हवा,या वाह
हवा,या वाह
हवा,या वाह.. 😆(व्यंग्य कहानी
लेखक: Kalpesh Patel)
मोहल्ले की गलियों में उस सुबह कुछ अलग ही सरगर्मी थी। चाय की दुकानों पर चर्चा गर्म थी, अख़बारों से ज़्यादा मोबाइल स्क्रीन चमक रही थीं — क्योंकि चतुर ने एक नई गाड़ी खरीदी थी। वो भी इलेक्ट्रिक!
गाड़ी नहीं, जैसे कोई चमचमाता भविष्य मोहल्ले की दहलीज़ पर आ खड़ा हुआ हो। उसकी बॉडी पर सूरज की किरणें ऐसे फिसलतीं जैसे किसी विज्ञान कथा की उड़नचालक मशीन हो। बच्चे उसे देखकर ‘टेस्ला टेस्ला’ चिल्लाते, भले ही वो टेस्ला न हो।
गाड़ी के साथ चतुर भी बदल गया था। अब वो चलते वक्त आवाज़ नहीं करता — न गाड़ी, न आदमी। मोहल्ले के लोग पहले ‘धड़धड़’ सुनकर खिड़की खोलते थे, अब ‘साइलेंस’ में ही सब कुछ हो जाता था।
जब मोहल्ले के बुज़ुर्गों ने देखा कि गाड़ी से न धुआँ निकलता है, न आवाज़ — तो किसी ने धीरे से पूछा,
“पर हवा कहाँ है?”
चतुर मुस्कुराया, जैसे किसी रहस्य का द्वार खोल रहा हो —
“अब हवा भी चार्जिंग स्टेशन से मिलेगी!”
और सच में, उसके घर के बाहर लगे चार्जिंग पॉइंट के पास वो रोज़ खड़ा रहता —
सफेद कुर्ता, आँखें बंद, हाथ पीछे बाँधे — मानो कोई साधु अपनी साधना में लीन हो।
गाड़ी चार्ज होती, और चतुर जैसे आत्मा।
धीरे-धीरे मोहल्ले में पेट्रोल की खुशबू खत्म हुई।
वो पुरानी महक, जो कभी मोहल्ले की पहचान थी — अब गायब थी।
हवा में एक अजीब-सी खामोशी फैल गई।
लोगों की बातें भी बदल गईं —
अब वो ‘माइलेज’ नहीं, ‘रेंज’ पूछते थे।
‘स्टार्ट’ नहीं, ‘स्वाइप’ करते थे।
बातें बिजली की तरह हो गईं — छोटी, झटपट, और कभी-कभी झटका देने वाली।

और फिर एक दिन, जब चतुर की गाड़ी का चार्ज खत्म हुआ —
वो चार्जिंग पॉइंट भी बंद पड़ा था।
गाड़ी खड़ी थी, लेकिन हवा… हवा जैसे कहीं चली गई थी।
अब चतुर हर सुबह अपनी बालकनी से चिल्लाता है —
“वाह कहाँ गई रे हवा?”
उसकी आवाज़ मोहल्ले की दीवारों से टकराती है,
लेकिन जवाब में सिर्फ़ सन्नाटा आता है —
वही सन्नाटा, जो कभी उसकी गाड़ी की साइलेंट मोड में ही बसता था।
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