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Kalpesh Patel

Classics

4.5  

Kalpesh Patel

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गुप्त ख़ज़ाना

गुप्त ख़ज़ाना

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गुप्त ख़ज़ाना.


विजयनगर में भोर होने से पहले ही नगाड़े बज उठे, शहनाई की मधुर धुनें गूंजने लगीं। और ऐसा हो भी क्यों न? राजरानी गुणसुंदरी ने आज राजा सुरसेन को वारिस दिया था। पूरा राज्य उत्सव में डूब गया।

सातवें दिन राजगुरु ने जन्मकुंडली बनाई और बालक का नाम रखा — श्रोन। राजा सुरसेन धार्मिक और न्यायप्रिय शासक थे, इसलिए राजकुमार भी जन्म से ही ऐश्वर्य और सुविधा में पला-बढ़ा।

पाँचवें वर्ष जब उसका उपनयन संस्कार हुआ, तब राजा के आग्रह पर राजगुरु ने उसका भविष्य देखा। क्षणभर के लिए उनके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं। राजा ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा:

“राजकुमार के ग्रह अत्यंत शक्तिशाली हैं। वह केवल आपके वंश का değil, पूरे विजयनगर का कल्याण करेगा। परंतु ध्यान रहे—उसे संत-महात्माओं के अधिक संपर्क में न आने देना। नहीं तो वह वैरागी बन जाएगा।”

राजा ने यह सलाह मान ली। महल में ही शिक्षा, शास्त्र, कला और अस्त्र-शस्त्र की उच्च व्यवस्था बनाई गई। सोलह वर्ष की आयु तक श्रोन हर विद्या में प्रवीण हो चुका था। सत्रहवें वर्ष राजा सुरसेन ने राज्यभार उसे सौंपने का निर्णय किया और स्वयं रानी के साथ वनप्रस्थ की ओर जाने की तैयारी शुरू की।

राज्याभिषेक के बाद संगीत का भव्य समारोह चल रहा था। देश-विदेश के संत-महात्मा आकर आशीर्वाद दे रहे थे। उनके उपदेशों ने युवा श्रोन के मन को झकझोर दिया। उसी क्षण उसने निश्चय कर लिया—

“राजपद को त्यागकर साधु बन जाऊँगा।”

विलासी राजकुमार देखते-देखते उपवास करने वाला तपस्वी बन गया। भोजन-पानी छोड़ दिया, राजकाज राजगुरु को सौंप दिया और महल में एकांतवास शुरू कर दिया। इससे उसका स्वास्थ्य गिरने लगा।

राजगुरु चिंतित हुए और उसी संत को फिर बुलवाया।

अगले दिन संत ने श्रोन से पूछा:

“वत्स, सुना है तुम वीणा के अद्भुत वादक हो?”

“हाँ गुरुदेव,” श्रोन बोला, “पर इसका मेरी साधना से क्या संबंध?”

संत मुस्कुराए —
“बताओ, यदि वीणा के तार ज़्यादा कसे हों या ढीले हों, तो क्या वीणा से संगीत निकल सकता है?”

श्रोन तुरंत बोला —
“नहीं प्रभु, दोनों ही स्थितियों में संगीत असंभव है।”

संत की आँखें प्रेम और करुणा से भर उठीं।
“वत्स, जीवन भी वीणा के तार जैसा है। न अधिक कसाव, न अधिक ढील। न तो जीवन से भागने की ज़रूरत है, न उसमें डूब जाने की। वास्तविक साधना संतुलन में है।
फरज़ से मुँह मोड़ना वैराग्य नहीं।
फरज़ निभाते हुए पवित्र जीवन जीना — यही जीवन का सच्चा, गुप्त ख़ज़ाना है।”

संत के वचनों ने श्रोन के हृदय को आलोकित कर दिया। उसने पुनः राज्य का भार अपने हाथ में लिया। और सेवा तथा साधना के संतुलन से उसका जीवन दिव्य संगीत की तरह गूंज उठा।



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