ज़िम्मेदार बचपन
ज़िम्मेदार बचपन
मेरे घर से कुछ ही दूरी पर रेलवे स्टेशन है । और रेलवे स्टेशन की दूसरी ओर एक छोटा सा बाजार । हमारे गांव के लोग अकसर बज़ार जाने के लिए रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म से हो कर गुजरने वाले रास्ते का इस्तेमाल कर लेते हैं । जून माह था और रविवार का दिन था । मैं और मेरा मित्र मुनीष भी उसी रास्ते से बाजार जा रहे थे । बहुत गर्मी पड़ रही थी । प्लेटफॉर्म वाला रास्ता पार करते मैंने मुनीष से कहा गर्मी बहुत पड़ रही है मुझे बहुत प्यास लगी है ,गला सूख रहा है । सुन कर मुनीष बोला आओ प्लेटफॉर्म पर लगे वाटरकूलर से पानी पी लेते हैं । हम ने पानी पिया और फिर उसी प्लेटफॉर्म पर लगे पंखे की ठंडी हवा लेने बेंच पर बैठ गए और ठंडी हवा का आनंद लेने लगे । तभी मुनीष ने रेलवे पटरियों की दूसरी ओर इशारा करते हुए मुझे कुछ दिखाने लगा । प्लेटफॉर्म के ठीक सामने पटरियों के उस पार दो छोटे छोटे बच्चे सूखी लकड़ियां बीन रहे थे । एक लगभग आठ या नौ साल की छोटी सी लड़की और लगभग सात साल का लड़का शायद उसी का भाई था ।
तपती धूप के कारण लोहे की पटरियां आग उगल रही थीं ।और वो नन्हे मासूम नंगे पांव छोटे छोटे हाथों से पतली पतली लकड़ियां बीन रहे थे । उस समय शायद उनकी ज़रूरत बहुत बड़ी रही होगी कि उनको गर्म लोहे की तपन का एहसास तक नही था और वे बेख़ौफ़ लकड़ियां चुगने में व्यस्त थे । उनको धधकती गर्मी में संघर्ष करते देख कर मेरे तन बदन में सिरहन सी उठ गई । मैंने हैरानी से मुनीष की ओर देखते हुए प्रश्न किया , क्या इनको गर्मी नही लग रही होगी ? क्या इनके नंगे पैर जल नही रहे होंगे ? मुनीश भी निरुत्तर था वो भी बड़ी हैरानी से उन बच्चों को देख रहा था। उस लड़की ने लगभग 25 से 30 लकड़ियों का छोटा सा गट्ठड़ बनाया फिर सिर पर रख कर अपने भाई की अंगुली पकड़ कर प्लेटफॉर्म की तरफ आने लगी । जब हमारे बेंच के पास से गुजरी तो मैंने बरबस ही पूछ लिया "बेटा तुम्हारा नाम क्या है ?" वो शरमा कर बोली..... 'लक्ष्मी' मैं ने पूछा ये साथ में छुटकू कौन है ? वो बोली .."ये कालू है... मेरा भाई । "
मैंने पूछा "स्कूल नही जाते हो ? " उसने ना के भाव से गर्दन हिलाई और शरमाते हुए प्लेटफॉर्म के पीछे की ओर भाग गई । थोड़ी देर हम प्लेटफार्म ही पर बैठे और लगभग आधे घण्टे के बाद बाजार के रास्ते की ओर मुख कर लिया । रास्ता प्लेटफार्म के पीछे की ओर से जाता था । कुछ कदम चलने पर हम रास्ते के किनारे बनी एक तिकोनी सी दो तरफ से खुली तिरपाल की झुग्गी के पास से गुजरे । जिसमें एक महिला फ़टी पुरानी सी चद्दर ओढे सोई थी और बाहर ईंटों से चूल्हा बना कर एक छोटी सी बच्ची रोटियां पका रही । नन्हे नन्हे हाथों से रोटियां बेलती और तवे पर सेंकती वो बच्ची । वो लक्ष्मी थी जो कुछ क्षण पहले लकड़ियां चुन कर लाई थी । हमारे कदम एकाएक थम गए । मैंने लक्ष्मी को आवाज़ दी "बेटा तुम खाना क्यों बना रही हो ? तुम्हारी माँ कहाँ है ?" वो तोतली ज़ुबान में बोली "मेरी माँ बीमार है । उसको बहुत बुखार है । मेरा भाई भूखा है उसको खाना खिलाना है ।" उसके मुख से निकलने वाले ये शब्द सुनने में बेशक तोतले थे पर उनमें वज़न बहुत था । मैंने मुनीष की तरफ देखा वो भी निशब्द उस बच्ची को सुन रहा था । बड़ी छोटी सी उम्र में ही वो दुनिया में जिम्मेदारी का वो एहसास सीख चुकी थी जो शायद कुछ लोग 40-45 साल तक भी नही सीख पाते । परन्तु आज नन्हे कंधों पर जिम्मेदारी का बोझ देख कर आखों में आंसू भर आये ।फिर कुछ क्षण बाद हम बाज़ार की तरफ बढ़ चले । गर्मी का एहसास जा चुका था । हम निशब्द आगे की ओर बढ़ रहे थे । पर उस बच्ची का मासूम चेहरा रह रह कर आंखों के सामने आ रहा था । बाज़ार पहुंच कर लक्ष्मी और उसके भाई के लिए दो जोड़ी चप्पल , कुछ कपड़े,और खाने का सामान खरीद कर अलग थैले में पैक करवाते वक्त एक जिम्मेदारी का सुखद एहसास हो रहा था जो कि घर लौटते समय उसको देना था ।