Suresh Koundal

Abstract

4.3  

Suresh Koundal

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बाथू की लड़ी मन्दिर ज्वाली (काँगड़ा) हिमाचल प्रदेश

बाथू की लड़ी मन्दिर ज्वाली (काँगड़ा) हिमाचल प्रदेश

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अमूल्य सांस्कृतिक विरासत सँजोये देवभूमि हिमाचल प्रदेश हज़ारों छोटे बड़े मंदिरों की धरती है।  माता ज्वाला जी, चिंतपूर्णी, तिरलोकिनाथ , भीमाकाली , नयनादेवी ,चिंतपूर्णी आदि अनेकों ऐसे मंदिर हैं जिनका वैभव चारों दिशाओं में है। आज मैं आपको एक ऐसे अनूठे मंदिर के बारे में बताने जा रहा जो आपने आप में एक अजूबे से कम नहीं। क्या आपने ऐसे मंदिर के बारे में कभी सुना है जो आठ महीने तक पानी के अंदर रहता है और सिर्फ चार महीने के लिए ही भक्तों को दर्शन देता हो। जी हां ये बिल्कुल सत्य है।

हालांकि ये कोई दैवीय चमत्कार तो नहीं पर परिस्थितिवश कई दशकों से ये मंदिर पानी के अंदर रह रहा है, लेकिन पानी के अंदर रहने के बावजूद इस मंदिर को कोई नुकसान नहीं होता है। इस मंदिर को बाथू मंदिर के नाम से जाना जाता है और स्थानीय भाषा में "बाथू की लड़ी" के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर की इमारत में लगे पत्थर को बाथू का पत्थर कहा जाता है। बाथू मंदिर में मुख्य मंदिर के अलावा अन्य आठ छोटे मंदिर भी है, जिन्हें दूर से देखने पर एक माला में पिरोया हुआ सा प्रतीत होता है। इसीलिए इस खूबसूरत मंदिर को बाथू की लड़ी (माला) कहा जाता है। इन मन्दिरों में शेष नाग ,विष्णु भगवान की मूर्तियाँ स्थापित है और बीच में एक मुख्य मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। हालांकि इस बात का पक्का प्रमाण नही है कि मुख्यमंदिर एक शिव मंदिर है कुछ लोग इसे भगवान विष्णु को समर्पित मानते हैं परंतु मंदिर की शैली और बनावट को देखते इसे शिवमंदिर माना गया है गतवर्ष स्थानीय लोगों ने मिल कर मंदिर में पुनः एक शिवलिंग की स्थापना भी की है। मंदिर में इस्तेमाल किये गए पत्थर, शिलाओं पर भगवान, विष्णु, शेष नाग और देवियों, इत्यादि की कलाकृतियां उकरी हुई मिलती हैं।

ऐसा माना जाता है कि बाथू मंदिर की स्थापना छठी शताब्दी में गुलेरिया साम्राज्य के समय की गई थी। हालांकि इस मंदिर के निर्माण के पीछे कई किवदन्तियां प्रचलित हैं। कुछ लोग इसे पांडवों द्वारा अज्ञात वास के दौरान बनाया गया मानते हैं। कहा जाता है कि कि स्वयं पांडवों ने इसका निर्माण किया था। उन्होंने अपने अज्ञातवास के दौरान शिवलिंग की स्थापना की थी। उन्होंने इस मंदिर के साथ स्तम्भ की अनुकृति जैसा भवन बनाकर स्वर्ग तक जाने के लिए पृथ्वी से सीढ़ियां भी बनाई थीं जिनका निर्माण उन्हें एक रात में करना था। एक रात में स्वर्ग के लिए सीढ़ियाँ बनाना कोई आसान कार्य नहीं था, इसके लिए उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से मदद की गुहार लगाई फलस्वरूप भगवान श्री कृष्ण ने छः महीने की एक रात कर दी। लेकिन छः महीने की रात में स्वर्ग की सीढ़ियाँ बनकर तैयार ना हो सकी, सिर्फ ढाई सीढ़ियों से उनका कार्य अधूरा रह गया था और सुबह हो गई। आज भी इस मंदिर में स्वर्ग की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ नजर आती है वर्तमान समय में इस मंदिर में स्‍वर्ग की चालीस सीढ़ियां मौजूद हैं जिन्हें लोग आस्था के साथ पूजते हैं। यहां से कुछ दूरी एक पत्थर मौजूद है, जिसे भीम द्वारा फेंका गया मन जाता है। कहा जाता है कि कंकड़ मारने से इस पत्थर में खून निकलता है। इस मंदिर के बारे में ऐसे कई सारे राज यहां दफन हैं। 

