हँसू गूंगा
हँसू गूंगा


दो बेटियों के पश्चात घर में रुदन की आवाज़ सुनते ही माँ-बाप के मुख से अकस्मात् निकला अरे दाई मां ! यह तो सुंदर, गोरा-चिट्टा, गोल-मटोल एकदम से हंस की तरह सफेद है। अत: माता-पिता दोनों ने बड़े प्यार से उसका नाम हंसराज रखा ।प्यार से वे उसे हँसू कहने लगें। लेकिन प्रकृति की विडंबना हँसू जन्म से गूंगा-बहरा तो था हीं, दिमागी तौर पर भी थोड़ा कमजोर था।माँ-बाप उसका पालन-पोषण बड़े प्यार तथा यत्न से करने लगें । लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। हँसू अभी तीन साल का हुआ कि उसकी माँ अचानक चल बसी।उसकी देखभाल का जिम्मा बड़ी बहनों तथा परिजनों पर आ पड़ा । ढंग से देखभाल ना होने के कारण हँसू मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गया । वह जब-तब अपने कपड़े फाड़ने लगा, उल्टी-सीधी हरकतें करने लगा तथा ज्यादातर नंगा बाहर गलियों में घूमने लगा। नादान बच्चें उसे हँसू गूंगा-हँसू गूंगा कह कर चिढ़ाने लगें। उसका नाम ही हँसू गूंगा पड़ गया। बच्चें उसे चिढ़ाते तो वह उनके पीछे पत्थर के टुकड़े मारने के दौड़ता। बच्चें बड़े खुश हो जाते, भागो-भागो पागल हँसू गूंगा पीछे पड़ गया हैं। वे उसे एक गली से दूसरी गली तक दौड़ा-दौड़ा कर बड़े खुश हो जाते।
धीरे-धीरे हँसू गूंगा बड़ा हो गया। उसमें किशोरावस्था के लक्षण उभरने लगें ।घर वाले उसके नंगेपन से परेशान थे। अतः वे उसे घुटनों तक लंबा कुर्ता पहनाने लगें। उसके हमउम्र बच्चें अपना-अपना कैरियर बनाने में व्यस्त हो गए। लेकिन गली के छोटे-छोटे बच्चों तथा हँसू गूंगा का वहीं पत्थर वाला
क्रम अभी भी जारी था । इन दिनों हँसू गूंगे में एक अजीब सा परिवर्तन देखने को मिला । वह सुबह से शाम तक घर के आसपास की तीन-चार गलियों में घूम-घूम कर कंकर, पत्थर तथा कूड़ा बीन कर अपने झोलेनुमा कुर्ते में भरता तथा उसे बड़े सलीके से एक कोने में लगा देता।अगर किसी व्यक्ति या लारी द्वारा सड़क पर कुछ कूड़ा फेंकते देखता तो वह दौड़ कर हीं-हीं करके उस कूड़े को उठा लाता तथा उसी कोने में सलीके से लगा देता। कंकर,पत्थरों की चोट खाए, फटे हुए कुर्ते में कूड़ा बीनने का उसका यह क्रम सुबह से साँझ तक बदस्तूर जारी रहता और लोगों का अट्हास लगा कर हँसने का सिलसिला, हँसू गूंगे के होते गलियों में किसी जमादार की जरूरत नहीं है। अगर वह किसी को कूड़ा फेंकते देखेगा तो ऐसे घूरेगा जैसे सड़कें उसके बाप ने बनवाई हैं।
सुबह-सुबह दूध वाले ने बताया कि हँसू गूंगा उसी कोने में मृत पड़ा है, जहाँ वह रोज कूड़े का ढेर लगाया करता था। उत्सुकतावश मैं अपने-आप को रोक न सकी और लुढ़कते आँसूओं को रोक कर उसे देखने चल पड़ी। उसका चेहरा बहुत मासूम लग रहा था तथा शरीर निर्जीव हो चुका था। उसका एक हाथ सड़क की तरफ तथा एक कूड़े के ढे़र की तरफ फैला था। जो शायद उस पर अट्हास लगाने वालों को कह रहे थे, यह सड़कें ना मेरे बाप की है, ना आप के बाप की। यह तो हम सबकी हैं। इसे साफ सुथरा रखना हमारा कर्तव्य हैं।
उसके दोनों तरफ फैले हाथ, शायद सफाई अभियान में अपने आधे-अधूरे छोड़े कार्य को पूरा करने की गुहार लगा रहे हो।