इतिहास का निर्माण
इतिहास का निर्माण
कुछ मानते हैं कि इतिहास शक्तिशालियों की कलम से लिखा गया है। जो शक्तिशाली थे, उन्होंने खुद के हिसाब से इतिहास लिखबा दिया। फिर अनेकों नायक खलनायक बन गये। अनेकों खलनायक इसीलिये नायक बन गये क्योंकि वे शक्तिशाली थे। अंत में जीत उन्हीं की हुई।
लगता है कि जीतने के लिये शक्ति अपरिहार्य है। बिना शक्ति के भला कौन इतिहास रच पाया है।
अथवा कुछ सिद्धांत जीत और हार की दिशा तय करते हैं। उचित उद्देश्यों के लिये किये जाते रण शक्ति होने पर भी जीत को निश्चित नहीं करते। जब भी शक्ति के मद में मतबाले होकर सिद्धांतों को तिलांजलि दी गयी है, उस समय परिणाम अप्रत्याशित रहे हैं।
इतिहास लिखा जाता है तब किसी की हार या जीत का कारण शक्ति को माना गया। कम शक्तिशाली की विजय का कारण भी उसकी योजना माना गया। इतिहास को रचने बाले अनेकों कारण इतिहास की पुस्तकों से ही गायब हो गये।
ऐसे अनेकों गुमनाम गाथाएं अथवा किंवदितियां आज भी कहती हैं कि जब शक्ति के गुमान में किसी ने भी मानवता को तिलांजलि दी, उसका परिणाम कभी अच्छा नहीं रहा। पाप से वैर करने बाले धर्म प्रवर्तक भी पापी से वैर न करने की ही शिक्षा देते हैं।
क्या संभव है कि पूरी की पूरी कौम ही बेकार हो। क्या संभव है कि उच्च आदर्शों की स्थापना में किसी कौम से इतनी नफरत की जाये कि मानवता ही चीख उठे।
भारत माता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी थी। निश्चित ही अधिकांश अंग्रेज प्रभुता के मद में चूर थे। भारतीयों के प्रति उत्तम व्यवहार भी नहीं करते थे।
अधिकांश का अर्थ सभी तो कभी नहीं होता। अनेकों अंग्रेज उदार मन के थे। हालांकि माना जाता है कि उनका उद्देश्य भी ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार ही था। फिर भी ईसा ने कब हिंसा का समर्थन किया था।
कानपुर में ऐसे ही ईसाई धर्म प्रचारक के घर में एक भारतीय विधवा आया के रूप में रहती थी। खुद के पुत्र के साथ अंग्रेज मालिक के पुत्र की देखभाल करती थी। समाजिक वैमन्यसता जैसी कोई बात न थी। एक ही घर में दो विभिन्न धर्म के अनुयायी रहते थे। दोनों की उपासना पद्यति, विचार धारा, रहन सहन में बहुत अंतर था।
यदि मानवता ही वास्तविक धर्म है तो दोनों ही एक ही धर्म के अनुयायी थे। दोनों ही मानव धर्म के उपासक थे।फिर कोई समस्या न थी।
सन १८५७ का विद्रोह आरंभ हो चुका था। कानपुर भारतीयों के अधिकार में आ चुका था। केवल अत्याचार का विरोध करना हमेशा हिंदुओं की पहचान रही है। कानपुर के नरेश नाना साहब ने शांति के साथ अंग्रेजों को शहर छोड़ देने का फरमान जारी कर दिया। निश्चित ही शांति से कोई भी शहर में रह सकता है। परिवर्तन सत्ता का होना चाहिये। किसी समुदाय विशेष को अस्वीकार कर देने के पीछे क्या कारण रहा। लगता है कि मन में कुछ तो वैमन्यसता रही होगी। आखिर अंग्रेजों से अत्याचार भी इतने ज्यादा किये थे। किसी समुदाय के कुछ लोगों की करनी का फल अनेकों बार पूरे समुदाय को भुगतना पड़ता है।
अभी उचित या अनुचित का प्रश्न नहीं था। शांति से नगर छोड़ देने की घोषणा ही बड़ी बात थी। अनेकों अंग्रेज परिवार जिनमें से अधिकांश सैनिक नहीं थे, चुपचाप सुरक्षित स्थानों के लिये जा रहे थे। पर जा नहीं पाये।
