Archana kochar Sugandha

Tragedy

4  

Archana kochar Sugandha

Tragedy

कशमकश

कशमकश

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बँटवारे के पश्चात जन्मभूमि पीछे छूट गई थी। कर्म भूमि से अपनी जन्मभूमि को हसरत से निहारते-निहारते अनवरत चलते परमजीत के कदमों को पता ही नहीं चला कि कब उसके मदहोश कदम एलओसी को पार कर चुके थे। जब उसे होश आया तब उसने स्वयं हथियारधारी जवानों के बीच में घिरा हुआ पाया। जो बड़ी मुस्तैदी से उस पर बंदूकें ताने उसे "दुश्मन देश के खुफिया एजेंट" का दर्जा देकर अपने विश्वास को पुख्ता कर रहे थे। लेकिन पूछताछ में उसके द्वारा नकारने पर उनकी शारीरिक यातना के साथ-साथ मानसिक प्रताड़ना भी जारी थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे यह इंसान न होकर कोई हैवान हो।  

लेकिन जख्मी बदन से रिसता परमजीत का लहू जन्मभूमि के ललाट को छूकर उसके तन-बदन में समाहित हो रहा था। उसके लहू से सनी पाक-पुनीत मिट्टी की महक परमजीत के नथुनों में घुल रही थी। जो उसके आनन्द की अनुभूति को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाकर साँसों की गति को गतिमान बनाए रखने में बड़ी मददगार सिद्ध हो रही थी। 


जन्मभूमि अगर प्राण हर भी ले तो उसे कोई गम नहीं था, अपितु वह स्वयं को धन्य समझेगा। लेकिन अपने दामन पर लगा तगमा "दुश्मन देश का खुफिया एजेंट" की तोहमत के साथ मरना उसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं था। इसलिए उसकी बुरी तरह घायल सांसें मौत से बड़ी बहादुरी से लड़ रही थी। 


जिस कोठरी में उसे रखा गया था वहाँ एक मंद रोशनी का बल्ब जल रहा था। जिसका प्रकाश लालटेन की रोशनी से भी कम था। रात्रि का तीसरा पर था। बाहर घुप्प अँधेरा था। चारों तरफ सन्नाटा पसरा था। पहरेदारी में जुटे जवानों की बंदूके तो उसकी तरफ तनी थी लेकिन वह नींद से ऊँघ रहे थे। दर्द में दुखते परमजीत के बदन को निंदिया रानी भी सहला नहीं पाई और आँखों से कोसो दूर हो गई। 


तभी सन्नाटे को चीरती दरवाजे पर हल्के से हाथों की थाप ने उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करके उसके अंदर एक नवशक्ति का संचार कर गई। जख्मों की परवाह किए बिना वह फुर्ती से उठा और सांकल खोलकर बाहर आ गया। वहाँ सिर से पाँव तक लबादे से ढका एक साया खड़ा था। गहन अँधकार के कारण जिसे पहचाना अत्यंत कठिन था।  वह चलने लगा, शायद उसके हाव-भाव उसे उसका अनुसरण करने का इशारा कर रहे थे। अतः वह भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा। उसे पता ही नहीं चला कैसे उसके पैरों में इतनी ऊर्जा का संचार हो गया कि वह उसके तेज कदमों की गति के साथ अपनी गति मिलाने लगा। एकाध बार उसने दबी जुबान में उस मसीहा के बारे में जानने की कोशिश की लेकिन उसकी खामोशी से ऐसा लगा जैसे वह बेजुबान साया हो। पर नीरवता को चीरती उसके धड़कनों की आवाज़ें उसके जिंदा इंसान होने का सबूत पेश कर रही थी। 


तभी दूर से चमकती लाइटों को देखकर, वह खाँस-खखार में अपना परिचय देकर वापस मुड़ गया। "अरे! यह तो अपना बचपन का लंगोटिया यार सलमान हैं। "


वह उसे रोक कर बचपन की गाढ़ी दोस्ती को जी भर कर गले लगाना चाहता था। लेकिन उसका उल्टा हिलता हुआ हाथ कह रहा था, "दोस्त, तुम्हारी तो यह केवल जन्मभूमि है, पर मेरी जन्म और कर्म भूमि दोनों हैं।" 


फिर परमजीत ने भी स्वयं को अपनी कर्मभूमि पर सवालों के घेरे में घिरा हुआ पाया।



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