Suresh Koundal

Abstract Inspirational Others

4.0  

Suresh Koundal

Abstract Inspirational Others

हिमाचल की अजंता एलोरा "रॉक कट टेम्पल मसरूर"

हिमाचल की अजंता एलोरा "रॉक कट टेम्पल मसरूर"

7 mins
457


हिमाचल प्रदेश समृद्ध भारत के उत्तर में हिमालय की गोद में बसा हुआ है एक छोटा सा प्रदेश है जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य और अलौकिकता के लिए प्रसिद्ध है। इस पावन धरती हिमाचल को देव भूमि के नाम से जाना जाता है और कहा जाता है कि इस पर देवी-देवताओं की विशेष कृपा है। देवी देवताओं के प्रति अटूट श्रद्धा होने के कारण पूरे प्रदेश में विभिन शैलियों में निर्मित प्राचीन मंदिर विद्यमान हैं यहां प्रस्‍तर और काष्‍ठ के मंदिर बने हुए हैं। मंदिरों की कारीगिरी देख कर प्रदेश की समृद्ध संस्कृति और उसकी भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है और यही समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और धर्मिक परंपराएं हिमाचल की पुण्य भूमि को भारत वर्ष में अद्वितीय बनाती है।

आइए आज आपको ले चलते हैं एक अद्भुत मन्दिर में जो अपने आप में बेजोड़ कला का एक नमूना है। जी हां मैं बात करने जा रहा हूँ हिमाचल की अजंता " रॉक कट टेम्पल मसरूर " के बारे में। हिमाचल प्रदेश के ज़िला काँगड़ा के नगरोटा सूरियां कस्बा से महज 9 किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव मसरूर में स्थित ये अदभुत कलाकृति एक अलौकिक सांस्कृतिक धरोहर है। जहां बस या निजी वाहन द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। घुमावदार सड़क मार्ग से हरे भरे जंगल को पार करते हुए जैसे ही आप गांव मसरूर में उतरते हैं वहां इस अदभुत धरोहर की प्रथम झलक का एक सुखद आश्चर्य आपका स्वागत करता जाता है और आपको एक मनोरम और रोमांचकारी अनुभव का अहसास कराता है। समुद्रतल से लगभग 2500 फुट की ऊंचाई पर चट्टानी पहाड़ी पर स्थित ये मानव निर्मित रॉक कट टैम्पल जिसका अर्थ है पत्थर को काट कर और तराश कर बनाया गया मंदिर। पत्थर काट कर बनाई गई यह अद्भुत कलाकृति वास्तव में हिन्दू मंदिरों का एक संकुल है जो कि उत्तर पूर्व दिशा में धौलाधार पर्वत की ओर मुख करके सदियों से निश्चल हो कर खड़ी है। धौलाधार पर्वत और ब्यास नदी के परिदृश्य में स्थित, यह मंदिर एक सुरम्य पहाड़ी के उच्चतम बिंदू पर स्थित है। जहां से धौलाधार पर्वत की हिमाच्छादित चोटियां स्पष्ट नजर आती हैं। पूरा दृश्य ऐसा लगता है मानो किसी कलाकार ने एक बेहतरीन कृति सजा कर रख दी हो।

उन्नीस शिखर मंदिरों वाली यह अद्भुत संरचना जिसमें सोलह शिखर एक ही प्रस्तर को तराश कर बनाये गए हैं शेष दो शिखर इसके दोनों ओर स्वतंत्र खड़े हैं। एक बड़ी चट्टान निर्मित पहाड़ को काट काट कर गुफानुमा मन्दिर के मुख्य भाग में हिंदूओं के आराध्य भगवान राम लक्ष्मण और माता सीता की काले पत्थर की मूर्तियां हैं जो कि मुख्य मंडप में स्थापित हैं। मुख्य मंदिर में पहले शिवलिंग हुआ करता था। राम और सीता की मूर्तियों को वहां संभवत: 1905 के भूकंप के बाद स्थापित किया गया होगा। मंदिर के सामने एक बड़ा मंडप था और बड़े बड़े स्तम्भ थे जो सम्भवतः भूकम्प के कारण अब नष्ट हो चुके हैं हालंकि छत पर जाने की सीढ़ियां दोनों तरफ़ अभी भी देखी जा सकती हैं। मुख्य मंदिर के आसपास दुर्गा, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य और अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों के अवशेष हैं। मंदिर के दूसरी ओर एक आयताकार मंडप है जिसमें चार विशाल स्तंभ तथा सामने की ओर एक मुखमंडप है। पूर्णतया हिन्दू धर्म से ओत प्रोत इस मंदिर को 'ठाकुरद्वारा' भी कहा जाता है। मन्दिर द्वार पर उकृत शैव आकृतियों से प्रतीत होता है ये मंदिर भगवान शिव को समर्पित रहा होगा।

