूरज की किरण ढली,
आसमान गहरा नारंगी हो गया।
बाकी शहर के लिए ये बस एक और सूर्यास्त था।
पर नीलय के लिए, दुनिया दो हिस्सों में बंट गई थी —
इस संध्या से पहले, और इस संध्या के बाद।
और इस संध्या के बाद…
कोई नई सुबह नहीं थी।
निलीमा ने बिना कुछ कहे एक आखिरी सबक छोड़ दिया था —
कुछ अलविदा कहने की ज़रूरत नहीं होती —
उनकी चुप्पी ही ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल देती है।
नीलय तब तक खड़ा रहा जब तक तारे नहीं आ गए,
पर उसने ऊपर नहीं देखा।
उसके ऊपर ब्रह्मांड चमक रहा था,
पर उसके भीतर उसकी खुद की संध्या थी।
ये थी नीलय की संध्या —
एक ऐसी संध्या जो कभी खत्म नहीं होगी।
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