जीवन डायरी 1.. "मृत्यु"
जीवन डायरी 1.. "मृत्यु"
विचारों का ताना बाना इतना उलझा रहा है ना, कि समझ ही नहीं आ रहा कि शुरू कहाँ करूँ और कहाँ खतम। ये विचारों के धागे..एक सिरा पकड़ने जाओ तो दूसरा उलझ जाता है और दूसरे को पकड़े तो तीसरा मुहँ चिढ़ाना शुरू कर देता है। कितना अजीब होता है ना...ये मन.. कितना चंचल...अजीब सी तृष्णा लिए हुए, न भूत देखता है न भविष्य। कभी कुलाचें भरता हुआ भविष्य के दरवाजे पर दस्तक देता है तो कभी छलाँग लगाकर सेकंडो में भूत में प्रस्तुत हो जाता है।
कभी कभी लगता है कि कितना अच्छा हो कि ये मन स्थिर हो जाए...विचार भी स्थिर हो जाए..तो क्या होगा ?? जीवन प्रायः क्या होगा..जड़ अर्थात मृत्यु..l मृत्यु है क्या.... सभी बंधनो से मुक्ति मसलन मष्तिक में किसी भी प्रकार के कोई भी प्रश्न, कोई भी उत्तर शेष ना बचना मतलब कि निर्वात.. सम्पूर्ण रुप से खाली या कहे मोक्ष..जो भी हो विचारविहीन,
नीरव, चिरनिंद्रा में लीन,अनंत शान्ति का पथ जिसे शायद हम मृत्यु कहते हैं। जाते जाते ही सही कितनी गाँठे खोलती हुई जाती हैं ये ने मृत्यु.. मोह के, देह के, जीवन के, और सारी जिम्मेदारी के.. पता नहीं कितनी गाँठे, जो हम अपने आप से बाँधे फ़िरते है।
अब आप सोच रही होगी कि मैं कैसी बातें कर रहूँ हूँ.. वो क्या है कि अभी जैसा समय चल रहा है ना.. सभी तरफ़ से बुरी बुरी खबरें ही सुनने मिल रही हैं। हमारे परिवार में भी बहुत सी मृत्यु हुई है.. तो वही सब घूम रहा है।
कितना अजीब होता है ना ये हमारा देह का संसार...अबूझ, रहस्यमयी सा....कितनी बातें, कितनी यादें भावनाएं हमारे दिमाग और हमारे मन की किन कंदराओ में छिपी रहती हैं। धँसी रहती है कही बहुत गहराई में.. और फ़िर ना जाने अचानक से कब, कैसे एकदम से सामने आ खड़ी होती हैं। बस आप कोई विचार का पीछा करो..और देखो..आपकी आँखो के सामने उससे जुड़ी अनगिनत भावनाएं, यादें और चित्र अवतरित हो जाते हैं, जैसे कि इन्तजार ही कर रहे थे।
ऐसे ही आज, यह "मृत्यु" शब्द मुझे ना जाने क्यों, बहुत वर्ष पीछे ले गया....जब पहली बार....मृत्यु होती क्या है, जाना था मैंने। बहुत छोटी थी मैं, उम्र तो याद नहीं, अन्दाजे से बता दूँ, यही कही रही होंगी मैं 10 या 11 वर्ष की। हमारे भाई एक तोता लेकर आए थे, कही से हम उसे मिट्ठू कहते थे। जैसे ही वह आया तो घर के हर सदस्य का प्रिय शगल होता था उसको नयी नयी बातें रटवाना उसे खाना खिलाना और हमेशा हम इसी कोशिश में रहते कि वो किसकी ज्यादा सुनता है। हमारे घर बहुत से मिट्ठू आये पर..ये पहला था।
