Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Renuka Chugh Middha

Abstract

4.3  

Renuka Chugh Middha

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हक

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डयूक कम हियर .... नो नो डयूक कम हियर। डा॰ मानव के बच्चे डयूक को देख बेहद खुश हुऐ जब वो हास्टल से वापिस घर आये।

डयूक भी घर का दुलारा बन गया।पूरे घर में डयूक के कारण चहल-पहल बनी रहती वरना परिवार में सभी अपने में व्यस्त बहुत कम एक दूसरे के साथ समय बिताते थे। जब से डयूक घर आया तो बच्चों को भी घर में रौनक़ लगने लगी और बच्चे भी इस बार घर पर ही रूक गये वरना बच्चे छुट्टियों में भी बस 1-2 दिन घर लगा कर वापिस हास्टल रहना पसंद करते है। अचानक से कल डयूक चलते-चलते बार -बार गिर रहा था। खाना-पीना भी बन्द हो गया। बस सारा दिन एक ही जगह पर पड़ा रहता जाने क्यूँ। किसी को समझ नहीं आ रहा था। डयूक बहुत ही गमगीन सा सबको चुपचाप देखता रहता जैसे पूछ रहा हो कि मुझे क्या हुआ है ? मैं क्यूँ नहीं चल पा रहा। बाद में जानवरों के डा॰ को दिखाया तो उसने बताया कि डयूक की पिछली टांगों में लकवा मार गया है।ये सुनकर बच्चे रोने लगे।डयूक भी और निढाल हो गया जैसे सब समझ रहा था कि कि उसे क्या हुआ है। डा॰ मानव ने अब नोकर से , डयूक को घर के बाहर छोड़ कर आने को कहा कि अब इस बिमार कुत्ते की घर में कोई जगह नहीं।

डयूक को बाहर पार्क में रखवा दिया, वहीं एक कटोरे में खाना और गन्दे से बर्तन में पानी। आँधी-तूफ़ान ,धूप ,गर्मी ,बारिश में व्याकुल निरीह बेज़ुबान डयूक की कहराती , रूदन करती आँखें जैसे सवाल कर रही थी कि क्या इस घर के बिमार मुखिया की तरह उसे भी तिल-२ कर घर के बाहर ही मौत से पहले मौत से बदतर ज़िन्दगी जीना होगा।उसका क्जैया क़सूर है।

जब तक वोह ठीक था तो सबका दुलारा था लेकिन अब ....क्या अब वो इस परिवार का सदस्य नहीं रहा। बोझ हो गया है।एक मूक जानवर सारे भावों को समझ रहा था और कूकं -कूंक कर जैसे अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा था कि मुझे मेरे परिवार से जुदा मत करो। मुझे मेरे परिवार के साथ रहने दो। मै जल्जै ठीक हो जाऊँगा। बेवफ़ाई मेरी फ़ितरत नहीं है। लेकिन डयूक के इन भावों को समझने के लिये दिल चाहिये जो शायद अब डा॰ मानव के पास नहीं था। अब वह बच्स से कभी नहीं मिल पायेगा जैसे डा॰ मानव के पिता के साथ हुआ था। अन्त समय तक वो सबसे मिलने को तड़पते रहे। जब वोह बिमार हुऐ तो डा॰ मानव ह्दयहीन हो अपने जन्मदाता को ही बस होस्पिटल में नर्सों के सहारे छोड़ आया और कभी ज़्यादा ध्यान ही नहीं दिया। क्यूँकि अब मानव की नज़रों में वोह किसी काम करने लायक़ नहीं थे। तो घर में उनकी अब कोई जगह और ज़रूरत नहीं थी। इसी दुख के मारे मानव के पिता ... जो ठीक हो सकते थे कोई ऐसी गम्भीर बीमारी नहीं थी। बस प्यार और सहारा और आत्मसम्मान ना मिलने के दुख ने उन्हें मार डाला। अन्तिम संस्कार के लिये भी मानव ने हास्पिटल वालों को ही कह दिया कि सब रस्में पूरी कर वो स्वमँ ही संस्कार कर दे। वो जितना भी पैसा लगेगा चुका देगा। स्वमँ डा॰ हो कर कोई इन्सान अपने ही पिता के प्रति इतना पत्थर दिल कैसे हो सकता है। ये सब उस दिन सब जानने वालों ने देखा।  मानव के पिता अपने पिता के “हक़ “से महरूम अकेले लावारिस की तरह जाने कब कैसे और कहाँ जलाये गये किसे पता। 


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