शालिनी गुप्ता "प्रेमकमल"

Abstract Classics

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शालिनी गुप्ता "प्रेमकमल"

Abstract Classics

दिल के तार

दिल के तार

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जब वह उससे जुड़ी थी तो उसमें ऐसा कुछ भी ना था, जो उसके सपनों के राजकुमार में था। लेकिन वह लड़की थी जानती थी कि विवाह होने के बाद कुछ नहीं बदलता.. तो जो कुछ भी हैं, यहीं है। उसने अपने आप को समझाया कि "सपनों के राजकुमार" सच नहीं होते वह तो स्वप्न टूटने के साथ ही खत्म हो जाते है।

वह उस रिश्ते में हौले हौले खूबसूरती तलाशने लगी। वह अपने दिल के तारों को उससे जोड़ने के लिए रोज एक वजह देने लगी और उससे खुद को जोड़ती हुई उसने एक तारों का जाल बुन लिया। वह हर उस तार के साथ एक प्रतिउत्तर की आशा भी बुनती l

लेकिन वह जितनी आशाओं की उमंग के साथ आगे बढ़ रही थी, वह उससे, उसके किये गये हर प्यार भरे समझौते को, अपना हक समझ, उससे उतने ही कदम दूर होता जा रहा था। वह अपने बुने तारों में ही इस कदर बँधने लगी थी कि उसका साँस लेना मुश्किल होने लगा था l

वह अपने से बँधे हर रिश्ते का ख्याल रखता था उनकी साज-सँभाल करता.. बस उसका ही रिश्ता उसे गैर-जरुरी लगता था।

उसकी संवेदनशून्यता उसे कचोटने लगी थी और धीरे धीरे इस रिश्ते में उसका दम घुटने लगा था। उसे लगने लगा कि वह खत्म ही ना हो जाए और उसने साँस लेने के लिए हाथ पैर मारे तो.. उसने धीरे धीरे अपने बुने हुए उन प्रेम के रेशमी धागों को एक एक कर काटना शुरू कर दिया.. जैसे जैसे वह इनसे मुक्त हो रही थी वैसे वैसे उसकी भावनाएँ शून्य हो रही थी l

समय के साथ जब उसके रिश्तों ने उसे बिसारना शुरू किया तो उसने लड़की की ओर कदमों को बढ़ाया और उसके दिल पर दस्तक देने लगा.. लेकिन तब तक शायद देर हो गई थी.. क्योंकि वह अपने बुने जाल से मुक्त हो गई थी। उसके साथ ही उसका दिल भी कठोर हो गया था.. शायद उसने दिल तक जाने वाले तमाम रास्तों को बंद कर दिया था.. जिससे उस तक उसकी आवाज पहुँच ही नहीं रही थी l

वह अतीत के दर्द की टीस में इस कदर खोयी थी कि उसने अपने चारों तरफ एक अभेद्य किला बना लिया था और अब उस किले को भेदना शायद नामुमकिन था....... क्योंकि एक टूटी हुई स्त्री को तो सँभाला जा सकता है पर टूटकर बिखरी हुई स्त्री को.. नामुमकिन ही है। वह इतनी कठोर हो जाती हैं कि दर्द व भावनायें उस पर काम नहीं करते l


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