हमारे घर जितने भी मिट्ठू आए, सभी हमारे मिजाज की तरह ही थे, कोई बंदिश नहीं। मतलब की हम सभी भाई बहन कहानी और कल्पना की दुनिया में ज्यादा रहते थे शायद या ये हमारे घर के संस्कार थे कि हम उसे पालतु तो बनाना चाहते थे, पर हमारी दिली इच्छा और कोशिश यही रहती कि वो आजाद भी रहे और हमारा बनकर भी रहे... खासकर मेरे बड़े भाई। इसलिए हमारे घर के सारे मिट्ठू सिर्फ़ रात में ही पिंजरे में रहते थे नहीं तो बाकि समय वो घर में ही उड़ते फ़िरते थे या तो इस हाथ या उस हाथ।
ये हमारा पहला मिट्ठू था बनिस्बत मेरे लिए तो था शायद। बहुत ज्यादा याद नहीं पर वह ज्यादा वक्त नहीं रहा हमारे पास। जहाँ तक मुझे याद है गर्मी का समय था और हम सभी छत पर सोया करते थे। मैं घर में सबसे छोटी थी तो, आप समझ सकते हैं कि जान बसती थी उसमें हमारी इसलिए उसकी हर नयी हरकत पर नजर रहती थी मेरी।
दिन में देखा कि उसको उल्टी हो गई जैसे ही उसने कुछ खाया तो, मैं दौड़कर मम्मी के पास गयी तो...दादी बोली गर्मी है ज्यादा खा लिया होगा तो पलट दिया होगा.. लेकिन शाम तक देखा कि उसको दस्त भी लग रहे थे और वो ना उड़ रहा था, ना ही चल रहा था, और ना ही डान्स कर रहा था जैसा रोज करता था। उसकी आँखें बंद हो रही थी... जब मैंने उसे ऐसे देखा तो मुझे ना..उसे ऐसे देखकर ऐसा लग रहा था कि तकलीफ़ उसे हो रही थी पर उसका दर्द मुझे हो रहा था। मैं बहुत घबरा रही थी..वो अचानक गिर गया खड़ा ही नहीं हो रहा था.. मुझे याद है मैं रोये जा रही थी, सारे घर के लोग उसके पास ही थे, भैया उसे डॉक्टर के पास भी ले गए थे,हम छोटे से कस्बे में रहते थे, तो जानवरों वाला डॉक्टर नहीं था तो जो साधारण हमारे डॉक्टर होते है उन्हें दिखाया तो उन्होने कहा कि डिहाइड्रेशन हो गया है तो उसे एक एक बूँद पानी पिलाना.. कुछ दवा भी दी थी। हम उसे छत पर ले गए थे और हम तीनो रो रहे थे, मैं, सन्जु भैया और पिंकी दी...शायद हम इस सच्चाई को समझने के लिए "अभी छोटे थे" लेकिन बाकि "सब बड़े थे" तो समझ गए थे कि अब वह नहीं बचेगा इसलिए बाकि सब ने जो प्रयास करने थे, कर लिए थे.....तो हमे छोड़ सभी अपने अपने काम में लग गए।
मुझे अभी भी याद है कि भैया उसको चम्मच से पानी पिला रहे थे और मैं और दीदी एक दूसरे का हाथ पकड़े उसकी एक एक साँस पर नजर थी और पूरी आस के साथ गायत्री मंत्र कर रहे थे कि सब ठीक हो जाएगा.. हमारे आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वह बिल्कुल भी हरकत नहीं कर रहा था ,उसकी आँखे अधखुली ..वो निश्चेत पड़ा था.. बस उसकी चोंच खुली हुई थी और उसकी जीभ लगातार हिल रही थी.. जिससे हमे पता चल रहा था कि वो..वो ठीक हो जाएगा.. या कह सकते है कि यकीं बना हुआ था कि साँस चल रही है उसकी..
