Bhavna Thaker

Tragedy

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Bhavna Thaker

Tragedy

हाँ मैं भी बनना तो चाहती हूँ बुद्ध.. पर

हाँ मैं भी बनना तो चाहती हूँ बुद्ध.. पर

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"मैं भी बुद्ध बनना चाहती हूँ ..पर"

चाहती तो हूँ मैं भी बुद्ध बनना पर जिम्मेदारीयां तन के उपर खाल की तरह लिपटी है। उधेड़कर मुक्त होना संभव कहाँ। परिणय सूत्र को तोड़ कर मातृत्व बच्चे से छीन कर अलख जगाना आसान कहाँ। 

सृष्टि के विशाल होने से मुझे क्या फ़र्क पड़ता है। मेरी तो सृष्टि घर की चारदीवारी के भीतर पनपती है। मनचाहा आकार ले लेती है मेरी इच्छाएं अपनों के सपनो में ढलती। पूरा विश्व अपने परिवार की आँखों की धुरी तक सिमित है मेरा। जीवन की हलचल परिवार की हंसी, जीवन का कोलाहल परिवार का पोषण है।

कभी-कभी पतीले में चाय की तरह उबलती है मेरी थकान पसीजती तन में तब चेतना की झनझनाहट उसे भी उकसाती है। असीम दु:ख का केंद्र बिन्दु तलाशने की तमन्नाएँ सर उठाती है तब मैं भी आत्मा की खोज में सब छोड़-छाड़ कर, घर-बार त्याग कर मोह का अंचला उतारकर दहलीज़ लाँघना चाहती हूँ। मेरे भी वक्ष के भीतर धमासान मचा है। मुझे भी पाना है खुद को, जानना है जन्म और मृत्यु के रहस्यों को। पर मेरे उर में अरमानों की कोई दीपशिखा नहीं जलती। एक घर की खूंटी के उपर टंगा है मेरा अस्तित्व। कितनी आँखें मेरी ओर आस लगाएँ देखती है। कितनों का आधार हूँ मैं।

ज़िंदगी का मर्म जानने से ज़्यादा मेरे लिए अपने आस-पास रची बसी अवलम्बित दुनिया को पीठ पर लादना मेरे लिए ज़्यादा जरूरी है। मेरा जन्म चट्टान की परिभाषा है। मेरी काया के भीतर ममता का विस्तृत आसमान रचा है। मैं करुणा का उपहार हूँ मेरे बालक के लिए कैसे कोई निश्चय करूँ अपने तनय को त्यागने का।

कितनी कुमारीकाएं जन्मती है और जन्म के साथ ही विसर्जन कर देती है अपनी मनोवृत्ति की मालाएं, कितनी यौवनाएं दरिंदों के हवस की रोटी बनती है। कितनी वृद्धाएं अभिशाप से मरती है। फिर भी 

जीवन को धन्य मानती, स्त्री के सांचे में ढ़लती ज़िंदगी की पटरी पर दौड़ती रहती है। हर स्टेशन से दिल के डिब्बे में मुसाफ़िर भरती। मैं उनमें से ही एक हूँ। मोहाँध है मेरा बोझ कैसे बनूँ मैं बुद्ध ? मैंने नारी के नाम का चोला चढ़ाया है। आधी रात को परिवार को सोता हुआ छोड़ कर निकल जाना क्या लाज़मी है ? या आसान है मेरे लिए लिए। यशोधराएं सोच भी नहीं सकती। सुबह एक कान से दूसरे कान तक खबर पहुँचते ही करार दी जाऊँगी बदचलन, छिनाल और जाने क्या-क्या। 

उसके तो पति भगवान राम थे। "याद तो होगी अग्नि परीक्षा" गुनगुनी नदी से उपालंभ के सैकड़ों बिच्छु लिपटे है मेरे हिस्से में कोई समुन्दर नहीं।

अगर मैं बुद्ध बनना चाहूँ तो संसार की क्षितिज पर जिम्मेदारी का सूरज डूबता हुआ नज़र आएगा। माँ, बेटी, पत्नी, भाभी और बहू बनकर देखो अपनो के प्रति स्नेह और ज़िम्मेदारीयों का फ़र्ज़ आधी रात को दहलीज़ लाँघने पर रोक ना ले तो कहना। हाँ मैं भी बनना तो चाहती हूँ बुद्ध पर!


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