मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Romance Tragedy

4.6  

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Romance Tragedy

इन्तज़ार 

इन्तज़ार 

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303


बीते पल, यादों का वह खज़ाना है। जो कभी खाली नहीं होता। यादें जैसे-जैसे पुरानी होती जातीं हैं। शहद की तरह उनकी मिठास भी बढ़ती जाती है। वैसे भी प्यार की भीनी-भीनी खुशबू उसके अहसास को ज़िन्दगी भर ज़िन्दा रखती है। चाहे वो यादें बन कर सही उसके साथ ही क्यों न हों। अगर उसकी कुछ निशानियाँ कुछ तोहफे भी मौजूद हों तो, हमेशा उन पलों की याद दिलाते रहते हैं।

चित्रा आज लॉक डाउन के खाली समय में शोकेस में रखी अपनी चीज़ों की सफाई कर रही थी। तमाम ट्रॉफियां, शील्ड और गिफ्ट आइटम एक के बाद एक करीने से जमाती जा रही थी। तभी उसकी नज़र शील्ड के पीछे की तरफ एक कोने में रखे खूबसूरत से छोटे से डिब्बे पर पड़ी। उसने उसे उठाया और साफ़ किया। वह अच्छी तरह जानती थी उसमें क्या है। फिर उसने खोला तो दो इमोजी अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए गोलमटोल उसके हाथ में थे। दोनों हाथों में लिए इन इमोजी के चेहरे को अपने सामने कर बेख्याली में उनसे बातें करने लगी।

आज भी इसकी स्माइलिंग वैसे ही थी। जैसी शुभम का मुस्कुराता हुआ चेहरा उसके रूबरू हो और चुपके से सबसे छुपकर ये गिफ्ट देते कह रहा हो।

"चित्रा, तुम अभी सब के सामने नहीं, घर पर जाकर खोलना इसे ... "

कॉलेज का बिदाई समारोह होता तो बड़ा भव्य है। लेकिन ये जश्न अपने दोस्तों की बहुत खट्टी-मीठी यादें अपने पीछे छोड़ जाता है। वक़्त का झोंका कुछ हल्की-फुल्की यादों को अपने साथ उड़ा ले जाता है। लेकिन भारी-भरकम यादें तो दिल से इतनी आसानी से जुदा नहीं हो पातीं। अभी कुछ साल पुरानी ही तो बात है। लेकिन लगता है सदियां गुज़र गई हों।

शुभम और तमाम दोस्त टेक्निकल इंस्टिट्यूट के बिदाई समारोह में इसी तरह सांस्कृतिक कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब नम आँखों से बिदा हुए तो सबके हाथों में अपने दोस्तों के लिए कुछ न कुछ गिफ्ट था। 

शुभम और चित्रा की स्कूलिंग और कॉलेज एक साथ ही हुआ। उसका कारण उन दोनों के पापा एक ही ऑफिस के कम्पाउड में रहते थे। 

बचपन से तितलियों के पीछे भागते-भागते स्कूल की बसों को पकड़ने लगे। एक साथ, एक क्लास, एक साथ होम वर्क करना। एक साथ प्रोजेक्ट बनाते हुए बड़े-बड़े सपने देखने लगे।  

समय का पहिया भी घूमता रहा लेकिन इत्तिफ़ाक़ भी उनका साथ निभाता रहा। कॉउन्सिलिंग में कॉलेज भी, इत्तेफ़ाक़ से एक ही मिला। बिल्कुल फिल्मी अंदाज़ की कहानी भी चलती रही।

एक दिन कॉलेज में सबकी नज़रों को चुराकर शुभम की बाइक का हैंडल एकान्त पार्क की तरफ घूम गया। 

अरे शुभम, हम कहाँ जा रहे हैं ? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए ?

कहीं नहीं, डरो नहीं। मैँ तुम्हें ऐसी-वैसी जगह थोड़ी न ले जाऊँगा। 

अरे घर चलो न ... । मम्मी वेट करेंगी। 

मैं ने मेरी मम्मी को मेसेज कर दिया है। हम लोग थोड़ा लेट हो जाएंगे। 

जब गाड़ी एकांत पार्क के मैन गेट पर रुकी तो चित्रा को अपने आस-पास और भी कपल घूमते दिखाई दिए, जो एकांत की तलाश में थे।  उसे समझते देर न लगी कि शुभम के दिल में कोई न कोई खिचड़ी ज़रूर पक रही है। 

बहुत देर तक पार्क में खामोशी से चहल क़दमी करने के बाद एक घने पेड़ की छाया में बैठ गए। 

चित्रा जानती हो हम यहाँ क्यों आए हैं ?

हाँ, अच्छे से। तुम्हें भी अब सबकी हवा लग चुकी है। 

नहीं चित्रा, अब ऐसा लगता है तुम, यूँ ही एकांत में मेरे पास बैठी रहो। 

पागल मत बनो ! शुभम, हम अच्छे दोस्त हैं और रहेंगे। 

नहीं चित्रा,एक बार तुम मेरी आँखों को ध्यान से देखो इसमें तुम्हारा चित्र बनता है कि नहीं ?

अरे, उसका बनना तो स्वाभाविक है। लेंस जो लगा हैं उसमें। चित्रा ने जैसे ही कहा दोनों ठहाके से हंस दिये। 

चित्रा ने उसकी आँखों में अपनी तस्वीर के साथ रेटिना के बजाय शुभम के दिल पर बनी अपनी इमेज भी देख ली थी। जो आज इमोजी के रूप में उसके सामने थी। 

अब शुभम और चित्रा अपने दोस्तों और घर वालों की नज़रें बचा कर यूँ ही मिलते रहे। धीरे-धीरे प्यार भी परवान चढ़ रहा था। जवां दिलों की धड़कनें एक साथ धड़कने को बैचैन थीं। 

लेकिन नियति भी कब तक, इत्तिफ़ाक़ को इत्तिफ़ाक़ ही बनाती रहती। अब की बार कैम्पस ने दोनों को अलग कर दिया। शुभम को पूना की सॉफ्ट वेयर कंपनी मिली तो चित्रा को बैंग्लोर 

अभी तीन माह ही हुए थे की चित्रा को कंपनी ने यूएस भेज दिया। हालाँकि दोस्ती में दूरी कोई मायने नहीं रखती। लेकिन हालात बदलते भी तो देर नहीं लगती। शुभम की मम्मी का अचानक कैंसर की बीमारी के बाद इन्तिकाल हो गया। एकलोता बेटा होने के कारण घर में कोई दूसरी औरत भी नहीं थी। पापा भी बीमार रहने लगे। और अंत में शुभम को शादी से समझौता करना पड़ा। 

चित्रा हमेशा इन्तिज़ार करने को कहती रही। लेकिन ये इन्तिज़ार फिर कभी ख़त्म न हुआ। 

आज चित्रा के प्यार की निशानी इमोजी ही तो थी। कहीं भी जाती। अपने सामान के साथ रखना न भूलती। आज उन्ही को सम्बोधित कर कह रही थी।  

काश ! शुभम तुम मेरा इन्तज़ार कर लेते।   


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