माना जाता है भारतीय आर्यन वास्तुकला की नगारा शैली में 9 वीं शताब्दी में बने इस मंदिर को चट्टान के एक बड़े ठोस टुकड़े का उपयोग करके बनाया गया है, ये शैली 8वीं और 9वीं शताब्दी में मध्यभारत में प्रचलित थी।इसकी स्थापत्य शैली के कारण, इसे अजंता-एलोरा गुफा मंदिर की याद ताजा करने वाला कहा जाता है। मध्यप्रदेश के मन्दसौर में स्थित धर्मराजेश्वर मंदिर भी इसी शैली से निर्मित मंदिरों का उदाहरण है। 

इसे किसने कब और क्यों बनाया, ये आज भी एक बहुत बड़ा रहस्य है इसका कोई प्रमाणिक साक्ष्य नही हैं परंतु एक लोकप्रिय पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत काल में पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान इसी जगह पर निवास किया था और उन्होंने ही इस मंदिर का निर्माण किया। चूंकि यह एक उनका गुप्त निर्वासन स्थल था इसलिए वे अपनी पहचान उजागर होने से पहले ही यह जगह छोड़ कहीं और पलायन कर गए। कहा जाता है कि मंदिर का जो एक अधूरा भाग है उसके पीछे भी यही एक ठोस कारण मौजूद है। मंदिर के पहाड़ी के ढलान पर जंगली क्षेत्र में फैले हुए विशाल निर्माण एवं वास्तु अवशेषों के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि प्राचीन समय में मसरूर मंदिर के आसपास एक नगर रहा होगा परन्तु शायद भौगोलिक परिस्थितियों के कारण दुनिया की नज़र से अछूता रहा। मंदिर के आसपास का क्षेत्र बहुत प्राचीन है। 

लिव हिस्ट्री डॉट कॉम में छपे शोधपत्र से एकत्रित जानकारी के अनुसार प्राचीन समय में ये क्षेत्र त्रिगर्त या जालंधर साम्राज का हिस्सा हुआ करता था। इसका ज़िक्र महाभारत और 5वीं सदी के व्याकरण संबंधी पाणिनी ग्रंथों में मिलता है। ये क्षेत्र ऐसे मार्ग पर पड़ता है जो मध्य एशिया, कश्मीर और पंजाब को तिब्बत से जोड़ता है। इस तरह व्यापार के मामले में इसका बहुत महत्व है और इसीलिये ये क्षेत्र समृद्ध और ख़ुशहाल है। चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग (635 ई.पू.) में कुल्लु जाते समय यहां आया था और उसने इस क्षेत्र की समृद्धि के बारे में भी लिखा है। बहुत संभव है कि मसरुर मंदिर या तो अमीर व्यापारियों ने या फिर कांगड़ा के राजाओं ने बनवाए होंगे। उस समय किसी वित्तीय सहायता के बिना इतने भव्य मंदिर बनवाना संभव नहीं था। सदियों तक ये मंदिर जंगलों में छुपे रहे और बाहर के लोगों को इनके बारे में पता ही नहीं था।