लेकिन शनै: शनै: उसकी साँसे मध्यम पड़ रही थी और हम पथराई सी आँखो से उसे तड़पते हुए तिल तिलकर मृत्यु की ओर प्रस्थान करते हुए देख रहे थे।
इसी तरह शाम 6 बजे से रात के 11बज गये ..हाँ शायद 11 या 11.30 का टाईम था उसने अपनी आखिरी साँस ली, उसकी जीभ ने हिलना बंद कर दिया था। पर हम थोड़ी देर तक आँखो को फ़ाडे उसे देखते रहे आखिरी उम्मीद में कि अभी हिलेगी उसकी जीभ... पर हम जानते हुए भी मानना नहीं चाहते थे। हम रो रहे थे...वह चला गया था।
मैंने पहली बार "मर जाना" का मतलब समझा था..जिसे सिर्फ़ किताबों कहानियों में पढ़ा या सुना था आज उसे खुली आँखों से देखा और समझा था। किसी जीवन्त को मृत प्रायः होते देखा था।
वह हमारी जिंदगी में रोज शामिल था, जरूरत था हमारी.. पर महत्वपूर्ण नहीं था उतना। रोज हमारे इर्दगिर्द ही तो था, समय बिताते थे उसके साथ, पर परवाह नहीं थी.. पर जैसे ही उससे दूर होने का एहसास मात्र से ही.. इतनी पीड़ा हो रही थी कि बता भी ना पा रहे थे। उसके जाने के बाद तो अपराध बोध से घिर गए थे.. सब से ज्यादा मैं.. कई दिनों तक छ्त पर जाकर रोई.. उस जगह पर.. जैसे कहना चाहती थी.. कि माफ़ कर दो, मै सच में प्यार करती थी तुमसे.. नजरअन्दाज नहीं किया तुम्हें। पर "छोटी थी ना" अब कुछ नहीं कर सकती थी।
दादा और बड़ीबाई ने बहुत समझाया और समझदार भी हो गई मैं.."एक कदम बड़ी" हो गई थी मैं। फ़िर दो तीन मिट्ठू और आए और वे भी "चले गये" पर उनके जाने की इतनी तकलीफ नहीं हुई...उन्हें बिल्ली खा गई थी...दर्द नहीं हुआ फ़िर..क्यों ?? क्योंकि "मैं बड़ी हो गई थी ना"....समझ आ गया था कि...हम जो कर सकते हैं वो किया, जिसको जाना था वो चला गया...क्या कर सकते हैं। बहाने भी आने लगे थे अपने आप को समझाने के !!
कितना अजीब था ना कि जिसके जाने पर मैं इतना व्यथित थी,मुझे उसके ना होने से तकलीफ़ हो रही थी,लेकिन आज मेरी यादों में, उसके साथ बिताए हुए पलों को याद करती हूँ तो ज्यादा कुछ याद नहीं आता सिर्फ़ उसके "जाने" की याद के अलावा।
आज सोचती हूँ तो लगता है कि क्यो मेरे जेहन में उसकी कोई याद नहीं है , बल्कि मेरे घर में उसके बाद बहुत से मिट्ठू आये और उनकी बहुत सी यादें भी है.. पर उसकी क्यों नहीं है...बस उसके "जाने" का क्षण ही क्यों मेरे ह्रदय में धँसा हुआ है।
शायद इसलिए कि .....उस दिन मैंने पहली बार आँखो के सामने "मृत्यु" को घटित होते देखा था और शनै: शनै: उसे काल के गाल में समाते देख रहे थे। या फिर चाहते हुए भी छटपटा के रह गए...कुछ नहीं कर पाए और बेबस होना किसे कहते है ,उस दिन समझ आया इसलिए?? या शायद दोनों !! उस दिन 'परवाह' का मतलब समझा था..इसलिए सभी मिट्ठू की यादें थी ..मेरे जेहन में।
मैंने कहानियों के लोभ में बचपन से ही कई आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ी है, उसकी कई गूढ बातें मुझे समझ नहीं आती थी, पर उस दिन मैंने शायद पहली बार जीवन का एक बड़ा सत्य जाना था, "मृत्यु" का साक्षात्कार किया था।
एक दो बार तो मैं स्वयं भी मृत्यु के द्वार को खटखटाकर वापिस आ चुकी हूँ , तो "जीना" क्या होता है थोड़ा बहुत जानने लगी हूँ।
पर आज भी ये मृत्यु शब्द मुझे बहुत डराता है। कभी कभी सोचती हूँ कि "मृत्यु" जीवन की शुरुआत का बिंदु है या अंत का है। इससे जुड़े इतने प्रश्न है कि.....................