भीड़ का कोई कानून नहीं होता है। भीड़ बहुधा नैत्रत्वहीन हो जाती है। उसपर भी उन्मुक्त भीड़ पर तो किसी का हुक्म नहीं चलता है। भीड़ केवल अपने मन के आदेश मानती है। फिर अनेकों बार नैत्रत्व का अनुशासन भी खतरे में पड़ जाता है।
उस दिन नाना साहब का निर्देश भारतीय सैनिक भूल गये। नफरत से भरे वह अंग्रेजी समुदाय के पूरे खात्मे के लिये तैयार बैठे थे। शांति से नगर छोड़कर अपने प्राण बचाने को तत्पर उन अंग्रेजों के समुदाय में भगदड़ मच गयी। भारतीय सैनिक उन्हें ढूंढ ढूंढकर मार रहे थे। स्त्री और बच्चों को भी चुन चुनकर मौत के घाट उतारा जा रहा था।
हिंदू विधवा के सीने से दो बच्चे चिपके हुए थे। एक खुद उसका पुत्र और दूसरा वह अंग्रेज बच्चा जिसकी देखभाल के लिये उसे रखा गया था।
" इस अंग्रेज लड़के को हमें सोंप दों। हमारी तलवार इसके खून की प्यासी है। अपने बच्चे को लेकर खुद चली जाओ। तुम तो भारतीय हो। फिर अंग्रेज बच्चे को क्यो बचा रही हो।"
भीड़ से इसी तरह के स्वर निकले। पर वह विधवा उस बच्चे को छोड़ने को तैयार न हुई।उसकी हुंकार उन्मुक्त भारतीय सैनिकों को चेता रही थी। पर उस हुंकार को सुनने बाला कोई न था। मारो, काटो, कोई जाने न पाये की ध्वनि में उस विधवा स्त्री के परामर्श को सुनने बाला ही कौन था।
" रुको। बंद करो यह सब। हम भारतीयों को यह शोभा नहीं देता। इनमें से कोई भी सैनिक नहीं है। अधिकांश धर्म गुरु और उनका परिवार ही है। भारत आजाद होना चाहिये। भारत की आजादी का प्रतिउत्तर करने बाले सैनिकों से युद्ध भी होना चाहिये। पर इस तरह पशुता के पर्याय मत बनो। निरपराध लोगों और उनमें भी स्त्रियों और बच्चों के खून से अपनी तलवारों को मत रंगिये। इन्हें निकल जाने दीजिये। "
संभव है कि भीड़ में कुछ के मन ने उन्हें फटकारा हो। कुछ अपने आप से घृणा करने लगे हों। पर सत्य तो यही है कि मन की आवाज को सुनना व्यक्ति का काम होता है। भीड़ कभी भी व्यक्ति नहीं होती है। जब मन में कोई गलत करने का इरादा कर लिया हो फिर कभी भी सच बात समझ नहीं आती। सच बोलने बाला शत्रु लगता है। धर्म की बात करने बाला अधर्मी और कायर लगने लगता है।
उस विधवा भारतीय महिला की बात सुनने बाला कोई नहीं था। उन्माद की लहर से उस अंग्रेज बच्चे को बचाते बचाते वह भारतीय महिला भारतीय सैनिकों के हाथों ही शहीद हो गयी। मरते मरते उस महिला की भविष्यवाणी बाद में सही सिद्ध हुई।
" सिद्धांतों को तिलांजलि देकर इतिहास नहीं बदलता। विजय की राह पर वही चलता है जो कि सिद्धांतों को अपना हथियार बनाता है। भारत की आजादी की लड़ाई अब मानवता के खिलाफ हो चली है। मानवता के खिलाफ कोई भी जंग कभी कामयाबी की राह नहीं पकड़ती है। इतिहास बदलने की चाह रखने बालों , इस बार तो इतिहास नहीं बदलेगा। आखिर इस बार आपने मानवता को ही शर्मशार कर दिया है। नहीं इतिहास नहीं बदलेगा। यह गदर असफल रहेगा। "
१८५७ का वह गदर असफल रहा। उस असफलता के कारणों की बाद तक समीक्षा होती रही। पर उस गदर का अचानक मानवता के खिलाफ हो जाना भी एक कारण था , यह इतिहास की पुस्तकों में लिखने से रह गया।
ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर।