 जिस जगह ये मंदिर स्थित है वह जगह हल्दून घाटी के नाम से जानी जाती थी। धौलाधार की तलहट्टी में बसी ये घाटी प्राकृतिक सुंदरता से लबरेज़ थी। नर्सेगिक नज़ारों से भरपूर हल्दून घाटी हिमाचल की सबसे उपजाऊ घाटियों में से एक थी। जिसमें एक समृद्ध संस्कृति निवास करती थी। रेल यातायात से सम्पन्न ये घाटी व्यापार और वाणिज्य का केंद्र थी। वर्तमान रेलमार्ग किसी समय में ज्वाली से हल्दून घाटी वाया राजपुरा- अनूर -जगतपुर -मंगवाल- गुलेर से होकर गुजरता था। एक और देहरी खड्ड ,गज्ज खड्ड, बनेर खड्ड का मुहाना और दूसरी और व्यास नदी के मुहाने के मध्य बसी इस बहुत ही उपजाऊ घाटी के लोग बहुत समृद्ध थे। वहीं राजपुरा और जगतपुर के बीच ही कहीं ये मंदिर स्थित था। किंतु सन 1970 में व्यास नदी पर पौंग बांध के निर्माण के चलते सारी हल्दून घाटी जलमग्न हो गई। वहां के लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। और पीछे रह गया बाथू का मंदिर अकेला अड़िग। पौंग डैम निर्माण के कारण बने जलाशय एवं सरकारी उपेक्षा और स्थानीय लोगों की अनदेखी के कारण यह प्राचीनतम मंदिर लुप्तप्रायः होने की कगार पर पहुंच गया। बरसात के दिनों में पौंग बांध का जलस्तर बढ़ने से ये मंदिर जल समाधी ले लेता है और आठ महीने पानी में रहने के पश्चात फरवरी माह के अंत तक जलस्तर घटने पर पानी से बाहर आ जाता है।

हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले की तहसील जवाली के अंतर्गत आने वाले इस मंदिर तक सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। तहसील मुख्यालय ज्वाली से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर तक कार द्वारा वाया केहरियाँ - ढन - चलवाड़ा - गुगलाड़ा सम्पर्क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। ज्वाली से बाथू की लड़ी पहुँचने के दो रास्ते हैं, एक बिल्कुल सीधा रास्ता है, जिससे आप बाथू तक आधे घंटे में पहुंच जाएगा, और वहीं दूसरे रास्ते से आपको इस मंदिर तक पहुँचने में करीबन 40 मिनट का वक्त लगेगा। गुगलाड़ा नामक स्थान पर पहुंचने पर बस योग्य मार्ग समाप्त हो जाता है फिर एक सीधे कच्चे मार्ग से मंदिर की ओर का सफर कार या टैक्सी में तय करना पड़ता है वास्तव में वो कभी रेलमार्ग हुआ करता था पुराने रेलवे स्टेशनों और पुलियों के अवशेष आज भी जहां तहां उस मार्ग पर बिखरे मिल जाते हैं। रास्ते में बांसों का जंगल जो कि हाल ही में वन विभाग द्वारा प्रवासी पक्षियों को शरण देने के उद्देश्य से लगाया गया है इस राह की सुंदरता को चार चांद लगा देता है। जैसे ही जंगल का रास्ता समाप्त होता है और सामने नज़र आता है पौंग बांध जलाशय का विहंगम दृश्य और एक खुला हरा भरा मैदान। जलाशय से आने वाली ठंडी पवन बरबस ही मन को रोचित कर देती हैं ।

