हम - तुम, पता - लापता !
हम - तुम, पता - लापता !


" दुआएँ दीजिए बीमार के तबस्सुम को, हमको तो मुस्कुराए जमाना गुजर गया ! " शेर ओ शायरी के शौकीन स्वाती के पापा आज जाने किस मूड में थे !........ " या अल्लाह ! ये कैसे दिन आ गए ? चीन से उपजी इस बीमारी या महामारी ने तो ऐसा कुछ कर दिया है मानो ऊँचे - ऊँचे शिखर और उस पर कंगूरे सोने के अपने भूशायी होने के दिन ही गिनने लगे हैं ! अरे, यह सरासर कुदरत का कहर या सियासत की चाल बनाकर बनकर दुनिया पर आ गिरा है । हे अल्लाह, रहम करो...रहम करो ..! "
अपने आप से बुदबुदाते जा रहे थे स्वाती के पापा। इस बार होली के बाद से ही सब लोग इस अनागत आपदा से जूझ रहे थे लेकिन स्वाती के पापा यानी मिस्टर रामरती गुप्ता को तो इस कोरोना काल ने रुला ही दिया था। उन्हें तो एक बार ऐसा भी लगा था कि स्वाती के हाथों में लगी मेंहदी अभी सूखने भी नहीं पाई थी कि ऊपर वाले ने एक और अजीब परेशानी में सभी को डाल दिया। ..क्या स्वाती अब कभी भी घर नहीं लौटेगी ?...यह एक यक्ष प्रश्न आ खड़ा हुआ था ! उनके ज़हन में एक - एक लम्हा फ्लैश बैक की तरह उभरने लगा।
मुम्बई .....। ढेर सारे युवाओं के सपनों का शहर ! साफ्टवेयर ,आँफिस , बिजनेस या कल कारखानों में कामकाज का अपार संसार। तीस वर्ष का रमेश चौहान इन्हीं भीड़ में शुमार युवा था जिसकी अभी - अभी शादी हुई थी। स्वाती को लेकर हनीमून जाने वाला ही था कि कोरोना की आपदा आ पड़ी। स्वाती मन मसोस कर रह गई ..कितने - कितने सपने पाल रखे थे उसने ? यहाँ तक कि अभी तो उसने विदाई के कई सूटकेस के कपड़े तक नहीं खोले थे।
"रमेश, प्लीज़ आज कुछ करो।" स्वाती ने रमेश को फिर से याद दिलाया।
आँफिस जा रहा रमेश अचकचा कर खड़ा हो गया। बोला - " स्वाती डार्लिंग ! तुम बात क्यों नहीं समझती हो ? इस कोरोना ने तो लाक डाउन की ऐसी झड़ी लगा रखी है कि ऑफिस का तो पता नहीं कि चलता रहेगा या कब बंद हो जाएगा ! ऐसे में कौन सी ट्रेवेल एजेंसी रिस्क लेगी ? ...नो ....नो... ईट इज़ इम्पासिबिल डार्लिंग ..!" अंतिम शब्द उसने जोर देकर बोला था जो स्वाती को अच्छा नहीं लगा।
रमेश ऑफ़िस के लिए निकल चुका था।
अगली सुबह पूरे भारत में लाक डाउन लगाए जाने की घोषणा हो गई। स्कूल बंद, कोर्ट - कचहरी बंद, रेल, हवाई जहाज और बसें बंद और सड़क पर मानो कर्फ्यू ! रमेश के ऑफिस ने वर्क फ्राम होम कर दिया था । ऐसे में अब तो मुम्बई रुकने का कोई मक़सद नहीं था।... लेकिन जाएँ तो जाएँ कहाँ ? पूरे एक महीने घर की चहारदीवारी में रहते - रहते युगल दम्पति का सारा हनीमूनी उत्साह रफू चक्कर हो गया था । टी.वी. और रेडियो पर कोरोना से होने वाली मौतें डरावना संदेश छोड़ जाया करती थीं।
ऐसी ही एक मनहूस सुबह में मई के पहले हफ्ते में रेडियो पर समाचार आया कि सरकार कुछ स्पेशल ट्रेनें चलाने जा रही हैं। औरों के साथ - साथ स्वाती के लिए भी यह राहत भरी खबर थी। उसने तुरंत घर वापसी का अपना प्रस्ताव रमेश के सामने रख दिया।
