विडंबना
विडंबना


उस दीन-हीन याचक की बढ़ी हुई दाढ़ी-मूंछ, मैले-कुचेले कपड़े उसकी दरिद्रता की गवाही दे रहे थे। दो-ढाई साल की बच्ची को प्रैम में बैठाकर शहर की सबसे व्यस्ततम सड़क पर बने माल, शोरूम, रेस्टोरेंट और मिष्ठान भंडार पर खरीददारी एवं खाने का लुफ्त उठाने वाली भीड़ के आगे याचक मुद्रा में हाथ फैलाकर भीख मांग रहा था। लोग भी सड़क किनारे गाड़ी पार्क करके अपनी हैसियत एवं श्रद्धा के अनुसार नोट पकड़ा रहे थे। उनमें से एकाध खुद्दार उसे घुड़ककर कमाकर खाने की नसीहत दे देता और दो-चार बिना दिए चुपके से बाईपास हो जाते। उन्हें वह कनखियों से ऐसे घूरता जैसे बख्शीश लेना उसका मौलिक अधिकार हो। वेद प्रकाश का साहित्यिक मन उसकी दयनीय स्थिति पर कुछ लिखने के लिए हिचकोले भरने लगा और वह गाड़ी में बैठे-बैठे ही उसकी फोटो खींचने लग गया।
उसे देखकर भिखारी मंद मंद मुस्कुराने लगा। वेदप्रकाश ने भी कैमरे के एंगल को अलग-अलग पोज में घुमा दिया। जैसे ही उसने चलने के लिए गाड़ी को गति दी, भिखारी ने हाथ से खिड़की के शीशे पर ठक-ठक किया। जरा सा शीशा खुलते ही वह बोला, “आपने मेरी फोटो खींची है, मैंने आपकी गाड़ी का नंबर नोट कर लिया है। कुछ किया तो खैर. ..।”
भयभीत वेद प्रकाश ने पूरा वाक्य सुने बिना ही गाड़ी की गति को रफ्तार दे दिया। उस दिन से वेद प्रकाश और कलम दोनों सदमे में हैं। गाड़ी की नंबर प्लेट बदले या उसे बेच दे। बेफिक्र भिखारी अभी भी मजे से वहीं पर अपनी दयनीय स्थिति को भुना रहा है।