हॉस्टल
हॉस्टल
घर से १२३३ कि.मी दूर उस अजनबी शहर में हॉस्टल की उस उजाड़ इमारत को देख कर मैं बहुत निराश था। जॉब के लिए मैं ३ महीने की ट्रेनिंग के लिए उस शहर में था और रहने के लिए उस शहर में मेरे लिए और कोई विकल्प नहीं था। ट्रैनिंग इंस्टिट्यूट हॉस्टल से कुछ दूर था इसलिए फटाफट रूम अलॉट कराया और मैस में खाना खाकर इंस्टिट्यूट चला आया।
रूम नंबर १३
रूम नंबर १३ मुझे अलॉट हुआ था और उस रूम में मेरे अतिरिक्त ५ ट्रेंनी और भी थे। सबको एक बेड, टेबल चेयर और एक-एक अलमारी अलॉट थी। हम छह ट्रेनीज ने सबसे लास्ट में ट्रेनिंग ज्वाइन की थी इसलिए हमें हॉस्टल का सबसे बदनाम रूम नंबर १३ अलॉट हुआ था। बाकी ट्रेनीज ने उस रूम के अतिरिक्त अन्य रूम अलॉट करा लिए थे क्योंकि उन्हें हॉस्टल के स्टाफ ने बता दिया था की उस रूम में कोई नहीं रहना चाहता था क्योंकि १० साल पहले उस रूम में रह रहे ३ ट्रेनीज ने फाँसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी।
इस सच्चाई को जानकर हम बहुत परेशान हुए लेकिन और कोई विकल्प न होने के कारण उस रूम में रहते रहे। जल्द ही हम लोगों में आपसी मतभेद होने लगे, नौबत झगड़े तक की आने लगी। लेकिन हम सब ने इस सब पर विचार करके तय किया की आपस में झगड़ना नहीं है और अवसर मिलते ही इस रूम से छुटकारा पाना है।
रूम नंबर ३२
और वो अवसर हमे जल्दी ही मिला। हमसे कुछ पहले जो बैच था उसकी ट्रेनिंग समाप्त हुई तो हमारे रूम से कुछ दूर उसी फ्लोर पर खाली हुए रूम नंबर ३२ पर हमने कब्ज़ा कर अपने नाम अलॉट करा लिया।
वो भयानक रात
दीवाली की छुट्टियों में मेरे रूम मेट अपने-अपने घर चलने लगे तो सबने मुझे उनके साथ चलने को कहा लेकिन मैं पढ़ाई के बहाने रुक गया। बाद में पता लगा कि ५०० ट्रेनीज में से केवल ३ ट्रेनीज हॉस्टल में बचे थे। हम तीनों अलग-अलग फ्लोर पर अलग-अलग रूम्स में रह रहे थे। हमारा सामना सिर्फ लंच या डिनर के वक़्त होता फिर सब अपने-अपने रूम्स में चले जाते।
दीवाली से अगली रात मैं खाना खा कर जल्दी सो गया और रात को अजीब सी बेचैनी से मेरी आँख खुल गयी और मुझे लगा मेरा बदन हिल नहीं पा रहा था, ऐसा पहले भी हो चुका था इसलिए मैं उस जकड़न के जाने का इंतजार करने लगा। तभी मेरा ध्यान गया रूम के तीन कोनों पर तीन साये थे, बिना आकार बिना चेहरे के। मेरा शरीर पसीने से डूब गया और जैसे मैं उस जकड़न से आज़ाद हुआ मैंने अपने बिस्तर से दरवाज़े की और छलांग लगाई और दरवाज़ा खोल कर बाहर भागा, सारा हॉस्टल अंधेरे में डूबा था, मैं नंगे पाँव दौड़ रहा था लेकिन हॉस्टल का गेट बहुत दूर लग रहा था। लेकिन मैं कैसे न कैसे दौड़ कर हॉस्टल से बाहर निकल गया और हॉस्टल से लगे रेलवे स्टेशन के उजाले में जा पहुंचा। जब स्टेशन पर पहुंचा मैं बुरी तरह काँप रहा था।
मेरी हालत देख कर कुछ यात्री मेरी और देखने लगे, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं। मैंने रात स्टेशन पर गुजारी और सुबह ८ बजे दिन अच्छे से निकल जाने के बाद मैं हॉस्टल के मैस गया। वहाँ सब मुझे देख कर हक्के-बक्के थे, सबको मेरा रूम खुला देख कर मुझे रूम में न पाकर हैरानी थी। थोड़ी देर बाद वार्डन भी आ गया और मेरी बात पर उसे कोई आश्चर्य न हुआ और झाड़-फूंक की बात करके मुझे समझाना चाहा, लेकिन अब दुनिया की कोई ताकत मुझे उस हॉस्टल में नहीं रोक सकती थी और हुआ भी यही मैंने बाकी ट्रेनिंग एक फॅमिली का पेइंग गेस्ट बनकर पूरी की।
आज भी उस भयानक रात को याद करके मेरे रोंगटे खड़े हो जाते है। वो सब क्या था मैं समझ आज तक समझ नहीं पाया, कौन थे वो साये? क्या ये सब मेरे बेचैन मन का वहम मात्र था?