Suresh Koundal

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वट वृक्ष के भीतर बसा शिव मंदिर

वट वृक्ष के भीतर बसा शिव मंदिर

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बरगद की जटाओं से पूर्ण रुपेण आच्छादित प्राचीन मन्दिर जिसके अन्दर विराजमान है महाकाल का दुर्लभ लिंग रूप श्रीविग्रह : कमलेश्वर महादेव ,किम्मण ज्वाली 


महापर्व महाशिवरात्रि भारतीयों का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि का प्रारम्भ इसी दिन से हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग (जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है) के उदय से हुआ। इसी दिन भगवान महादेव का विवाह हिमालय पुत्री माता पार्वती के साथ हुआ था। सम्पूर्ण वर्ष होने वाली शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है भारत सहित पूरी दुनिया में महाशिवरात्रि का पावन पर्व बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है ।

यूँ तो हिमाचल प्रदेश को देवी देवताओं की धरती कहा जाता है जिस पर भगवान भोलेनाथ की विशेष कृपा है जहां अनेकों ऐतिहासिक और पौराणिक स्थान हैं जो भगवान महादेव के पावन सानिध्य का एहसास दिलवाते हैं । इन सुप्रसिद्ध स्थानों में बैजनाथ , मणिमहेश , किन्नर कैलाश, तिरलोकीनाथ, काठगढ़ , कुंजर महादेव आदि भगवान शिव के पवित्र धाम हैं जो भगवान शिव की अलौकिक और अविस्मरणीय दिव्य स्वरूपों का दर्शन किया जा सकता हैं ।

परन्तु असंख्य ऐसे शिव धाम भी हैं जो अलौकिक और अद्भुत है परंतु अभी भी दुनिया की नज़रों से अछूते हैं । ऐसा ही एक अलौकिक और अद्भुत शिवधाम बसा है काँगड़ा ज़िला के ज्वाली उपमंडल के अधीन पड़ते गांव किम्मण स्थित "कमलेश्वर महादेव "। 

 बरगद के वृक्ष की जटाओं के बीच पूरी तरह समा चुके इस अति प्राचीन शिव मंदिर को देखने पर पहली नज़र में देखने से प्रतीत होता है जैसे कि बरगद के वृक्ष के ताने के अंदर ये मंदिर बना हो । परन्तु असल में किसी समय ये मंदिर खुले स्थान पर बनाया गया हो जिसके पास वट वृक्ष हुआ होगा । कालांतर वट वृक्ष की जटाओं ने इस मंदिर को कुछ इस तरह से आच्छादित कर लिया जैसे कोई मां अपने बच्चे को अपने आँचल में छुपा लेती है । केवल मंदिर का प्रवेशद्वार और रोशनदान ही प्रत्यक्ष रूप से इन जटाओं के आवरण से विमुक्त हैं बाकी मंदिर की सारी दीवारें जटाओं के अंदर समाई हुई हैं ।

 माना जाता है कि पेगौड़ा शैली में बने इस प्राचीन मंदिर का निर्माण महाभारत काल में पांडवों द्वारा अपने अज्ञातवास के दौरान किया गया । एक अन्य किवदंती के अनुसार इस मंदिर की स्थापना गुलेर रियासत के किसी शिव भक्त शासक द्वारा की गई । तथ्य चाहे जो भी रहे हों पर इस प्राचीन मंदिर में निवास करते हैं स्वयं कमलेश्वर महादेव ।

प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस मंदिर के प्रांगण में पहुंचते एक अलौकिक सुख की अनुभूति होती है । मंदिर के प्रांगण में एक प्राकृतिक जल कुंड है जो कि सारा साल निर्मल जल से लबालब भरा रहता है कहा जाता है कि इस जलकुण्ड का जल भूमिगत मार्ग द्वारा होते हुए ज्वाली कस्बे के ठीक नीचे स्थित प्राकृतिक जलकुंड नौंण को पानी की आपूर्ति करता है । हलांकि इस कथन में कोई प्रमाणिकता नहीं है ।


कहा जाता है कि इस कुंड की खुदाई के समय एक शिवलिंग रूपी पाषाण मिला जिसे लोगों ने कुंड से बाहर निकल कर रखा पर अगली सुबह वो फिर कुंड के बीच उसी जगह पर ही स्थित मिला । फिर उसे वहीं रहने दिया गया आज भी वो शिवलिंग पानी के नीचे स्थित है । मंदिर के गर्भगृह के भीतर मुख्य शिवलिंग विराजमान है। मंदिर के बाहर रुद्राक्ष के पेड़ों की छाँव में नंदी, शेषनाग जी और अन्य देवी देवताओं की कई प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं । मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना की जाती है । मंदिर में विशेष जाति 'नाथ' जाति के लोग कई वर्षों से पुजारी के रूप में सेवाएं दे रहे हैं । इसके अतिरिक्त पुरातत्व विभाग भी इस मंदिर पर नज़र बनाये हुए है । प्रतिदिन इसे देखने आने वाले पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है लोग दूर दूर से इस अलौकिक मंदिर को देखने आते हैं। महाशिवरात्रि वाले दिन इस मंदिर में शिव भक्तों की बहुत भीड़ होती है। स्थानीय ग्रामीणों द्वारा आये दिन भंडारे का आयोजन किया जाता है। 

जब भी कभी कस्बा ज्वाली आने का कार्यक्रम बने तो इस मंदिर के दर्शन का आनन्द ज़रूर लें। ज्वाली शहर से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर तक निजी वाहन या टेक्सी द्वारा आसानी से पहुंच जा सकता है। मंदिर से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर गांव वसंतपुर में वन विभाग का विश्राम गृह भी है ,जहां ठहरना का इंतज़ाम हो सकता है। इसके अलावा ज्वाली कस्बा में कई होटल और विश्राम गृह भी हैं जहाँ रुक कर ज्वाली के अन्य पर्यटन स्थलों जैसे बाथू की लड़ी, पौंग बांध, रेन्सर , मसरूर मंदिर आदि को भी देखा जा सकता है। 



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