मुख्य सड़क से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तय करने के पश्चात मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। ये सारा इलाका भारत सरकार द्वारा प्रवासी पक्षियों के आश्रय के लिए बर्ड सेंचुरी या वेट लेंड के रूप में संरक्षित है जिसमें किसी भी तरह का भवन निर्माण वर्जित है। पक्षियों पर अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों ,वैज्ञानिकों या प्रकृति प्रेमियों के ये लिए सबसे उत्तम जगह है। विदेशी सैलानियों का यहां आना जाना बना रहता है।  खुले मैदान को पार कर के जलाशय के तट पर पहुंच कर वहां का नज़ारा देखते ही बनता है। जलाशय में उठने वाली लहरें समुद्र तट जैसा रोमांच अनुभव करवाती हैं। वर्तमान समय में पिकनिक मनाने वालों के लिए ये आदर्श गन्तव्य स्थान बन कर उभरा है इस लिए आज कल स्थानीय लोग इस जगह को मिनी गोआ की संज्ञा देते हैं। चारों ओर पानी से घिरे टापू पर स्थित बाथू के मंदिर का प्रतिबिम्ब जब जलाशय में पड़ता है तो इसकी आभा को चार चांद लगा देता है। मंदिर वाले टापू पर नाव द्वारा पहुंचा जा सकता है और वो भी तब जब पानी का स्तर नीचे हो तो। कभी कभी जलस्तर इतना कम हो जाता है कि मंदिर तक स्थल मार्ग सामने आ जाता है। तब गाड़ियां मंदिर द्वार तक पहुंच जाती हैं परंतु एक दो साल से ऐसा नही हो रहा। अप्रैल से जून के महीना इस मंदिर के दर्शन के लिए उत्तम है। शेष आठ महीने तक ये मंदिर पानी में जलमग्न रहता है, तो उस दौरान इस मंदिर का उपरी हिस्सा ही दिखाई देता है। इस मंदिर के आसपास कुछ छोटे छोटे टापू बने हुए हैं, इनमें से एक पर्यटन की दृष्टि से प्रसिद्ध है जिसे रेनसर के नाम से जाना जाता है, इसमें रेनसर के फारेस्ट विभाग के कुछ रिजोर्ट्स हैं जहां पर्यटकों के रुकने और रहने की उचित व्यवस्था है। इस रिज़ॉर्ट पर नाव के माध्यम से पहुंच जा सकता है। अन्य विकल्प निकटतम कस्बा जवाली में उपलब्ध हैं जहां रहने के लिए विश्राम गृह और होटल हर समय उपलब्ध हैं।

मंदिर का आसपास का नजारा बेहद मनोरम है, जिसकी ओर कोई भी आकर्षित हो जाये..चारों तरफ पानी और बीच मन्दिरों का समूह बेहद ही खूबसूरत नजर आता है।

मंदिर स्थल से हिमालय की धौलाधार श्रृंखला का अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है।  

जब कभी भी आप हिमाचल आयें तो इस प्राचीन मंदिर को देखने के लिए ज़रूर आएँ। परंतु कुछ बातों का ख्याल ज़रूर रखें। एक तो जलाशय में नहाने न उतरें क्योंकि पानी बहुत ही गहरा है पानी में बने गर्त प्रतिवर्ष कइयों के प्राण लील जाते हैं। दूसरा अपने साथ खानपान का सामान साथ लाएं। पर वहां पर कचरा छोड़ कर ना आयें। कुछ असामाजिक तत्व खाने पीने के पश्चात कांच के गिलास और बोतलें तोड़ जाते हैं जो कि बहुत शर्मनाक प्रतीत होता है। हम सब को ऐसी पवित्र जगहों की सुंदरता और मर्यादा का सम्मान करना चाहिए।  



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