Krishna Bansal

Tragedy

4  

Krishna Bansal

Tragedy

गरीबो : एक चित्रण

गरीबो : एक चित्रण

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ट्रांसफर के बाद, नए शहर में

नए लोग, नया वातावरण, नई समस्याएं। 


किसी नौकर, नौकरानी का, यूं कह लीजिए घरेलू सहायक का कोई प्रबंध हो नहीं पा रहा था। बच्चों की देखभाल के लिए, खाना बनाने, घर की साफ सफाई व कपड़ों इत्यादि के लिए कोई इन्तज़ाम न होने के कारण मुझे ही छुट्टी के लिए आवेदन देना पड़ा। मुझे भी घर के काम की कहां आदत थी। पूरा काम करते करते मैं बुरी तरह थक जाती। घर में तनाव का वातावरण बना हुआ था। कई दिनों के प्रयासों के उपरान्त एक काम वाली बाई मिल गई, चैन की सांस आई। नाम पूछने पर उसने अपना नाम 'गरीबो' बताया। जब मैंने उसे प्रश्नवाचक आंखों से देखा तो ज़रा सा मुस्करा कर बोली 'बीबी जी हम गरीब लोग हैं और मेरे आने पर बापू का जो छोटा सा काम था, वह भी खत्म हो गया। सो मेरा नाम गरीबो रख दिया गया।। गली, मुहल्ले, स्कूल में बच्चे मेरे नाम का मज़ाक उड़ाते, मैंने स्कूल जाना बन्द कर दिया सो अनपढ़ ही रह गई।

उसके बच्चे भी लगभग हमारे बच्चों की उम्र के थे तो सोचा गया कि वह हमारे बच्चों को भी उतना ही प्यार से रखेगी जितने अपने बच्चों को रखती है। आखिर मां है मातृत्व की भावना उसमें होगी ही। 

तनख्वाह, ड्यूटी समय व अन्य शर्तें तय हो गई। सब कुछ तय होने के बाद उसने कहा कि अभी कुछ दिन के लिए व्यस्त है उसे मायके में एक शादी में जाना है पहली तारीख से काम पर आ जाएगी। वायदे के अनुसार वह पहली तारीख को ड्यूटी पर हाज़िर हो गई सुबह सात बजे।

हमारे पहले वाली बाई चूंकि बहुत चुस्त थी, हर काम में निपुण, बातचीत में मधुर भाषी, शक्ल सूरत से सुन्दर। मन ही मन न चाहते हुए भी गरीबो की तुलना उससे हो जाती। गरीबो काम धीरे करती थी, बातचीत में भी हां या न में ही उत्तर देती पर काम चल पड़ा था। मैं अपनी ड्यूटी पर जाती और उसको सारा काम समझा जाती। जब मैं वापिस आती उसने कुछ काम किया हुआ होता और कुछ मुझे साथ करवाना पड़ता और तीन बजे वह अपने घर चली जाती।


हमारा रिश्ता किसी भावात्मक स्तर से नहीं जुड़ा था। वह अपने काम से काम रखती, समय मेरे पास भी नहीं होता था।


एक दो बार बच्चों ने उसकी शिकायत की, गुस्सा होती है, कभी थप्पड़ भी मार देती है,खाना बनाने में लापरवाही बरतती है मैंने बच्चों को समझाया नई नई लगी है समायोजन करने में समय लगता है धैर्य रखो। गरीबो को थोड़ी सी नसीहत परोस दी। जैसे तैसे गाड़ी, पैसेंजर ही सही, अच्छी चल निकली।


सर्दियों के दिन थे। घर के सभी सदस्य की तरफ से साग और मक्की की रोटी की फरमाइश आई। बाज़ार से सरसों और पालक लाया गया और उसे काट लिया गया। उन दिनों घरों में गैस का चूल्हा नहीं होता था सभी लोग अंगीठी, साधारण चूल्हा या फिर स्टोव पर ही खाना बनाते थे। बहुत कठिन होता था खाना पकाना, पर और कोई चारा भी तो नहीं था। 

साग बनाने के लिए एक विशेष बर्तन होता था 'डेचका'।अभी कुकर का ज़माना नहीं आया था। साग पकाने के बाद उसमें थोड़ा सा मक्की का आटा डाल घोंटने से घोटा जाता था। आजकल इसे मिक्सी में पीसा जाता है। दोनों तरीकों से बनाए गए साग के स्वाद में बहुत अन्तर होता है।

भरत धातु का बना छोटे घड़े के साइज़ का डेचका एन्टीक पीस के तौर पर आजकल ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता है।

मैंने साग चढ़ाने के लिए डेचका उठाना चाहा, निर्धारित स्थान पर नहीं था। इधर ढूंढ, उधर ढूंढ, कहीं नज़र नहीं आया। साग का प्रोग्राम खत्म कर अन्य सब्जी बना डिनर कर लिया।  

मन में कुछ घुमड़ता रहा। कहां चला गया कौन ले गया। घर में कोई आता जाता भी नहीं है।अभी हम यहां नए नए आएं हैं किसी के साथ अदला बदली भी नहीं होती।

इन्सान की फितरत, शक सदैव घर के नौकर नौकरानी पर चला जाता है। मन में विचार चल रहा था आज यह बर्तन गया है कल कुछ भी जा सकता है। पूरा घर है इसके हवाले होता है। फिर तो यह विश्वास के काबिल नहीं रही।

पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी। यह न हो, पांसा उल्टा पड़ जाए और लेने के देने पड़ जाएं। दो तीन दिन इसी कश्मकश में निकल गए। उठते बैठते एक ही विचार मस्तिष्क में घूमता रहता था। पति से सलाह की। परेशान तो भी बहुत थे। धीरे से कहा अभी रहने दो, इस बार नया लें आएंगे।

मेरे से बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। तीसरे दिन हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया कि क्या उसने कहीं डेचका देखा है।

पूछने की देर, उसने रोना शुरु कर दिया। मैंने उसे कहा कि मैंने उसे कुछ कहा थोड़े ही है केवल पूछा है। उसने मेरी एक भी नहीं सुनी और रोते रोते थोड़ा सा काम निपटाया और बिना बताए भाग ली।

अगले दिन वह काम पर नहीं आई।हमारा सारा सिस्टम बिगड़ गया था।


मैं उसके घर गई, उसे मनाने के लिए। अंदर से उसका पति निकला। बोला 'कल सारी रात वह रोती रही।

तोहमत लगाने से पहले आपने सोचा होता। हम गरीब जरूर हैं पर चोर नहीं।'

इससे पहले कि मैं अपनी सफाई पेश करती, उसने अपना दरवाज़ा बन्द कर लिया। 

मैं अपना सा मुंह लेकर लौट आई।

अभी भी उसके पति के शब्द 'हम गरीब जरूर हैं पर चोर नहीं' कानों में गूंज रहे हैं।



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