इयत्ता
इयत्ता
मनीषा जब लिखने की मेज पर बैठी तो उसके दीमाग में सिर्फ एक ही शब्द बारबार चक्कर काट रहा था। इयत्ता ! पहले भी कहीं सुना था इयत्ता, इयत्ता पर कुछ याद नहीं आ रहा है, शायद बचपन में। इसी विषय पर आज निबंध लिखकर ले जाना है उसे स्कूल में। शिक्षिका जी ने कहा कि सर्वश्रेष्ठ निबंध को कक्षा पुरस्कृत की जाएगी। उसकी हिन्दी काफी अच्छी है, लिखती भी वह अच्छी है।
"इयत्ता यानी कि सीमा, हद, परिमाण, गणपूर्ति अर्थात् कोरम।"शब्दकोश के पन्ने पलटते हुए मनीषा बुदबुदाने लगी।
किसी एक विषय को चुनना था। उस तेरह वर्ष की लड़की ने आखिरकार सीमा या हद को चुना। हद यानी मर्यादा, औरत की मर्यादा, हाँ इस विषय पर वह बहुत कुछ लिख सकती है ।
सुबह से रात तक चारों तरफ यही तो सुनने को मिलता है, लड़कियों को ऐसे नहीं उठना चाहिए, इस तरह नहीं बैठना चाहिए, सलीके से रहो वरना स्त्री की मर्यादा भंग हो जाएगी ! मर्यादा, क्या वह केवल स्त्रियों के लिए हैं ? उसके भाई टीटू को तो कभी कोई ऐसी बातें नहीं कहता ? तो क्या सारे नियम उसी के लिए बने है ? यह विषमता, यह दोहरापन ,उसके छोटे से दिमाग में नहीं घुसता ! उसका रोम-रोम बगावत करना चाहता है।
दादी से एक बार उसने पूछा भी था" पापा क्यों भाई की गलती होने पर मुझे मारते हैं ?"
दादी का जवाब सांत्वना देने के बजाय उसके दिल को और तोड़ दिया था" बेटा, लड़कियों को सहनशील होना ही चाहिए। ससुराल में जो लड़की झुककर रहती है , वही जीती है।"
"फिर माॅ क्यों जिन्दा नहीं है आज? उसने तो सदैव सहा है। दादी का ताना, पापा की मार, कभी एक आवाज न निकाली थी। चुपचाप इसी दुनिया से वह चली गई।" वह पूछना चाहती थी। आपनी माॅ की धुंधली धुंधली सी याद उसे होने लगती है।
फिर एक ही झटके से उसे सबकुछ याद आ जाता है !
"इयत्ता," पापा ने कहा था उसदिन।
जिस दिन उसकी माँ उसे हमेशा से छोड़कर चली गई थी, उस दिन माँ और पापा का भयंकर झगड़ा हुआ था।
पापा का रौद्र रूप उससे देखा न गया था और वह भागकर दादी के कमरे में चली गई थी।
पापा-माँ से चीखकर बोले थे, " औरत हो, अपनी इयत्ता में रहो।"
फिर एक जोरदार आवाज और सबकुछ शांत हो गया था !
उसदिन वह वहाँ कमरे में होती तो शायद माँ को बचा सकती थी।
पर वह डर गई थी, बुरी तरह से। सिर्फ चार साल की तो थी वह !