शालिनी गुप्ता "प्रेमकमल"

Abstract Inspirational

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शालिनी गुप्ता "प्रेमकमल"

Abstract Inspirational

जीवन डायरी.. 7

जीवन डायरी.. 7

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आज कुछ पढ रही थी तो एक शब्द सामने आया.. जिससे हम सभी का रोज सामना होता है वह है "स्टीरियोटाइप्ड" हिन्दी में कहे तो रूढ़िबद्ध सोच या कहे कि पूर्वाग्रह से ग्रसित लोग l

आज जब देखती हूँ,तो सोचती हूँ कि हम ऐसे क्यों है? हमारी भावनाएँ कह कुछ रही है, पर हम करते तो कुछ और ही है l अमूमन सभी स्टीरियोटाइप है, सब अपने अपने घेरे में कैद है..बस जिए जा रहे हैं l सब बदलने की बातें करते है.. पर जब करने की बात आती हैं तो "वही ढाक के तीन पात" करेंगे वही जो होता आया है l

तुर्रा ये है कि यदि इस पर सवाल उठाया जाए तो कभी दुनियादारी का नाम दिया जाता है या फिर कहेंगे कि यार! मुझे कोई हेडेक नहीं चाहिए..कोई प्रपंच नहीं चाहते थे, सो जो हो रहा था होने दिया..l यार सबका दिल नहीं दुखाना चाहता था l ये तो दुनिया की रीत है, हमारे कहने से कौन! दुनिया बदल जायेगी l अरे यार! सबकी खुशी के लिए करना पड़ता है l यार! मैं नहीं चाहता कि कोई सीन क्रियेट हो l

तुम लड़के हो तो यह नहीं कर सकते, तुम लड़की हो तो ये नहीं करोगी.. अरे आदमी किचन का काम कर रहा था..पक्का जोरु का गुलाम होगा..अरे उसकी औरत पूरा घर चलाती है...पता नहीं ऐसी ही कितनी बातें.. वगैरह वगैरह...l

मतलब कि आप ना चाहते हुए भी..जानते बूझते..कि ये गलत है.... फ़िर भी निभाते चले जाते है l बताइये ऐसा क्यों? और तो और..यदि कोई इस सोच से अलग सोचता है या करता है...तो वही लोग सबसे पहली पंक्ति में खड़े विरोध करते नजर आते हैं, जो सबसे ज्यादा बदलाव की बातें करते दिखते है l

मतलब ये कि पैदा होते ही, हमें इस तरह से पाला जाता है कि ये सोच हमारे वजूद का हिस्सा बन जाती हैं, तुम चाहो या ना चाहो l ये सोच हमारे खून में दौड़ती है, हमारे तन में मन में इस तरह रचाई बसाई जाती है, कि तुम इससे इतर कुछ सोच समझ ही नहीं पाते l कभी इससे अलग, मन सोचना भी चाहे तो हम उसके लिए खुद से ही लड़ जाते है, इसके लिए हमारा अन्तर्द्वन्द ही हमे कचोटता है l

सबसे मजेदार बात कि कभी किसी ने इस मिथ को तोड़ दिया और धमाके के साथ बदलाव किया, तो सब पहले उसके लिए खुशी में तालियाँ बजाएगें, फ़िर सब भेड़चाल की तरह उसके पीछे लग जायेगे..और कहेगे कि परिवर्तन तो संसार का नियम है..समय के साथ बदलना जरूरी है l

स्टीरियोटाइप सोच को स्त्री और पुरुष दोनों ही झेलते है l पर इसका सबसे ज्यादा खामियाज़ा व दुष्परिणाम स्त्री ही भुगतान करती हैं l क्योंकि इस सोच का अधिकतम हिस्सा सामाजिक रुप से स्त्री के खाते में ही आता है l देखा जाए तो डायरेक्टली हो या इनडायरेक्टली सबसे ज्यादा बंदिशें तो स्त्री जीवन में ही होती है l

स्टीरियोटाइप सोच का सबसे बड़ा उदाहरण तो दोनों में ही नजर आता है.. पुरुष अपने इसी सोच के कारण मर्द होने की सोच में कैद व्यवहारिक रुप से मुखर नहीं हो पाता तो वह अपने शारीरिक व्यवहार से जताता है.... तो वही स्त्री भी अपनी सोच के कारण सिर्फ मुखर ही हो पाती है पर जब बात कुछ करने की हो तो छटपटाती रह जाती है l

तुम ये नहीं कर सकते, तुम वह कर सकते हो, पता नहीं ऐसे ही कितने मापदंड बना दिए हैं...जो हर किसी के लिए एक तरह की वर्जनाएँ है l मैं यह नहीं कहती कि नियम या कानून व्यवस्था न हो, ..हो पर बेहतरी के लिए.. ना कि जीवन बाधित और तनावग्रस्त करने के लिए l

दोनों ही इंसान है, तो सिर्फ उन्हें इंसान ही रहने दो न.. किसको क्या करना है, कैसे आगे बढ़ना है.. ये फ़ैसला उनका ही रहने दो l उन्हें भूमिका में क्यों बाँध रहे है.. ये चुनाव उन्हें अपनी सुविधा से करने दो ना.. उन्हें अपनी परिस्थितियों से कैसे जूझना है.. ये फ़ैसला उन्हें ही करने दो l एक यह काम करेगा.. दूसरा ये नहीं कर सकता.. ये प्रश्न क्यों भला बताइए??

अच्छा यही बात खत्म करती हूँ क्योंकि ये विषय ऐसा है कि जितनी भी बातें की जाये कम ही पड़ेगी l इसलिए विराम दे रही हूँ l फ़िर मिलते है....


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