रमेश के पास भी यही विकल्प था कि हनीमून ना सही , बीबी को कम से कम उसके जल्द ही छूटे मायका तो घूमा लाया जाय ! लेकिन सरकार ने कोरोना के चलते अब ढेर सारी शर्तें भी लगा रखी थीं। अस्पताल से जाकर अपनी सेहत का सर्टिफिकेट लाओ ,तय समय से एक घंटा पहले स्टेशन पर आकर जांच कराओ और फिर जाकर ट्रेन की सवारी करो ! ....कितनी- कितनी तो भागदौड़ करनी पड़ी तब जाकर उसे वसई - गोरखपुर स्पेशल ट्रेन का रिजर्वेशन मिल पाया।
शाम के 6 बजते बजते वे अब खुशी - खुशी दोनों ट्रेन में सवार हो चुके थे ।
यह भी अजीब संयोग कि मानो रेलवे वालों को भी इस युगल पर प्यार उमड़ आया था कि उसने ऐ.सी. के दो बर्थ वाले बंद पोर्शन में इन्हें बर्थ मुहैय्या करा दी थी । रमेश की आँखों में तो चमक ही आ गई थी और उसने हौले से स्वाती की लचकदार कमर में चुटकी काटते हुए कहा-
" डार्लिंग ! आज की रात हनीमून की मच अवेटेड रंगीन रात के नाम होगी। "
स्वाती ने भी झूठी शरम दिखाते अपनी तिरछी नज़रों से बाण चला दिए थे। मानो उसने भी अपनी मौन स्वीकृति दे डाली थी।
पश्चिम रेलवे की यह ट्रेन अब अपने गंतव्य के लिए चल चुकी थी और टी.टी .टिकट चेक करके जा चुका था। रमेश ने लपक कर डिब्बे के दरवाज़े को बंद किया। अब दोनों की आँखों में शरारत छलक - छलक पड़ रही थी ! रमेश ने अपने बैग से 8 पी.एम.की बोतल और दो खूबसूरत गिलासें निकाल लीं। साथ में एक बड़े पैकेट क्रिप्सी चिप्स का निकाला। ......और सज गई महफ़िल उन दो जवान धडकनों की। पहले तो स्वाती ने ना नुकुर किया लेकिन मौके को देखते हुए उसने भी बड़े प्यार से बनाए गए पेग को अपने होठों से लगा ही लिया। उधर मानो मेजमान बनकर रमेश अपना सारा प्यार उड़ेल देना चाह रहा था और अब यह उसका तीसरा पेग था । शराब जब अपना असर दिखाने लगी तो रमेश का शायराना अंदाज़ भी रंग चढ़ने लगा।
" इस वक्त यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है ,
महताब , न सूरज , न अन्धेरा , न सवेरा
आँखों के दरीजों में किसी हुस्न की झलकन ,
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा। "
शेर पढ़ने के बाद डगमगाती आवाज़ में रमेश बोल पडा - " डार्लिंग , जानती हो ये शेर किसका है ?...." और फिर स्वाती के उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर ही बोला...... जनाब फैज़ ..जनाब फैज़ ! स्वाती भी अब पूरे उन्माद में थी। दोनों एक दूसरे की साँसों की धड़कनें गिनने को बेताब हो उठे। स्वाती उतावले हो रहे रमेश को डिनर के लिए जब तक पूछे तब तक रमेश ने स्वाती को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया था।
"डार्लिंग तुम भी तो सुनाओ .. वो .... वो.... अपनी " मधुशाला " वाली लाइनें ......हाथों में आने से पहले ........क्या है .."रमेश ने स्वाती को आगे की पंक्तियाँ पढने के लिए उकसाया।
स्वाती भी मूड में थी और उसने " बच्चन " की " मधुशाला " की कई लाइनें सुनानी शुरू कर दी !
