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हाउस नंबर -१३

हाउस नंबर -१३

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कहते हैं की जो चीज़े या बातें आप रोज़मर्रा में सोचते या देखते हैं , प्रायः वही आप अपने सपने में भी देखते हैं, मेरे साथ भी उस दिन यही हुआ।

मेरे पापा आर्मी में हैं , इसलिए उनका ट्रांसफर देश के कई जगहों पर होता रहता है , इस वजह से हमें भी कई जगहों पर घूमने का मौका मिलता है और इस बार हम आ पहुंचे मेघालय की राजधानी शिलांग में.....सच में बहुत ही सुन्दर जगह है , छोटे छोटे लकड़ी के घर , बहुत ही साफ़ सड़कें , ऊँचे पहाड़ , सुन्दर पार्क और झीलें.....सबकुछ इतना खूबसूरत की जैसे हम जन्नत में रहने आ गए हैं......हम सबको शिलांग पसंद आ गया था और पापा को भी इसलिए पापा ने फैसला किया की अब हम यहीं रहेंगे अपना घर ले कर। वैसे तो आर्मी क्वॉर्टर मिला हुआ था रहने के लिए पर हम वहाँ अपना एक घर चाहते थे क्योकि हम सभी वहाँ बसना चाहते थे , तो इसी क्रम में घर ढूंढ़ने की शुरुवात हुई। पापा के ऑफिस जाते ही मैं , मम्मी और मेरी बहन , हम तीनों लोग इंटरनेट पर घर ढूंढ़ने में लग जाते थे और जो भी घर पसंद आता उसका अड्रेस नोट कर लेते और इसी तरह हमने घरों की लिस्ट बना ली थी और संडे को घर देखने जाने का प्लान बना क्योंकि पापा भी उस दिन घर पर ही होते हैं। घर की लिस्ट बहुत लम्बी थी इसलिए सभी ने मिल कर यही निष्कर्ष निकाला की एक दिन में हम 3 घर ही देखेंगे और इसके लिए पापा ने एक गाड़ी भी बुक कर लिया शनिवार तक। मेरी तो ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था , सिर्फ मेरी ही ख़ुशी का क्यों ...घर में हर कोई खुश था की इस सुन्दर जगह में अब अपना भी घर होगा, और शनिवार के दिन सभी ने एक साथ रात का खाना खाया और सुबह कहाँ कहाँ जाना था घर देखने के लिए उस पर कुछ बातें हुई , उसके बाद हम सभी अपने अपने कमरों में सोने चले गए। मेरे लिए तो ये ख्याल ही इतना खूबसूरत था की मेरा भी खुद का घर होगा इतनी सुन्दर जगह पर और ये सोचते सोचते मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला और कब में सपने में चली गई पता ही नहीं चला.......मैंने सपने में खुद को एक रास्ते पे चलता पाया , रास्ता बहुत सुनसान था और रास्ते के दोनों तरफ शंकु के बड़े बड़े पेड़ थे , और हवा चलने के कारण बहुत बुरी तरह से हिल रहे थे और उनकी पत्तियों से आती आवाज़ उस सुनसान रात को और भी डरावना बना रही थी। उस रस्ते पे चलते हुए मई एक बड़े से गेट के सामने पहुंची गेट के बाहर एक बोर्ड लगा हुआ था जिस पे "हाउस नंबर - १३ " लिखा हुआ था। मैं गेट खोल कर अंदर पहुंची और क्या देखती हु की ये तो घर नहीं एक बड़ा आलिशान बंगला है , और बड़ा सा गार्डन है और उस गार्डन में बच्चों और बड़ो दोनों के लिए झूला लगा हुआ है और गार्डन की दूसरी तरफ बड़ा सा स्विमिंग पूल भी है , ये नज़ारा मुझे इतना अच्छा लग रहा था कि मैं बस खो ही गई थी , पर तभी मुझे बंगले से एक चीख़ आती सुनाई दी , और मै दौड़ते हुए बंगले के अंदर पहुँच गयी। अंदर का नज़ारा देख कर तो जैसे मेरी आँखे बस फटी सी रह गई आश्चर्य से , बड़ा सा आलिशान हॉल , जिसमें शीशे के बड़े बड़े झूमर और सुन्दर सुन्दर पेंटिंग और बड़ा सा डायनिंग टेबल था जिसमे एक साथ २० लोग बैठ कर साथ में खाना खा सकते थे , इन सब में मैं ऐसे खो गयी जैसे किसी ने मुझ पे सम्मोहन किया हो। तभी फिर वो चीख़ मुझे दुबारा सुनाई दी , मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो पाया की ये चीख ऊपर बने कमरे से आ रही है और समय ना गवाते हुए मई सीढ़ियों से होते हुए ऊपर वाले कमरे के पास पहुंची , पर ये क्या इस कमरे पर तो ताला लगा हुआ है ..मैंने इधर -उधर देखा तो एक कुल्हाड़ी नज़र आयी जैसे ही मैंने कुल्हाड़ी को दरवाज़े पर मारने के लिए उठाया तो ताला अपने से ही खुल गया और मई दौड़ कर अंदर चली गई , पर अंदर जो देखा तो ऐसा लगा की मैं वहीं जम गयी हूँ क्योकि जो चीखने की आवाज़ आ रही थी वो किसी और की नहीं बल्कि मेरी बहन की ही थी और वो अपनी उँगलियों से कमरे के कोने की तरफ इशारा कर रही थी , मैं तुरंत उस कोने में पहुंची तो पाया की मेरे मम्मी-पापा की लाश पड़ी है वहाँ और तभी मेरी माँ ने मुझे नींद से जगा दिया और तैयार होने के लिए कहा क्योकि आज रविवार था और आज हमें घर देखने जाना था , पर उस सपने ने मुझे परेशान कर दिया था क्योकि वो सब जो मैंने सपने में देखा वो ऐसा लग रहा था की सच में हुआ है।

....खैर मैंने खुद को संभाला और तैयार होकर नाश्ता कर के गाड़ी में बैठी और फिर सब के साथ घर खरीदने के लिए निकल पड़ी। करीब एक घंटे के बाद हम एक सुनसान रास्ते पर थे और मुझे लग रहा था की मैंने ये जगह कही देखी है और सहसा दिमाग में कौंधा की ये जगह तो सपने वाली जगह से मिलती जुलती है और तब तक हम बड़े से गेट के सामने थे जिसपे वही नंबर लिखा था जो मैंने सपने में देखा था , मैंने पापा को तुरंत बोला की पापा हम ये घर नहीं देखेंगे क्योकि ये घर बहुत बड़ा है और शहर से दूर भी , पर मेरा ये बहाना पापा के सामने काम ना कर पाया पर मौका पा कर मैंने अपनी माँ को सब बता दिया , पर कहते है ना की होनी को कोई नहीं टाल सकता , पापा ने मम्मी की बात नहीं सुनी या यूँ कहुँ की सब सुन कर भी अनसुना कर दिया ,वो घर की तरफ ऐसे बढ़े जा रहे थे जैसे वो किसी की वश में चल रहे। जैसे ही पापा बंगले के अंदर पहुंचे , उसका दरवाज़ा बंद हो गया और उसके बाद जो सुनाई दी वो थी उनकी चीख़। हमने बहुत कोशिश की उस दरवाज़े को तोड़ने की पर सब बेकार था। हम ने उस दिन के बाद शिलांग छोड़ दिया।



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