ईश्वर प्रेम
ईश्वर प्रेम
एक थे फक्कड़ थे। इसी फक्कड़ता के कारण उनका नाम पड़ गया ठन-ठन गोपाल। पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था। एक बेटी थी अत्यंत सुंदर। उसका विवाह नगर के एक बहुत अमीर लेकिन लालची के घर हुआ था। उसके पिता की फक्कड़ी देखते हुए उनसे न लड़की को मिलने देते न खुद उनसे मेल-जोल रखते थे।
ठन-ठन गोपाल जहाँ बैठते वहीं भजन कीर्तन में रम जाते। किसी ने कुछ दे दिया खा लिया नहीं तो फाके के तो वे आदी ही हो चुके थे। एक बार कोई आदमी वहाँ से गुजरा उसने फक्कड़ को पहचानते हुए कहा कल हमें तुम्हारी बेटी के यहाँ से बुलावा आया है आपके नाती का चौक है। आपको भी बुलाया होगा। उन्होंने कहा नहीं बुलाया तो क्या हुआ मेरी बेटी है बुलावे की क्या जरूरत है।
वे उठे और गाते बजाते बेटी के घर की ओर चल पड़े। वे विष्णु जी और लक्ष्मी जी के परम भक्त थे। विष्णु जी ने जब देखा मेरा प्यारा भक्त बिना मान-सम्मान, भूख-प्यास और थकान की चिंता किये बड़ी ख़ुशी से चला जा रहा है तब उनको चिन्ता हुई। उन्होंने किसान और उसकी पत्नी का वेश बनाया और कुएँ पर बैठ गए। जब ठन-ठन गोपाल पहुँचे तो उससे हाल चाल और डगर पूछी और कहा कि हमें भी उसी गाँव जाना है। पहले पानी पी लो और खाना खा लो फिर चलते हैं बैलगाड़ी से। जब वे भोजन खा चुके तो वहाँ से गाड़ी से प्रस्थान किया।
जब उस गाँव पहुँचे तो बेटी के नौकर अपनी गाड़ी पर लेने के लिए तैयार खड़े थे। वे सब गोपाल जी के पैरों में बिछने को तैयार थे। गोपाल जी को सम्मान से लाए। जब वे घर के द्वार पहुँचे तो घर के सब लोग उनको ससम्मान आँगन में ले आए। और कहने लगे इतना देने की क्या जरूरत थी अंदर बैठने का स्थान नहीं है तभी तो आपको भी बाहर बिठाया है। ठन-ठन गोपाल तो ठन-ठन गोपाल थे समझ नहीं पा रहे थे। सोचने लगे मैं तो कुछ नहीं लाया हैरान थे। कुछ दिन रुकने के बाद वहाँ से रवाना हो गए। पर उन्हें पता न था कि भगवान अपने भक्त को शर्मिंदा कैसे करते। उन्होंने कई गाड़ियाँ धन-दौलत की बेटी के घर भिजवा दी थीं।
भगवान किसी भी रूप में सरल हृदय की सहायता करते हैं। किसी के सामने हमें लज्नजित हीं होने देते। ईश्वर ही है जो निस्वार्थ भाव से स्नेह करते हैं।
