जीवन डायरी.. 4 अश्लीलता
जीवन डायरी.. 4 अश्लीलता
दो तीन दिन से सोच रही थी कि तुमसे मुलाकात करुँ.. पर समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या बताऊ तुम्हें.. कभी लगा कि मैं बिल्कुल खाली हूँ तो.. कभी दिमाग़ में इतने विचारों का झंझावत चल रहा था...कि किसी विचार को दिमाग के रेडियो की फ़्रिक्वैन्सी पर ट्यून ही नहीं कर पा रही थी..तो पूरा समय सिर्फ़ पढ़ने पर दिया....फ़िर मेरे सामने नारायण गौरवजी की रचना "टूटे पत्ते" आई तो, उसे पढ़ा....तो उसकी नायिका के विचार और मेरे विचारों की फ़्रिक्वैन्सी मैच कर गयी..और दिमाग की पतले गलियारों से होते हुए दिल के दरवाजे पर ठक ठक करने लगी और फ़िर क्या था जी इसके एवज़ में दिल से कुछ शब्द आ गये जिन्हें "शाख से लिपटे पत्ते" के रुप में कलमबद्ध किया... मुझे लगता है कि, उनका शीर्षक भी "शाखों से लिपटे पत्ते" ही होना चाहिए था...वो शाख को छोड़कर...आगे ही तो नहीं बढ़ी। शाख से टूटी ही तो नहीं थी.. फ़िर टूटे पत्ते क्यों??
खैर छोड़िए बात अपनी करते हैं, कहाँ थे अपन...हाँ कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि..कल वाट्स एप पर मेरे ही परिवार के एक ग्रुप पर किसी सदस्य ने अपनी 3 से 4 वर्ष की बेटी का डान्स करते हुए वीडियो शेअर किया, गाना था.."लड़की आँख मारे" ..इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्ची ने बहुत ही सुन्दर नृत्य किया क्योंकि बालसुलभ हरकतें तो कैसी भी हो,अच्छी ही लगती हैं।
पर क्या हमने उन बच्चों के साथ कुछ अच्छा किया ??और तो और मुझे घर परिवार में बच्चों के साथ इस तरह के ...किये जाने वाली मजाक भरी बातें...अरे तुम्हारी गर्लफ़्रेंड कौन है.. या तुम किससे शादी करोगे..अरे किस्सी कैसे देते हैं ..फ़्लॉ फ़्लॉ मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं। मतलब कि आप बच्चे को समय से पहले ही बड़े कर रहे हो..और अब तो मोबाइल और TV भी है, जो उससे भी ज्यादा उनके सामने अश्लीलता परोस रहा है।
आज के बच्चों के लिए सब कुछ जायज है। आज बच्चे के मन में सपने, जिज्ञासा, उत्साह, संवेदनाएँ, कुछ कर गुजरने का स्वप्न नहीं होता .. बल्कि ये होता है कि मेरे पास फ़्लॉ फ़्लॉ ब्रॉन्ड का फ़ोन, कपड़े, क्यों नहीं है।
माँ बाप की क्या तकलीफें है उससे उन्हें कोई सारोकार ही नहीं है,बल्कि उनकी चिन्ताऐं भी अलग सी होती हैं... कि मेरी अभी तक कोई गर्लफ़्रेंड नहीं है, बॉयफ़्रैन्ड नहीं है..वगैरह वगैरह।
इस सब में बच्चों का कोई दोष नहीं है, क्योंकि बच्चे तो कोरी स्लेट है उस पर आप जो लिखोगे वही परिलक्षित होगा। पहले बच्चों के परिपक्व होने कि उम्र 16-17 साल हुआ करती थी..पर आज 8-9 वर्ष हो गई है।
बताइए भला.. ऐसा क्यों है ? जो बातें हम 16 -17 की उम्र तक समझना शुरू करते थे, फ़िर भी उनको लेकर मुखर नहीं होते थे। आज वे बातें हमारे बच्चे बेहिचक 8-9 वर्ष की छोटी आयु में करने लगे हैं.. क्यों?
