हयग्रीव अवतार की कथा
हयग्रीव अवतार की कथा
एक बार की बात है, समस्त देवों को यज्ञ करना था तब वह समस्त देव प्रधान देवताओं को लेकर क्षिर सागर में भगवान नारायण के समीप गए परन्तु वहां पर भगवान विष्णु धनुष पर सोए हुए थे। तब यह देख देवराज इंद्र ने प्रधान देवताओ से कहा - " हम तो यहां यज्ञ करने के लिए श्री नारायण को लेने आए थे परन्तु वह तो इस समय सोए हुए है, अब हम इन्हें निंद्रा से कैसे जगाए ?" इस प्रश्न का उत्तर मात्र आप ही दे सकते है।
देवेंद्र की बात सुनकर भगवान शिव और भगवान ब्रह्मा ने विचार कर एक कीड़ा उत्तपन करा और उससे धनुष की ताँत को काटने को कहा जिससे भगवान नारायण जाग जाएंगे। परन्तु उस कीड़े ने मना कर दिया और कहा कि जब तक मेरा कोई निजी कार्य सिद्ध नहीं होगा तब तक मैं आपका कार्य सिद्ध नहीं करूँगा। तब ब्रह्मा जी ने कहा - " हम लोग तुम्हें यज्ञ में भाग दिया करेंगे। तब कीड़े ने धनुष की प्रत्यंचा को खा लिया जिससे धनुष में से भारी गर्जना
उत्पन्न हुयी जो त्रिलोक में सुनाई दी।
वह इतनी भयंकर गर्जना थी जिससे समस्त देव डर गए और विचार में पड़ गए थे कि अब क्या करा जाए क्योंकि इस प्रकार की ध्वनि अवश्य किसी न किसी अमंगल का संकेत है। समस्त देव यह सोच ही रहे थे कि तभी भगवान नारायण का कमल के समान सुंदर मस्तक भगवान के शरीर से अलग होकर कहीं हवा में उड़ गया।
सभी देवता चिंतित हो गए तब ब्रह्मा जी ने सभी को भगवती ब्रह्मस्वरूपिणी माता जगदम्बा की आराधना करने के लिए कहा और ब्रह्मा जी माता की स्तुति करते हुए कहने लगे - " हे देवी ! तुम्हारा नाम ब्रह्माविद्या भी हैं। सब प्राणी तुम्हारी ही संतान है। त्रिलोकी में चर और अचर जितने प्राणी हैं सब में तुम विराजमान हो। तुम्हारे सनातनी अंगों का साक्षात्कार होना कठिन है। तुम भगवती महामाया संपूर्ण कर्मों को सिद्ध कर देती हो अतः वेद भी तुम्हारी स्तुति करते हैं।
वेद स्तुति करते हुए कहते है - देवी ! आप वहां माया है। जगत् की सृष्टि करना आपका स्वभाव है। आप कल्याण में विग्रह धारण करने वाले एवं प्राकृतिक गुणों से रहित है। अखिल जगत आपका शासन मानता है तथा भगवान शंकर के आप मनोरथ पूर्ण किया करती हैं। माता आपको नमस्कार हैं। संपूर्ण प्राणियों का आश्रय देने के लिए आप पृथ्वी स्वरूपा है। प्राण धारियों के प्राण भी आप ही हैं। श्री, कांति, क्षमा, शांति, श्रद्धा, मेधा, धृति और स्मृति सब आपके नाम है। ओंकार में जो अर्थ मात्रा है वह आपका रूप है। इस समय श्री हरि मस्तक हीन हो गए हैं। यह बात महान आश्चर्य जनक एवं साथ ही असीम दुखदाई भी सिद्ध हो रही हैं। अब हम नहीं जान सकते कि आप जन्म मरण के बंधन को काटने में समर्थ होते हुए भी श्री विष्णु के मस्तक को जोड़ने में विलंब क्यों कर रही हैं। देवी ! कृपा कर आप हमें दर्शन दे।
वेदों की स्तुति से मां भगवती जगदंबा प्रसन्न हुई और देवों के सामने प्रकट हुए और भगवती ने समस्त देवो को अपना आशीर्वाद दिया और कहां - " देवों ! तुमने जो मेरी स्तुति करी है उससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूं और तुम्हारे समक्ष प्रकट हूं। मैं जानती हूं कि तुमने मेरा आवाहन क्यों करा है मैं तुम्हें भगवान विष्णु के मस्तक छिन्न जाने का कारण सुनाती हूं ध्यान से सुनो -
एक समय की बात है भगवान श्री विष्णु लक्ष्मी के साथ एकांत में विराजमान थे। लक्ष्मी जी के मनोहर मुख को देखकर भगवान नारायण को हंसी आ गई। लक्ष्मी ने समझा हो ना हो भगवान विष्णु की दृष्टि में मेरा मुख कुरूप सिद्ध हो चुका है। मुझे पता है इन्हें मुझे देखकर हंसी आ गई क्योंकि बिना कारण उनका यू हंसना बिल्कुल असंभव है फिर तो महालक्ष्मी को क्रोध आ गया सात्विक स्वभावशाली होने पर भी वह तमोगुण से आविष्ट हो गई । श्री महालक्ष्मी के शरीर में भयंकर तामसी शक्ति का जो प्रवेश हुआ उसका भी प्रणाम वस्तुतः देवताओं का कार्य सिद्ध करना था अत्यंत व्याकुल होकर लक्ष्मी जी के मुंह से निकल गया- तुम्हारा यह मस्तक गिर जाए। इससे इस समय इनका मस्तक समुद्र में लह रहा है।
आगे देवी कहती है - देवों ! भगवान विष्णु का मस्तक गिरने के पीछे तुम्हारा भी स्वार्थ है क्योंकि एक दानव जिसका नाम हयग्रीव है उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर मेरी तपस्या करी है। वह १००० वर्षों तक मेरी तपस्या करता रहा फिर मैंने उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा तब हयग्रीव ने मुझसे अमरता का वरदान मांगा परन्तु मैंने सृष्टि के नियमों का पालन करते हुए उसे वरदान नहीं दिया तब उसने मुझसे वरदान मांगा की हयग्रीव की मृत्यु हयग्रीव के हाथों ही हो अतः भगवान विष्णु का सर अब घोड़े का सर हो जाएगा जिसके परिणाम स्वरूप वह भी हयग्रीव बन जाएंगे और वह हयग्रीव का वध करेंगे।"
देवी की आज्ञानुसार भगवान ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के धड़ पर घोड़े का सर लगा दिया तब भगवान विष्णु ने दानव हयग्रीव का वध किया।