नन्द कुमार शुक्ल

Tragedy

3  

नन्द कुमार शुक्ल

Tragedy

गुरु और शिष्य

गुरु और शिष्य

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राजू एक मंदबुद्धि का बालक था । बचपन मे ही उसके माता-पिता का स्वर्ग वास हो गया । अतः गाव का प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे भोजन बस्त्र आदि देकर उसकी मदद कर देता । 

कुछ बङा हहोने पर वह गांव के सरकारी स्कूल मे पढने भी जाने लगा । लेकिन मन्दबुद्धि के कारण वह अन्य बच्चो के जैसा होशियार नही था । पढाने बाले शिक्षक कई कई बार समझाते लेकिन उसे समझ नही आता । मन्द बुद्धि का होने के साथ-साथ  उसका एक गुण ऐसा भी है जो उसे सबसे अलग करता है ।वह गुण है आज्ञापालन । राजू अपने सभी शिक्षकों का सम्मान करता है तथा मित्रो से भी अच्छा व्यवहार करता परन्तु कमी यही है कि वह पढने मे कमजोर है ।

धीरे धीरे समय बीतता गया ।कुछ दिन बाद स्कूल में नये शिक्षक आए । जिनका नाम विद्यासागर था । वह बङे ही नेक सदाचारी तथा शिष्यों से बहुत प्रेम करते थे ।जब वह पहले दिन कक्षा में पढा रहे थे तभी उन्होंने अनुभव किया कि राजू असामान्य बालक है।  राजू को अतिरिक्त समय दिया जाए तभी यह भी अन्य बच्चों की तरह होशियार हो पाएगा । ऐसा सोचकर उन्होंने राजू से कहा कि तुम स्कूल के बाद हमारे घर पर आ जाया करो । उन्होंने उसे स्कूल के बाद अपने पास बुलाकर पढ़ना शुरू किया । विद्यासागर जी को अतिरिक्त मेहनत तो करनी ही पङी लेकिन कुछ ही  दिनो में  राजू सामान्य बच्चों की तरह पढने लगा । राजू और विद्यासागर जी दोनो गुरु शिष्य एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे । 

लेकिन उनका यह प्रेमपूर्ण साथ राजू को अधिक समय तक न मिल सका। विद्यासागर जी का तबादला दूसरी जगह हो गया । राजू भी आठवीं तक ही पढ पाया। क्योंकि उसे पढने के लिए पैसों की जरूरत थी जो उसके पास थे नही अतः वह अपने गांव में ही एक जमींदार के खेतो मे काम करने लगा । वह बहुत ही मेहनती और लगनशील था कुछ ही दिनों में  उसकी मेहनत रंग लाई और धरती सोना उगलने लगी।

इधर विद्यासागर जी भी रिटायर हो गये । तो वह अपने परिवार के साथ रहने लगे । जिन बच्चों के लिए जीवन भर उन्होंने त्याग किया वही बुढापे मे विद्यासागर जी को  बोझ समझने लगते है । बहुएं  उन्हे ताने मार कर अपमानित करती । इससे उन्हें असह्य पीङा होती पर वह पुत्र प्रेम के कारण किसी को कुछ भी नही कहते अन्दर ही अन्दर घुटते रहते । एक दिन उन्हें अनायास  ही राजू की याद आई । वह किसी को विना कुछ बताए ही वह राजू के गांव चले आए । गांव में  आकर उन्होंने राजू के बारे मे पूछा तो एक व्यक्ति ने कहा वह तो जमींदार के खेतों पर काम करता है चलो मै तुम्हे वहां छोङ देता हूं ।वह उन्हे खेत पर ले गया जहां राजू काम करता था ।

राजू दूर से ही गुरु जी को देखा तो वह काम छोड़कर भागा । पास जाकर प्रणाम किया और उन्हें साथ ले आया । गुरु जी के लिए चारपाई डाल दी और स्वयं जमीन मे बैठ गया । दोनो गुरु शिष्य के नेत्र सजल हो गये दोनो एक दूसरे को पाकर बहुत प्रसन्न हुए । राजू ने कहा गुरू जी तुम मुझे छोङकर कहां चले गए थे मुझे तुम्हारी बहुत याद आती थी । विद्यासागर  जी ने राजू अब मै तुम्हें छोड़कर कहीं नही जाऊंगा ।अब मै यहीं तुम्हारे पास तुम्हारे ही साथ रहूंगा । विद्यासागर वहीं राजू के पास रहने लगे और खाली समय में गांव के कमजोर बच्चों को पढाने लगे ।  राजू को पिता जैसा गुरू और विद्यासागर जी को पुत्र जैसा शिष्य मिल गया । 



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