डॉक्टर,वैज्ञानिक का भी कहना है कि कम उम्र से ही सब कुछ देख सुनकर उनके अंदर समय से पहले ही उनके शरीर में हार्मोनल चेन्जेज आ रहे है, मनोवैज्ञानिक रुप से भी वे बहुत दबाव में जी रहे हैं। आजकल के बच्चे.... बचपना होता क्या है जानते ही नहीं है।
हम बच्चों को समय से पहले ही, सभी गिरहें खोलकर दे रहे है, पर आप ये नहीं सोचते कि....आप उनको जितना खुलापन देंगे, वो उसके आगे की उन्मुक्तता माँगेगे, क्योंकि ये तो जीवन का स्वाभाविक नियम है कि ...जो प्राप्त नहीं उसे प्राप्त करने का जुनून ज्यादा होता है।
पहले हमे नैतिकता का पाठ बिना कुछ कहे....सिर्फ़ हमारे बड़ों की आँखों के इशारे या हावभाव से ही सिखा समझा दी जाती थी...कि क्या करना और क्या नहीं करना है। हम कुछ कह भी नहीं पाते थे क्योंकि उन्हीं बड़ों को हम उनके बड़ों के सामने उन्हीं नियमों का पालन करते देखते थे.. तो बोलने की हिम्मत कभी हुई ही नहीं।
लेकिन आज के बच्चो से आप कुछ कहेंगे तो पलटकर जवाब आयेगा.. क्योंकि वे जो देखेगे वही सीखेगे। उसमें उनकी गलती है ही नहीं क्योंकि हम उन्हें दिखा कुछ और सिखा कुछ रहे हैं...पर अपेक्षा उनसे पुराने नियमों और सम्मान की कर रहे हैं।
आज हम अपने बच्चों से कहते हैं कि हमे कुछ साधन नहीं मिले पर हम तुम्हें सब देगें .... तुम अभावग्रस्त जीवन नहीं जियोगे..l लेकिन उस दौड़ में ये भूल जाते है कि उन अभावों की भी एक भाषा होती थी, जो हमें जीवन के बारे में, बिना कुछ कहे बहुत बड़े बड़े पाठ पढ़ा देती थी।
हम उन्हें अभावों से बचाने में तो लग गए पर ये भूल गए कि बच्चों को सुविधाजनक जीवन के अलावा प्यार, संस्कार, परिवार का साथ, माता-पिता का संयमित व्यवहार, स्वछंदता से भरा खेलना कूदना .... सब कुछ जरुरी है। सबसे ज्यादा जरूरी है, नैतिकता की शिक्षा और उनके अंदर संवेदनाएँ पोषित करना। जो सिर्फ़ और सिर्फ़ ..वे अपने माँ बाप का संयमित व्यवहार और जीवन को देखकर ही सीखते है। चलो ये बात यही खत्म करते हैं... नहीं तो कुछ ज्यादा ही लंबी हो रही है।
आज रथ यात्रा का अवसर है.. पर यहाँ शहर में कुछ पता ही नहीं चलता... यदि कुछ जानना हो सुविधा साधन से पहुँच जाओ मंदिर.. तो कुछ देखलो.. पर जो छोटे कस्बे के लोग हैं वो समझ जाएगे कि त्यौहारो का असली मजा तो वही आता है... बिना कुछ कहे ही सुबह होते ही घर में कुछ विशेष कार्य होते हुए देखकर ही समझ जाते थे कि आज क्या, कौनसा त्यौहार है। वहां की रौनक ही अलग होती है, वो बनते पकवानों की खुशबू, वो उत्साह, वो पूजा पाठ, वो माहौल सबकुछ,...बस आप याद ही करिए..और सारा कुछ एक सौधी सी खुशबू लिए आपके चेहरे पर एक मुस्कान ले आता है कि कभी कभी तो उसके बनने वाले पकवानों का स्वाद भी जीभ पर महसूस हो जाता है.. कि मम्मी क्या बनाती थी। अब चलती हूँ.. फ़िर मिलते हैं..