" हाथों में आने से पहले ,नाज़ दिखाएगा प्याला।
अधरों पर आने से पहले , अदा दिखायेगी हाला।
बहुतेरे इनकार करेगा ,साकी आने से पहले ,
पथिक, न घबरा जाना , पहले ,मान करेगी मधुशाला। "
यात्रा की वह रात मानो इस युगल के लिए हनीमून की सुहाग रात बनकर आई हो। ट्रेन की गति और प्यार के उमंग की गति में ताल मेल बनने लगा था। कब कौन स्टेशन आया ..चला गया इसकी न तो रमेश को परवाह थी और ना स्वाती को ! चुम्बन ,मर्दन और बाहुपाशी आचरण से घबराते हुए स्वाती ने रमेश को याद दिलाया कि वह कवच तो धारण कर ले। रमेश ने शराब के नशे में पराकाष्ठा पर पहुँच जाने के बावजूद अपने पाकेट से कोहिनूर कंडोम का पैक निकाल लिया। रात गुलाबी रंग बिखेरने लगी !
जलगांव , भुसावल , खंडवा तक तो ट्रेन ने सही रास्ता तय किया लेकिन खंडवा से ट्रेन ने अपना निर्धारित मार्ग जाने क्यों बदल लिया। अगले पड़ाव पर उसे अब इटारसी पहुंचना था ........ लेकिन यह क्या ? ट्रेन तो विलासपुर , झारसुगड़ा (उड़ीसा ) और राउरकेला की ओर जा रही थी। ऐसा लगा मानो स्वाती और रमेश द्वारा छक कर पी गई शराब का नशा इस ट्रेन पर चढ़ता जा रहा हो। रात का समय होने के नाते और नींद के आगोश में होने के कारण इन सबसे बेपरवाह थे ट्रेन के सभी यात्री।
इस ट्रेन के यात्रियों की एक झटके में जब नींद खुली तो उन्हें पता चला कि वे राउरकेला स्टेशन पर खड़े थे। सभी यात्रियों के होश उड़ गए थे क्योंकि जिस सुबह उन्हें अपने पहुँचने वाले स्टेशन गोरखपुर में होना चाहिए था तब वे एकदम उलटी जगह पर पड़े थे। प्लेटफार्म पर उतरकर यात्री प्रदर्शन कर रहे थे उधर ट्रेन के गार्ड और पायलट उन्हें समझा रहे थे कि " ट्रेन को डाइवर्ट कर दिया गया है और अब उसका मार्ग आद्रा और आसनसोल होकर गोरखपुर का हो गया है। .....और यह भी कि इस रूट बदलने से ट्रेन को गोरखपुर पहुंचने में 36 घंटे और लगेंगे। "
रमेश को रात की खुमारी से अब निजात मिल गई थी। उसने हड़बड़ा कर अपनी नव विवाहिता को जगाया ही था कि उसके श्वसुर का फोन घनघनाने लगा।
"हाँ बेटा ,अभी तुम लोग कहाँ हो ?......तुम लोग कब तक गोरखपुर पहुँच रहे हो ?"
"पापा , नमस्ते ! असल में ..असल में हम लोगों की ट्रेन का रूट डायवर्जन हो गया है और हम लोग इस समय राउरकेला में हैं। " एक सांस में रमेश बोल गया।
"राउरकेला ?" चौंकते हुए उधर से आवाज़ आई।
"हाँ , पापा जी , असल में स्पेशल ट्रेनों का आपसी समन्वय बिगड़ गया है और अब हमलोग कल तक ही गोरखपुर पहुँच पायेंगे। ..आप चिंता मत कीजिए..सब ठीक है। "इतना कहकर रमेश ने फोन काट दिया।
रमेश अभी भी समझ नहीं पा रहा है कि शराब का नशा उसे चढ़ा था कि इस मुई ट्रेन को ? लेकिन वहीं उसके चंचल मन में यह कामुकता भरा भाव भी उठ रहा है कि भगवान ने उसे एक और हनीमूनी रात दे दी है।