सन 1835 में ऑस्ट्रिया के खोजकर्ता बैरन चार्ल्स हूगल ने कांगड़ा के एक ऐसे मंदिर का ज़िक्र किया है जो उनके अनुसार एलोरा के मंदिरों से काफ़ी मेल खाता था। यूरोप के एक अन्य यात्री ने भी 1875 में एक मंदिर का जिक्र किया है लेकिन अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया।कालांतर सर्वप्रथम एक अंग्रेज अधिकारी एच एल शटलबर्थ द्वारा इसे खोजा गया और दुनिया की नज़र में लाया गया। हेनरी शटलवर्थ मसरुर मंदिर आया था और उसने इसके बारे में भारतीय पुरातत्व विभाग के अंग्रेज़ अधिकारी हेरोल्ड हारग्रीव्ज़ को बताया था। हारग्रीव्ज़ ने इन मंदिरों का अध्ययन किया और सन 1915 में उसने इन मंदिरों पर एक किताब लिखी। किताब के प्रकाशन के फ़ौरन बाद इन मंदिरों को भारतीय पुरातत्व विभाग का संरक्षण मिल गया जो आज भी जारी है।

मन्दिर की संरचना बहुत अद्भुत है। एक बड़ी चट्टान को काट कर इन मंदिरों के संकुल को इस अद्भुत ढंग से काट कर बनाया गया कि जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती। मन्दिर निर्माण में किसी प्रकार के सीमेंट, धातु ,ईंट, गारा या अन्य भवन निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री का इस्तेमाल नहीं किया गया है। चट्टान काट कर ही गर्भ गृह, मूर्तियां, सीढ़ियां और दरवाजे बनाए गये हैं। चट्टान काट कर जो सीढ़ी बनाई गई है, वो आपको मंदिर की छत पर ले जाती है और वहां से पूरा गांव एवं धौलाधार पर्वत श्रृंखला की हिममंडित चोटियां कुछ अलग ही नजर आती हैं। मन्दिर द्वार पर नकाशीकृत काष्ठ के विशाल किवाड़ लगाए गए हैं। मंदिर के बिल्कुल सम्मुख प्रांगण में स्थित एक प्राकृतिक जलाशय जो मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। कहा जाता है कि इस जलाशय को पांडवों ने ही अपनी पत्नी द्रौपदी के लिए बनवाया था। इस भव्य मंदिर के कुछ हिस्से का प्रतिबिंब जब इस जलाशय दिखता है तो वह इस मंदिर की आभा को चार चाँद लगा देता है।

हालांकि यह शैली पश्चिम और दक्षिण भारत के कई प्राचीन मंदिरों में देखने को मिल जाती है, पर भारत के उत्तरी भाग में यह एक मंदिर अपने आप में ही अनूठे हैं। मंदिर की दीवारों पर की गई है बारीक नक्काशी मन्दिर की अलौकिकता और उस समय की वास्तुकला, मूर्तिकला की दक्षता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मंदिर परिसर में जगह जगह की गई बारीक नक्काशी इतिहास में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह मंदिर एक आदर्श स्थल है जहां पूरे साल कभी भी आया जा सकता है। इस पवित्र स्थल का ऐतिहासिक ,धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व होने के कारण यहां दार्शनिकों पर्यटकों , कला पारखियों , के साथ साथ धर्माबलम्बियों की भीड़ देखने मिलती है। ये स्थान पूरी तरह से पुरातत्व विभाग की देख रेख में है जो समय समय पर इसका जीर्णोद्धार करता रहता है। यहां किसी प्रकार का दान पात्र नही रखा गया और न ही अन्य प्रकार का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस अलौकिक मन्दिर की पहचान होने के बावजूद अभी तक इस क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। पर्यटन के क्षेत्र में अपार सम्भावनाओं को सँजोये ये अद्भुत कलाकृति वर्षों से सरकार की ओर से बेहतरीन बुनियादी सुविधाओं की बाट जोह रही है। हालांकि स्थानीय लोगों ने कुछ छोटे छोटे होटल और रेस्तरां खोल कर इन घनी और सुन्दर वादियों में पर्यटकों को कुछ सुविधाएं देने की कोशिश की है परन्तु ये भी अपर्याप्त हैं। जिला काँगड़ा के इस रोमांचकारी पर्यटन स्थल और अधिक विकसित करने की आवश्यकता है ताकि ये अनमोल विरासत दुनिया के नक्शे पर प्रकाशमान हो सके।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract